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सामाजिक विमर्श >> परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयाम

परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयाम

पूरनचन्द जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :244
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14125
आईएसबीएन :9788171788439

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समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और सांस्कृतिक क्षेत्र के मर्मज्ञ विद्वान प्रो, पूरनचन्द्र जोशी की यह कृति भारतीय सामाजिक परिवर्तन और विकास के संदर्भ में कुछ बुनियादी सवालों और समस्याओं पर किए गए चिंतन का नतीजा है।

समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और सांस्कृतिक क्षेत्र के मर्मज्ञ विद्वान प्रो, पूरनचन्द्र जोशी की यह कृति भारतीय सामाजिक परिवर्तन और विकास के संदर्भ में कुछ बुनियादी सवालों और समस्याओं पर किए गए चिंतन का नतीजा है। चार भागों में संयोजित -इस कृति में कुल पंद्रह निबंध हैं, जो एक ओर आधुनिक आर्थिक विकास और सामाजिक परिवर्तन को सांस्कृतिक आयामों पर और दूसरी ओर सांस्कृतिक जगत की उभरती समस्याओं के आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं पर नया प्रकाश डालते हैं। हिंदी पाठकों के लिए यह कृति विभिन्न दृष्टियों से मौलिक और नए ढंग का प्रयास है। एक ओर तो यह सांस्कृतिक सवालों को अर्थ, समाज और राजनीति के सवालों से जोड़कर संस्कृतकर्मियों तथा अर्थ एवं समाजशास्त्रियों के बीच सेतुबंधन के लिए नए विचार, अवधारणाएँ और मूलदृष्टि विचारार्थ प्रस्तुत करती है और दूसरी ओर उभरते हुए नए यथार्थ से विचार एवं व्यवहार-दोनों स्तरों पर जूझने में असमर्थ पुरानी बौद्धिक प्रणालियों, स्थापित मूलदृष्टियों और व्यवहारों की निर्मम विवेचना का भी आग्रह करती है। दूसरे शब्दों में, यह पुस्तक संस्कृति, अर्थ और राजनीति को अलग-अलग कर खंडित रूप में नहीं, बल्कि इन तीनों के भीतरी संबंधों और अंतर्विरोधों के आधार पर समग्र रूप में समझने का आग्रह करती है। प्रो. जोशी के अनुसार स्वातंत्र्योत्तर भारत में जो एक दोहरे समाज' का उदय हुआ है, उसका मुख्य परिणाम है नवधनाढ्‌य वर्ग का उभार, जो पुराने सामंती वर्ग से समझौता कर सभी क्षेत्रों में प्रभुतावान होता जा रहा है और जिसका सामाजिक दर्शन, मानसिकता एवं व्यवहार गांधी और नेहरू-युग के मूल्य-मान्यताओं के पूर्णतया विरुद्ध हैं। वह पश्चिम के निर्बंध भोगवाद, विलासवाद और व्यक्तिवाद के साथ निरंतर एकमेक होता जा रहा है। फलस्वरूप उसके और बहुजन समाज के बीच अलगाव ही नहीं, तनाव और संघर्ष भी विस्फोटक रूप ले रहे है। प्रो. जोशी सवाल उठाते हैं कि भारतीय समाज में बढ़ रहा यह तनाव और संघर्ष उसके अपकर्ष का कारण बनेगा या इसी में एक नए पुनर्जागरण की संभावनाएँ निहित है? वस्तुत: प्रो. जोशी की यह कृति पाठकों से इन प्रश्नों से वैचारिक स्तर पर ही नहीं, व्यावहारिक स्तर पर भी जूझने का आग्रह करती है।

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