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ऋण मुक्त

शकुन्तला महाजन

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1432
आईएसबीएन :00000

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ऋण मुक्त एक सामाजिक उपन्यास है इसमें भारतीय समाज में नारी किस प्रकार दैनिक उपभोग की वस्तु समझी जाती है-इसका करूणापूर्ण वर्णन है। इसके साथ ही यह किशोरावस्था में ही अपह्रत व उपेक्षित निरीह नारी के साहसपूर्ण एवं अपने पैरों पर स्वयं खड़े होने के लिए किए गए संघर्ष की भी कहानी है।

Rin-Mukt

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘ऋण मुक्त’ एक सामाजिक उपन्यास है इसमें भारतीय समाज में नारी किस प्रकार दैनिक उपभोग की वस्तु समझी जाती है-इसका करूणापूर्ण वर्णन है। इसके साथ ही यह किशोरावस्था में ही अपह्रत व उपेक्षित निरीह नारी के साहसपूर्ण एवं अपने पैरों पर स्वयं खड़े होने के लिए किए गए संघर्ष की भी कहानी है। वर्षों तक रखैल के रूप में रहने को विवश नारी यदि संकल्प कर ले तो वह अपने को समाज में वन्दनीय बना सकती है।

इस उपन्यास की नायिका कोकिला जिसे अपना पति मानती है उसे उसका पति रमाकान्त जब भोग्या कह कर उस पर इस बात के लिए अपना अहसान जताता है, तब कोकिला आहत सर्पिणी की तरह अपना भाग्य स्वयं बनाने तथाकथित पति का मान-मर्दन करने का निश्चय कर लेती है, वह भी स्वतः के अपने प्रयास व परिश्रम से इसमें वह सफल भी होती है। यह नारी के स्वाभिमान व समाज में नारी के महत्त्व की उपलब्धि है।

मनुष्य के अन्तर्मन में पाप-पुण्य, अच्छे-बुरे का जो  संघर्ष निरन्तर चलता रहता है, उसमें जो समय-समय पर विवेक बुद्धि का स्फुलिंग चमकता है, रमाकान्त उसका प्रतिबिम्ब है। कुबुद्धि के मायाजाल का शिकार होने पर भी वह अन्त में उसे काट डालता है। संस्कारी पुरुष कुसंगति में कितना नीचे गिर सकता है, और अच्छी संगति में कितना ऊपर उठ सकता है, ये दोनों ध्रुव बिन्दु रमाकान्त के जीवन में स्पष्ट उजागर होते हैं। इसके विपरीत जहां छगन, शिवलाल मानव की दानव प्रवृत्ति के प्रतीक हैं, वहीं चन्दन बाबू और कामिनी समाज को उसकी दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा दिलाने के प्रयत्नों का आधार हैं। इसी प्रकार साधना और शोभा  नारी की आस्था, विश्वास सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति हैं, वे अपनी शालीनता से रमाकान्त को, जो भटक गया था, सुमार्ग पर ले आती हैं।

लेखिका के अनुसार उनका यह प्रथम उपन्यास है, परन्तु विषय के निर्वहन, भाषा, शैली और चरित्र-चित्रण  से स्पष्ट है कि यह परिपक्व लेखिका की कृति है। कुल मिलाकर इसको पढ़ने के बाद पाठक निश्चित रूप से अपने को एक उच्च धरातल पर पाएगा।

