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गांधी के देश में

सुधीर चंद्र

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13866
आईएसबीएन :9788126718733

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विवेक, सन्मति और सदाशयता के धनी चिन्तक, विख्यात इतिहासकार सुधीर चन्द्र की निबन्ध पुस्तक।

विवेक, सन्मति और सदाशयता के धनी चिन्तक, विख्यात इतिहासकार सुधीर चन्द्र की निबन्ध पुस्तक। ‘‘सत्य, अहिंसा, प्रेम, अस्तेयादि एक झटके में और कायमी तौर पर लोगों की जिन्दगी में परिवर्तन ला देनेवाले गुण नहीं हैं। खुद गांधी सारी जिन्दगी अपने को गांधी बनाने में लगे रहे थे। पर गांधी के नाम पर सब कुछ निछावर करनेवालों ने कुर्बानियाँ जो भी की हों, उन लोगों ने अपने को वैसा बनाने की कोशिश नहीं की जैसा बन कर ही गांधी का स्वराज हासिल हो सकता था।’’ ‘‘गांधी की हमारी समझ गम्भीर रूप से अपूर्ण रहेगी जब तक हम अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में उस हिंसा के स्वरूप और परिस्थितियों को समझने की शुरुआत नहीं करते, जिसे नैतिक हिंसा कहा जा सके।’’ ‘‘समलैंगिकता को अप्राकृतिक या अस्वाभाविक मान लेने का आधार क्या है? इसी से जुड़ा एक बुनियादी सवाल भी उठता है: क्या किसी कर्म का अप्राकृतिक होना काफी है उसे दंडनीय अपराध बनाए जाने के लिए? किसी कर्म का प्राकृतिक या अप्राकृतिक होना - जिस हद तक इस तरह का निर्धारण सम्भव है - उसे अपराध की श्रेणी में न तो लाता है और न ही उससे बाहर रखता है। हिंसा और वासना से जुड़े तमाम अपराधों को प्राकृतिक कृत्यों के रूप में देखा जा सकता है। दूसरी तरफ सभ्यता और संस्कृति का विकास उत्तरोत्तर हमेें प्रकृति से दूर लाता आया है।’’ ‘‘जो मैं नहीं समझ पाता वह है बहुत सारे लोगों का विश्वास, देरीदा की मिसाल देते हुए कि, ‘डीकंस्ट्रक्शन’ और परिणामस्वरूप उत्तर-आधुनिकतावाद ‘एमॉरल’ - नैतिक-अनैतिक से परे - है। देरीदा को, न कि देरीदा के बारे में, थोड़ा ही सही, पढ़े बगैर कुछ प्रचलित भ्रान्तियों को मान लेना बौद्धिक आलस है।’’ देश के गतिशील समकालीन यथार्थ को समझने के लिए एक जरूरी पाठ।

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