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तीसरी हथेली

राजी सेठ

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14331
आईएसबीएन :812670294X

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शब्द को जो एक विशिष्ट विलक्षण अस्तित्व राजी दे पाती हैं उसके प्रति एक सजग विस्मय का भाव पैदा होता है।

राजी के कथा-संसार में आदमी के अस्तित्व के सांस्कृतिक आयामों और मूल्यात्मक विरोधाभासों की पड़ताल के ज्यादा बड़े सवालों से जूझने के लिए परिवार भारतीय समाज की केन्द्रीय इकाई की हैसियत से प्रतिष्ठित है। राजी की कहानियों के सन्दर्भ में यह सामाजिक सांस्कृतिक मूल्य संवेदना का पारिवारिक देहान्तर है। कभी इस बदलाव के पीछे इतिहास या रणनीति या अर्थ की तत्काल- अनुपस्थित और अदृश्य व्यवस्थाएँ हैं तो कभी सम्बन्धों में शक्ति के सन्तुलन का बदला हुआ समीकरण। लेकिन इस सुबकते संसार में मौजूद आदमी की सोच और संवेदना के बहाव और मोड़ में इतिहास, राजनीति या अर्थ के हस्तक्षेप को पहचान लेना भर इन कहानियों के लिए काफी नहीं है। इस हस्तक्षेप के साथ जूझते हुए आदमी का लहूलुहान मर्म और फिर भी किसी मूल्य को खोजने, खोदने या दुह लेने की जिद और जूझ इन कहानियों को वहाँ तक ले जाना चाहती है जहाँ परिवर्तन की प्रक्रिया वैचारिक मीमांसाओं और बौद्धिक विश्लेषणों की पकड़ और पहुँच से बाहर रह जाया करती है। देखने में ये बहुत शान्त और स्थिर कहानियाँ हैं। फेन और फिचकुर उगलती, मुट्‌ठियाँ लहराती, उगते हुए सूरज के साथ समापन की ओर जाने वाली प्रसिद्ध रूप में जुझारू कहानियों के विपरीत यहां संरचना की सुस्पष्ट चौहद्‌दियों के बीच एक सुपरिभाषित भाव-संसार है जिसे किसी परिचित मिथक मूल्य से विचलन के क्षण में पकड़ा गया है। सधे हाथों की तराश के अधीन संरचना एक संयत, सन्तुलित सुसम्बद्ध आकार बनकर उभरती है। अहसास के फैलाव को एक बिन्दु पर केन्द्रित और सघन करते जाने की घोर तन्मयता कथा को उद्‌घाटित करती है। ऊपर से राजी का अनूठा शब्दशिल्प! शब्द को जो एक विशिष्ट विलक्षण अस्तित्व राजी दे पाती हैं उसके प्रति एक सजग विस्मय का भाव पैदा होता है। कथा यही प्राय: कथ्य का एक रूपकीय समतोल होती है। कथा की मूल्य-चेतना इस परिष्कार को अनिवार्य कर देती है क्योंकि वह राजी के लिए शायद सृजनकर्म की सार्थकता से जुड़ी हुई बात है।

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