दत्तात्रेय तिवारी

धन्यवाद

सबसे पहिले मैं अपने पिता लाला शिवराम जी महाजन एवं माता राजकुमारी जी महाजन का धन्यवाद करना चाहती हूं, जिन्होंने प्रारंभिक शिक्षा के लिए मुझे छह साल की अवस्था में घर से दूर कन्या गुरुकुल देहरादून में दाखिल किया, जहां मैंने आठ साल तक शिक्षा प्राप्त की और पढ़ने-लिखने की ओर पहिले कदम रखे।
इसके बाद मैं अपने श्वसुर लाला चेतराम जी महाजन को और प्रो. साहिब के बड़े भाई स्वामी देशराज जी को, जो लाहौर के राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्रों में विशिष्ट रूप से जाने जाते थे, स्मरण करती हूं जो स्त्री-शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे और मुझे पढ़ने-लिखने के लिए सदा प्रेरित करते रहते थे। वे कहा करते थे कि प्रत्येक स्त्री को पढ़ा लिखा होना चाहिए ताकि वह जीवन में  जरूरत पड़ने पर अपने पैरों पर खड़ी हो सके। परिणाम स्वरूप मैंने पंजाब विश्वविद्यालय की हिन्दी प्रभाकर और बी.ए. परीक्षायें उत्तीर्ण कीं। इसके बाद मैं घर-गृहस्थी के चक्कर में पड़ गई।
इस प्रसंग में प्रो. साहिब के छोटे भाई डॉ. भद्रसेन (दरियागंज) का उल्लेख अनिवार्य है। वे स्वयं पढ़ने-लिखने के शौकीन हैं। एक बार घर आए तो मैंने उन्हें ‘ऋण-मुक्त’ की पांडुलिपि पढ़ने के लिए दी। वे उसे साथ ले गये। कुछ दिन बाद फिर आये तो बोले की अच्छा प्रयास है। इसे ठीक करके छपवा लो। कुछ दिन बाद आए तो पूछा कि ऋण-मुक्त’ का क्या किया ? मैंने कहा वह तो अभी ठंडे बस्ते में पड़ा है। कह गए कि सामने छपवा लो, वरना पीछे तो यह किसी कबाड़ी के गोदाम की शोभा बढ़ायेगा। ‘ऋण-मुक्त’ के छपने का बड़ा श्रेय डॉ. भद्रसेन जी को जाता है।
प्रो. साहिब ने गुरुकुल के स्नातक बन्धु और हिन्दी के लेखक व पत्रकार श्री दत्तात्रेय जी को स्मरण किया और उन्हें ‘ऋण-मुक्त’ की पांडुलिपि संशोधन और सम्पादन के लिए दे दी। उन्होंने यह सब करके मुद्रण और प्रकाशन तक जो सहयोग दिया, उसके लिए उनका धन्यवाद है।
अब प्रकाशक का प्रश्न था। प्रो. साहिब ने अपने पुराने पारिवारिक प्रकाशक मित्र, प्रसिद्ध प्रकाशक संस्था ‘राजपाल एण्ड सन्ज़’ के मालिक श्री विश्वनाथ जी को फोन किया। उन्होंने तुरन्त प्रकाशक बनना स्वीकार कर लिया और फिर मुद्रण-प्रकाशन संबंधी उनके सुझावों और सहयोग से जो सहायता मिली उसके लिये उनका जितना धन्यवाद करूं वह कम है।
सुपुत्र अरुण महाजन और उसकी धर्मपत्नी प्रिय गार्गी महाजन ने जब घर-गृहस्थी का कार्य-भार संभाल लिया तो मुझे बड़ी राहत मिली और लेखन, प्रकृति निरीक्षण और चित्रकला के अपने शौकों को आगे बढ़ा सकी। बड़ी बेटी मीनाक्षी कालरा, यू.एस.ए. स्थित सुपुत्र प्रोफेसर  अरविन्द महाजन और सुपुत्री डॉ. मृदुला पुरी ने भी मुझे बराबर सहायता की। परिणाम स्वरूप मैं आज ‘ऋण-मुक्त’ को प्रकाशित कर सकी हूं।
अंत में ‘ऋण-मुक्त’ के विज्ञ पाठकों का अग्रिम धन्यावद करते हुए, निवेदन है कि वे अपनी प्रक्रिया  से मुझे लाभान्वित करें ताकि मैं ‘ऋण-मुक्त’ के अगले संस्करण में तथा अपने भावी प्रकाशनों में उनका ध्यान रख सकूं।
परमपिता परमेश्वर की असीम-कृपा-अनुकम्पा सदा मेरे ऊपर मेरे सफल या असफल प्रयासों में रही है। मैं उनका धन्यवाद इन शब्दों के साथ करती हूं—‘‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।।’’

