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कविता संग्रह >> मेरी जमीन मेरा आसमान

मेरी जमीन मेरा आसमान

लवलीन

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14057
आईएसबीएन :9788126725649

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अपनी लेखन यात्रा में उसने कोई तंत्र-मंत्र नहीं जपा, बिना किसी औपचारिकता में उलझे, वह चलती चली गई-सांसारिक होकर भी तपस्विनी ।

वर्षों पुरानी बात है, ऑल इंडिया रेडियो के परिसर में, वहाँ के मटमैले वातावरण में एक नवयुवती, कसी हुई जींस और लम्बे बूट पहने खट-खट करती गहरे आत्मविश्वास का दुशाला ओढ़े आती-जाती दिखाई पड़ती थी । पता चला, वह रूसी भाषा, टॉल्सटॉय-दस्तायेवस्की जैसे महान लेखकों की भाषा जानती है और रेडियो में रूसी भाषा की विभागाध्यक्षा थी । यही नहीं, वह बड़ेबड़े समारोहों और विचार-गोष्ठियों में रूसी अतिथियों और भारत के मंत्रिगण, जैसे कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी, श्री नरसिंह राव, श्री इन्द्र कुमार गुजराल, श्री अटल बिहारी वाजपेयी, के मध्य दुभाषिए के रूप में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती थी । वहीं पता चला, उसका नाम लवलीन है और वह रेडियो ही नहीं, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी रूसी भाषा पढ़ाती है । उसे निकट से देखा-सुन्दर मुखाकृति, बड़ी-बड़ी आँखें जिनमें मुझे ढेर सारे सपने झिलमिलाते नजर आए थे । उसके बेपरवाह घुँघराले बाल और कर्मठ कसावट वाला व्यक्तित्व मुझे बड़ा प्रभावशाली लगा था । तब परिचय हो नहीं पाया और बीच से बहुत से वर्ष फिसल गए । परन्तु उसके चेहरे का, व्यक्तित्व का प्रभाव मेरी 'इमोशनल मेमोरी' में सदा बना रहा । जब मिली तो वह लवलीन, लवलीन थदानी बन चुकी थी, वेदान्त और कर्मण्य की माँ भी, परन्तु आश्चर्य हुआ मुझे, उम्र के परिवर्तन ने उसके शरीर को अनछुआ छोडू दिया था, वह पहले जैसी ही थी-सौम्य और मधुर । इंडिया इंटरनेशनल सेन्टर के किसी कार्यक्रम में उसकी अंग्रेजी की कविताएँ सुनीं, उसकी कविताएँ मेरे मन के भीतर उतर गईं, जाने-अनजाने भावनाओं के गर्भगृह में हमारा एक जुड़ाव पनप गया । तब से हम जितना बन पड़ा, मिलते रहे । मेरी फिल्म 'पंचवटी' पर एक कार्यक्रम का संचालन लवलीन को करना था तो एक पूरा दिन हम एक सूने कमरे में साथ-साथ बैठे रहे एक-दूसरे को जानने के तहत... मैं उसकी दीदी हो गई । कुछ भावनाओं की केमिस्ट्री पता नहीं कैसे एक दूसरे जैसी हो जाती है! मुड़कर देखती हूँ तो याद पड़ता है, मैंने,' लवलीन का कोई भी कार्यक्रम, कविताएँ हों या उसकी बनाई फिल्में, कुछ नहीं छोड़ा,.. तो, उसका व्यक्तित्व हर प्रस्तुति में, जैसा वह कहती है, 'थकती नहीं मैं जीने से' बड़ा सार्थक लगा था, उसका अंदाज-ए-बयाँ उसका अपना था । अपनी कविताओं के सभी रूपों में वह स्वयं सम्मोहित थी और अब भी है, आकारों में, धरती के उन कणों में जहाँ वह गुलाब भी रखती है और चिराग भी जलाती है । जुमीं से आसमाँ तक वह खुद को तलाशती नजर आती है । वह मानती भी है 'हमें खुद ही देना होगा अपना साथ ।' अपनी लेखन यात्रा में उसने कोई तंत्र-मंत्र नहीं जपा, बिना किसी औपचारिकता में उलझे, वह चलती चली गई-सांसारिक होकर भी तपस्विनी । जब भी मैं उसे देखती, मुझे लगता, कृष्ण भक्त मीरा की तरह लवलीन सन्त महात्माओं के बताए निर्गुण शब्द से अलग, सगुण प्रेम में लीन है । यह भी सच था कि अपनी दीवानगी की रहगुजर बनीं वे पगडंडियाँ, जो उसे उन पुराने अन्धविश्वास जीने वाले, गली-कूचों और गाँव में ले गई, जहाँ गुमराह करने वाला अँधेरा पसरा हुआ था । लवलीन ने अपनी नाजुक उँगलियों कुरेद-कुरेदकर उन सभी कुरीतियों की दास्तानें जमा कीं जो मनुष्यत्व के नाम पर एक-एक कालिख जैसी थीं । उसकी फिल्में मैंने देखी हैं.. .