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उपन्यास >> तातारी वीरान

तातारी वीरान

दीनो बुत्साती

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :194
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14328
आईएसबीएन :8171785239

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एक पृष्ठ धीरे-धीरे मुड़कर दूसरी तरफ गिरता है और पूरे किए गए पृष्ठों में जा मिलता है।

जोवान्नी द्रोगो, अब और सोचने की जरूरत नहीं। अब मैदान के शीर्ष तक आ पहुँचे हो और रास्ता घाटी में घुसनेवाला है। पीछे मत लौटो द्रोगो। यह बड़ी नासमझ कमजोरी होगी। सच है तुम बस्तियानी किले के चप्पे-चप्पे से परिचित हो, तुम्हारा इसे यों ही भूल जाने का कोई खतरा नहीं। घोड़ा प्रफुल्लित हो दुलकियाँ भर रहा है, दिन भी बहुत अच्छा है, हवा उष्ण और हलकी है। एक लंबी जिंदगी है तुम्हारे सामने—लगभग फिर से जीना शुरू करने के लिए। क्या जरूरत है किले की दीवारों, कवचकोठरियों, गढ़ी की मुँडेरों पर ड्यूटी देते संतरियों पर नजर डालने की? इस तरह एक पृष्ठ धीरे-धीरे मुड़कर दूसरी तरफ गिरता है और पूरे किए गए पृष्ठों में जो मिलता है। फिलहाल तो यह हलकी-सी परत ही है। लेकिन जो पृष्ठ अभी पढ़ने को बचे हैं वे इनकी तुलना में ढेरों हैं, असमाप्य हैं। लेकिन हमेशा यह एक और पूरा किया हुआ पृष्ठ तुम्हारी ही जिंदगी का एक हिस्सा है, लेफ्टिनेंट साहब!

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