शकुन्तला महाजन

1


पवित्र सरयू नदी के किनारे बसी अयोध्या नगरी रामचन्द्र जी का जन्मस्थान। देश-देशान्तरों से हजारों श्रद्धालु लोग इस स्थान का दर्शन करके और पवित्र नदी में स्नान करके अपने जन्म-जन्मान्तर को सफल करने की कल्पना करते हैं। सैकड़ों विधवाएं सुदूर प्रान्तों से आकर अपने जीवन के शेष दिन इसी अयोध्या नगरी के मन्दिरों में भजन-कीर्तन करते-करते और वहीं से प्राप्त भिक्षा के सहारे अपना जीवन काट देती हैं। वहां के पंडे बहुत समृद्ध है। पुजारी होकर भी इन्सान की हर तरह की अच्छी बुरी कमजोरियों से ग्रसित हैं, फिर भी सम्मान का जीवन बिताते हैं। ये लोग दिन के उजाले  में अति उजले दीखते हैं मगर रात के अंधरे में दानव होते हैं।

बहुत से रईसों और साहूकारों ने यहां आकर अपने पुराने पुरखों की याद में धर्मार्थ हवेलियां बना रखी हैं। ये तीर्थयात्रियों के ठहरने, असहाय और निराश्रित महिलाओं के आश्रय स्थल के रूप में और परिचित मित्रों के काम आती हैं। कुछ लोगों ने धर्मार्थ अस्पताल भी खुलवा दिए हैं और साथ में डूबते हुए लोगों को बचाने के लिए डोंगियों और सैर सपाटे के लिए बजरे भी दान दे रखे हैं। अयोध्या से कुछ मीलों पर फैजाबाद शहर है। बहुत समृद्ध तो नहीं है पर अच्छा बड़ा शहर है। यहीं श्रीकांत पांडे नामक रईस का परिवार पिछले सौ सवा सौ साल पहले आकर बसा था। शायद यह लोग बनारस से आकर बसे थे और उनके पुरखे अयोध्या के मन्दिर के पुजारी थे। लाखों का चढ़ावा आता था, अतः धन की कमी न थी। वे दीन दुखियों की भी सहायता करते थे और शुभ कार्यों पर खर्च करके बहुत नाम भी पाया। श्रीकान्त पाण्डे जी की अकाल मृत्यु के बाद मन्दिर के पुजारी पद को उनके बड़े पुत्र लक्ष्मीकान्त पाण्डे ने संभाला। वे पिता द्वारा स्थापित कुछ प्रथाएं निभाते रहे, परंतु आस्था की कमी और बहुत धनवृष्टि के कारण कुछ आवारा मित्रों की संगति भी उन्हें प्राप्त हो गई थी।

 अतः वह उतना यश-मान न प्राप्त कर सके जितना उनके पिता को मिला था। करीब 30-35 साल तक पुजारी पद संभालने के बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और कई रोगों ने इन्हें आ घेरा। दो साल की लम्बी बीमारी के बाद वह भी परलोक सिधार गए। उनके बाद उनके 3 पुत्रों में से बड़े रमाकान्त पाण्डे ने जो उस समय 18-19 साल के पुजारी थे पुजारी पद संभाला। बचपन से धन-दौलत से होने वाली सब बुराइयों को देखते व मित्रों से सुनते आए थे अतः कुसंगति के कारण वह भी आसानी से उसी की तरफ चल पड़ते परन्तु उनकी माता काशी के पण्डित विश्वकर्मा जी की पुत्री सुशील और धार्मिक वृत्ति की सुन्दरी थी। नाम था साधना। इससे पूर्व उसने पति को भी संभालने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी और साथ ही पुत्र की भी चित्रवृत्तियों को बदलने और उन्हें अच्छा धार्मिक वृत्ति का व्यक्ति बनाने की भरसक कोशिश की थी। इसी प्रयास में वे जल्दी ही उन्होंने आगरा  निवासी रघुनन्दन दुबे की गुणवती, रूपवती कन्या शोभना के साथ रमाकान्त का विवाह कर दिया। शोभना विदुषी थी। कालान्तर में उसने रमा व उमा नाम वाली दो पुत्रियों को जन्म दिया।