वह फॉर्मूलाबद्ध फिल्में नहीं थीं, उनमें सामाजिक कुरीतियों (विशेष रूप से स्त्री के प्रति समाज का दृष्टिकोण, विसंगतियाँ) के प्रति गहरा आक्रोश है, एक विषाद और हताशा जिसकी चोट से विकृत रूप को बड़ी नाटकीयता से सबके सामने रखती है और साथ ही दर्शक को एक.. .तर्कयुक्त निर्णय तक पहुँचाती है । उसकी फिल्में आत्मा को झकझोरती '... भीतरी मानसिकता को भी, जहाँ कानून, पुलिस या अदालत नहीं होते, ही, होता है एक आत्मिक दंड । वह कोई दावा नहीं करती, केवल समाज को उसका असली चेहरा दिखाती है । वह घुल जाती है अपने कथानक में, घुमड़ते दुख में.. .कष्ट में, पाप में-तब न पाप बचता है, न सारे के सारे द्वैत भाव मिट जाते हैं-वह अकेले बचती है, पार उतर जाती पुण्‍य क्तं आनंद स तो होता है, सुखदुख दोनों के पार । लवलीन के भावचित्र कविता हो या फिल्म, अपनी तरह से पुराने विश्वासों, संकल्पों, भावनाओं को नये-नये शब्द देते हैं । सत्य को वह भिन्न-भिन्न रूप से परिभाषित करती है... नहीं तो उसका अपनापन, सनातन सत्य, पुराने ढाँचों में आबद्ध दम तोड़ देता । उसे लगता है, सत्य को नई उद्‌भावना चाहिए, नई तरंग- 'इनसानियत को मुस्कुराहट के तोहफों से सजाएँने अपने बुजुर्गों की गलतियों को हरगिज नहीं दोहराएंगे ?'' अद्‌भुत है लवलीन की आत्मिक ऊर्जा, उसका व्यापक चैतन्य, जब वह अमृता प्रीतम के जीवन पर आधारित नाटक में अमृता प्रीतम की भूमिका निभा रही थी । पूरी की पूरी मानसिकता में अमृता प्रीतम को वह हर पल जी रही थी-मंच पर और मंच के बाद भी । नाटक में, उर्दू के प्रसिद्ध शायर साहिर लुधियानवी की मृत्यु पर फूट-फूटकर रोती लवलीन, लवलीन नहीं बची थी, पूरी अमृता हो गई थी । मैं हैरानी से सोचती कहाँ से ले आती है वह इतनी ऊर्जा? इतने सारे काम एक साथ कर डालतीहै बिना थके, बिना हार माने! कितना जोखिम भरा रहा होगा उसके लिए कारागार में जाकर अपनी फिल्म 'बलात्कार' या 'रेप' की शूटिंग करना-औरत पर हुए जुल्मों को बयान करना! परन्तु वह मगन है अपनी तपश्यर्चा में, दीवानगी में, फक्कड़पन में, बिना मेहनत-मशक्कत किए जी नहीं पाती.. .अपना बहुमूल्य ज्ञान बाँटने में जुटी है । और उसके लिए वह जाने कहां-कहां से. जाती है, बेझिझक यह कविता संग्रह 'मेरी जमीन मेरा आसमान' ही आखिरी मंजिल नहीं है उसकी, लवलीन के पास अभी भी ढेर सारे अनगाए गीत हैं.. -नर्कमें हैं । प्रेम में पागल होकर पद्य गाए जाते हैं और दीवानगी में जिया जाता है- उसकी बेचैन रूह उसे जीने कहाँ देती है! चाहे वह जितना कहे- ' 'मैं पौधे को पानी देती गई और प्यास मेरी बुझती गई ।'' वैसा होता कहाँ है! अभी यहाँ है, कल उसकी प्यासी आत्मा किसी पहाड़ की अँधेरी गुफा में कुछ नया तलाशती मिल जाएगी आपको । परन्तु एक उसी क्षण उसका चेहरा आत्मसंतुष्टि से भरा चमचमाता है, जब वह अपने बच्चों का नाम लेती है-वेदान्त और कर्मण्ये, जैसे नाम नहीं ले रही, मन्त्रोच्चारण कर रही है लवलीन! जिन्दगी के हर पहलू को लवलीन भरपूर जीती है-पूरी सच्चाई और शिद्‌दत के साथ ।

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