 वह उनके लालन-पालन पर पूरा ध्यान देती थी। उसने अपनी पुत्रियों को विदुषी बनाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। जब पांच साल तक की शोभना ने फिर गर्भ धारण नहीं किया तो सास साधना देवी को पौत्र का मुंह देखने की लालसा बेचैन करने लगी ताकि उनका इहलोक और परलोक दोनों सफल हो सकें। इधर रमाकान्त मन्दिर के काम पर पूरा ध्यान न देते और अधिक समय कभी व्यापार के सिलसिले में कभी दुनिया देखने की लालसा से लखनऊ, बनारस और कलकत्ता के चक्कर लगाते रहे। शेष समय यारों दोस्तों के साथ बिताते रहते। अब पांच साल की प्रतीक्षा के बाद जब साधना देवी निराश होने लगी कि शायद वह पौत्र का मुंह न देख सकेंगी तब उन्होंने शोभना देवी को रमाकान्त की दूसरी शादी के लिए राजी करवा ही लिया।

साधना देवी ने शभ मुहूर्त देखकर लाखनपुर के अति साधारण हैसियत के राघव मिश्रा की कन्या राजरानी (रज्जो) जो साधारण सी ग्रामीण कन्या थी अपनी बहू बनाने का निश्चय किया और उसके पिता को 5000/- रुपया देकर रज्जो की शादी रमाकान्त से रचा दी। रज्जो शायद 15-16 साल की थी। उमर में बहुत अन्तर था परन्तु राघव मिश्रा ने रुपये के लालच में उमर से दुगने बड़े रमाकान्त के साथ अपनी पुत्री का विवाह खुशी से कर दिया।

यूं रज्जो देखने सुनने में अति साधारण थी और शिक्षित न होने के कारण थोड़ा फूहड़पन की बातें करती थी परंतु तंदुरुस्त और अल्हड़ थी, ऊपर से चढ़ती जवानी ने दो एक साल के लिए तो रमाकांत को बांध ही लिया था। इसी बीच रज्जो को एक बेटा पैदा हुआ। उसने पाण्डे परिवार की नैया पार करने वाला वंशज देकर बाजी मार ली। सास साधना देवी की चिर-साधना पूरी हो गई। सारे शहर में जश्न मनाए गए। मिठाइयां बांटी गईं और एक ही रात में वह फूहड़ रज्जो जिसकी  बातों पर नौकरानियां भी हंसती थीं वह वास्तव में रज्जो से राजरानी बन गई। उसका मान बहुत बढ़ गया और साथ ही उसका घमंड भी औरों को दुखी करने लगा। दिमाग सातवें आसमान पर रहने लगा। रमाकान्त तो जैसे उसका गुलाम बन गए थे। सास का सारा ध्यान पोते की देखभाल में गुजरता था। बड़ी धूम-धाम से मुहूर्त देखकर उसका नाम रखा रजनीकान्त। सारे शहर को न्योता था। चारों तरफ राजरानी की ही चर्चा हो रही थी। शोभना देवी की जैसे घर में कोई हैसियत ही नहीं थी। यदि कभी प्यार से शोभना बच्चे को उठाने की कोशिश करती तो राजरानी उसके हाथ से छीन लेती, उसे डर था कि कहीं शोभना कोई जादू टोना न कर दे। ऐसे ही वह रमा और उमा दोनों बच्चियों  को भी फटकार देती थी। शोभना यह सब देखती रहती और शान्त भाव से सब कुछ सहन करती। मन ही मन उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह अपनी बेटियों को इस वातावरण से निकाल कर दूर चली जाएगी और उन्हें गुणवती बनाएगी ताकि वे दोनों उसकी कोख को यश का भागी बनाएं। बड़ी बेटी रमा 8 साल की और छोटी बेटी उमा 6 साल की हो गई थी।

दोनों मां की ही तरह सुन्दर और बुद्धिमती थीं। मां की समझाई बात को फट समझ जाती थीं पहले दादी साधना देवी के पास बहुत समय बिताती थीं। उनकी शिक्षाओं को सुनती थीं। पर अब वह दादी साधना देवी के पास जाने से भी डरती थीं। वह भी अपने पौत्र-प्रेम में ऐसी खोई रहती कि उन्हें उमा व रमा की याद कभी कदास ही आती। यदि दादी कभी बुला भी लेती तो चाची राजरानी की क्रूर नजर से उनका दिल कांप उठता। उनको बच्चे रजनीकान्त को गोदी में उठाने की मनाही थी ताकि कहीं गिरा न दें। खैर, वे मां के पास जाकर रोतीं पर मां उनको समझा देती कि अब वह बच्चों से खेलने की उमर की नहीं रहीं अब उन्हें पढ़ाई, सिलाई, रसोई और प्रभु भजन आदि सीखने चाहिए। बात खतम हो जाती।

इधर रमाकान्त 2 साल से अधिक समय तक फैजाबाद में अपने परिवार के साथ, मन्दिर के हिसाब किताब को देखने, मां की और पहली पत्नी शोभना की तथा दोनों बेटियों रमा तथा उमा की देखभाल तथा उन्होंने क्या उन्नति की है इस तरह की बातें जानने में रुचि लेते रहे। धीरे-धीरे उनका मन फिर कलकत्ता, बनारस, इलाहाबाद आदि में अधिक व्यापार संबंध स्थापित करने तथा पिछले कामों पर रखे गए मुनीम आदि कारिन्दों से हिसाब किताब लेने के लिए मचलने लगा। उन्हें कलकत्ता जैसे शहर की रौनक चाहिए थी, गानेवाली, सिनेमाघर, यार दोस्तों की याद आने लगी। पर अपने पुत्र रजनीकान्त का प्रेम उन्हें खींचता रहा था, जिसके कारण राजरानी का रौब उन पर खूब था उसकी तरफ तो वह थोड़ा ध्यान देते पर शोभना और रमा, उमा से वे बचते थे।

रमाकान्त निस्सन्तान तो नहीं थे। पर सती सावित्री की सुशील सुन्दर पत्नी के रहते हुए भी माता के कहने पर इसलिए विवाह किया कि पुत्र पैदा होगा तो उनका इहलोक और परलोक सुधर जाएगा। हालांकि इसकी क्या गारंटी थी कि पुत्र ही पैदा होगा पर पुरातन विचारों से ग्रसित हिन्दू समाज का अंधविश्वास का प्रहार असहाय स्त्री जाति को सदा ही सहना पड़ा है। अतः समाज इसको स्वीकार करता आ रहा है। वह शोभना के सामने अपने को अपराधी अनुभव करते थे पर बच्चियों की सुशीलता और सुन्दरता देख सन्तुष्ट रहते थे। कभी कदास उन्हें गोदी में बिठा उनसे बात भी करते। पर मन में इस भावना  से कि शोभना से न्याय नहीं किया इसलिए कुछ छटपटाहट शुरू हो चुकी थी। अब घर में दो-दो स्त्रियों और माता के रहते पुराने दोस्तों की हिम्मत न पड़ती थी कि चौकड़ी जमाएं। शोभना के भाई महोपाध्याय बुद्धदेव काशी के संस्कृत महाविद्यालय में प्राध्यापक थे। ऊंचे विचारों के सच्चरित्र विद्वान थे। अतः बहुत सम्मान था। रमाकान्त की दूसरी शादी की खबर उन्होंने भी सुनी थी और उसके बाद वह अपनी बहन को मिलने फैजाबाद आए। घर के हालात दो ही दिन में समझ गए। शोभना की सास साधना देवी ने हाथ जोड़कर अपनी लाचारी जताते हुए उन्हें समझाया कि किस लाचारी में उन्हें रमाकान्त की दूसरी शादी करनी पड़ी, वह निश्चिंत रहें। शोभना उसी मान सम्मान के साथ इस घर में रहेगी, आखिर वह बड़ी बहू है, गुणी भी है।

बुद्धदेव जब लौटने लगे तो शोभना ने एकान्त में हाथ जोड़कर भाई से प्रार्थना की कि मैं यहां जिंदगी काट लूंगी पर इन नादान बच्चियों का जीवन यहां सुखमय न होगा। अतः तुम वहां जाकर मुझे कुछ दिन के लिए वहां बुला लेना। मैं उन्हें अच्छी शिक्षा देना चाहती हूं पर मैं तुम पर बोझ नहीं बनूंगी। यह सुन बुद्धदेव की आंखें भी भर आईं। उन्होंने तो पहले ही यह सब सोच रखा था। अब बहन की बात सुनकर उन्होंने भर्राई हुई आवाज में कहा, बहन तू चिन्ता मत कर। मैं तो यहां के हालात देखकर निश्चय कर चुका था कि तुम्हें यहां के वातावरण से निकालकर बनारस बुला लूंगा और बच्चियां वहीं पढ़ेंगी। बुद्ध देव बहन को आश्वस्त कर चले गए। शोभना के मन को ढाढस मिला।


2



सांभरपुर गांव का बजू कावड़ा, अपनी दुकान के लिए महीने में एक दो बार अयोध्या आया करता था। मुंह अंधेरे से निकलता और रात चढ़े से पहले ही घर वापिस पहुंच जाता। उसके बैलों की जोड़ी अच्छी थी, वह उनकी खूब सेवा करता सफेद जोड़ी को देखकर गांव का नम्बरदार मन ही मन उससे ईर्ष्या करता था। सावन का महीना था, तीज का त्यौहार आने वाला था। इस बार जब घर से चलने लगा तो बैजू की 12-13 साल की बेटी चम्पा ठुनककर बोली ‘‘बाबा, तीज आ रही है, हमें भी अपने साथ ले चलो, हम अपने मन पसंद की चूड़ियां और चुनरी, लहंगा लेंगे। अम्मा के लिए भी मेंहदी, सिंदूर और टिकिया लानी है।’’ बैजू की पत्नी को यह सुझाव बहुत पसंद आया। उसने बेटी का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘ठीक ही तो कहती है, जग्गू कुम्हार की बेटी कई बार शहर हो आई हैं, एक बार चम्मा को भी अयोध्या जी घुमाकर, सरयू में स्नान करा लाना।’’ बैजू ने कुछ कठिनाइयां समझाते हुए बताया कि बाजार में घूमते हुए चम्पा को कहां साथ-साथ लिए घूमेगा पत्नी और चम्पा के बहुत आग्रह पर वह राजी हो गया। बैजू ने मुंह अंधेरे उठकर बैलगाड़ी जोती और चम्पा को साथ ले दोनों अयोध्या की ओर चल पड़े। बैल गाड़ी के हिचकोलों से चम्पा तो गाड़ी में सोचती ही रही। दिन चढ़ते-चढ़ते वे अयोध्या पहुंच गए।

बैजू ने शिव मंदिर के पास बड़े पीपल की छाया में गाड़ी खड़ी की, पास ही बनवारी लाला की दुकान थी जिससे बैजू सामान लिया करता था। सामान की फैरिस्त हाथ में ले और चम्पा को वहीं गाड़ी में बैठने की ताकीद कर, वह खुद बनवारी लाला की दुकान पर सामान लेने चला गया। राम-राम हुई, एक दूसरे की खैरियत पूछी और माल तुलवाने लगा चम्पा गाड़ी में बैठी इधर-उधर घूमते आवारा कुत्तों, गधों, बछड़ों और सड़क के बीच में सटापू खेलते बच्चों को देखती रही। कभी सीटियां बजाते आवारा छोकरों को हैरान देखती थी, कभी सींग से सींग अड़ाए बैलों की लड़ाई देख कर मन बहला रही थी, सोच रही थी शहर में कितनी रौनक है। इतने में दूर से कुछ सुन्दर कपड़ों में सजी स्त्रियों की टोली को जो गाने गाती हुई आ रही थी। उनके बीच में घिरी हुई एक युवती को सिर पर पानी का कलस रखे, जिसमें पीपल के पत्ते और नारियल रखा था, उसी ओर आते देखा। देखने की उत्सुकता में वह बैलगाड़ी के सिरे पर आकर टांग लटका कर बैठ गई और उनके गाने के सुर को पकड़ने की कोशिश करने लगी। सोचने लगी कितने सुन्दर कपड़े हैं।

काश ! मेरा बाबा भी मुझे ऐसे कपड़े ला देता। यह सोचते हुए वह मगन हो रही थी। इतने में बैजू सामान तुलवाकर लौट आया और चम्पा को यूं गाड़ी के किनारे टांग लटकाए बैठा देख कर एक जोर की धौल उसके सिर पर जड़ दी चल अन्दर को, कह कर वह उसे गाड़ी के अन्दर धकेल जल्दी-जल्दी गाड़ी हांकने लगा। अभी उसे सरयू स्नान करना है, फिर बडे़ बाजार से घर की औरतों का सामान खरीदना है, वह बड़बड़ाया और हांक कर गाड़ी को विश्वेश्वर जी की सराय के बाहर खड़ा कर दिया। बैलों को खोल घास डाल दी। सराय के मुनीम जी की मुट्ठी गरम की और चम्पा को लेकर घाट की तरफ चल पड़ा। नदी के घाट पर कई छतरियां थीं पर वह अपने पुराने परिचित लाखन भइया की छतरी पर पहुंचा तो मालूम पड़ा कि वे तो शादी में गए हैं, परन्तु उनकी छतरी को विश्वनाथ नाम का लड़का संभाल रहा है। बैजू ने विश्वनाथ को अपना परिचय दिया कि भई हम सांभरपुर के कांवड़ी हैं और लाखन भइया की छतरी पर ही अपना सामान रखते हैं, वह हमारे भरोसे के हैं अपना भाई सा समझते हैं। विश्वनाथ ने बड़ी नम्रता से उन्हें सामान की सुरक्षा का पूरा विश्वास दिलाया और उनकी गठरी वगैरह कपड़ों को उठाकर अपने पास खिसका कर रख लिया। इधर से निश्चिन्त हो वह चम्पा  को साथ ले सरजू में डुबकी लगाकर बेफिकर हुआ। चम्पा को साथ लेकर कहां वह सामान खरीदेंगे यह सोच शिवनाथ से बोले’’ भइया हमें थोड़ा सा सिंदूर, टिकुली, चूड़ियां और लहंगा चुनरी खरीदना है, अभी घंटे, आध घंटे भर में मैं लौट आऊंगा। तब तक यह सामान और चम्पा यहीं बैठेगी। सबका ध्यान रखना। कोई तकलीफ न हो इसे।

शिवनाथ ने आश्वासन दिलाया और बैजू कांवड़ा चम्पा बिटिया को वहीं बिठाकर सामान खरीदने बाजार भागा। चम्पा को भी ताकीद कर दी कि यहां से कहीं न हिले।
शिवनाथ बचपन से ही अयोध्या में पला था। उसे पिता छोटे मोटे कामों द्वारा अपना जीवन यापन करते थे। कायस्थों की धर्मशाला में वह स्टोर लेखा जोखा रखते थे। आए गए अतिथियों को जरूरत का सामान ला देना, घुमाने का प्रबन्ध कर देना, आदि कामों द्वारा कभी-कभी अच्छी बख्शीश भी मिल जाती थी। कोई स्थायी काम न होने से बेटे शिवनाथ पर कोई नियन्त्रण न रख सके वह और लड़कों के साथ बाजारों में घूमना, घाट पर आते जातों की टिचकरी करना, चौपड़ और जुआ आदि भी खेलने लग गया। शिवनाथ का रिश्ते का मामा एक छतरी का मालिक था अतः जब कभी काम से उसे गैर हाजिर रहना पड़ता तो वह शिवनाथ को छतरी सौंप जाता था।

 इस तरह कोई अंकुश न रहने से शिवनाथ आवारा और खुर्राट हो गया था। चम्पा जैसी सुन्दर और कच्ची उमर की भोली भाली गांव की बालिका को अकेला पाकर वह उसे अपने पंजे से निकलने नहीं देना चाहता था। उसने अपने मन में एक स्कीम बनाई। उसने चम्पा से कहा बहन मैं एक डुबकी सरजू जी में लगा और खाना खाकर अभी आया। तुम यहां से हिलना मत, कहकर वहां से भाग कर अपने दो साथियों को जो कायस्थों की धर्मशाला में धर्मार्थ औषधालय की किश्ती को चलाते थे, सारा किस्सा सुनाया और सौदा तय किया। राजा दतिया के भवानी-महल का जो सरजू के किनारे 4-5 मील अंदर को बना था वहां का बड़ा तावेदार जो अयोध्या के पास का ही रहने वाला था तथा उस शिवनाथ के पिता की पहचान का था की सहायता से चम्पा को वहीं ले जाना तय हुआ। राजा साहब तो गर्मियों में एक दो महीनों के लिए कभी-कभी ही वहां आते थे बाकी तो तावेदार, पुरोहित तथा एकाध नौकरानी ही देखभाल आदि के लिए वहां रहती थी।




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