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तुलनात्मक साहित्य सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य

हनुमान प्रसाद शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :260
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14344
आईएसबीएन :9788126727995

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तुलनात्मक साहित्य अध्ययन को लेकर सबसे बड़ी भ्रान्ति तुलनीय साहित्यों की भाषाओँ की विशेषज्ञता को लेकर है

तुलनात्मक साहित्य के विकास की पिछली डेढ़-दो शताब्दियों में बहुत सारे सवालों, संकटों, चुनोतियों और सचाइयों से हमारा साक्षात्कार हुआ है। यह बात अब सिद्ध हो चुकी है कि तुलनात्मक साहित्य एक अध्ययन-पद्धति मात्र होने के बजे एक स्वतंत्र ज्ञानानुशासन का रूप ले चुका है। एकल साहित्य से उसका कोई विरोध नहीं है। बल्कि दोनों के अध्ययन का आधार और पद्धति एक ही तरह की होती है। तुलनात्मक साहित्य का एकल साहित्य अध्ययन से अंतर अंतर्वस्तु, दृष्टिबिन्दु और परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से होता है। तुलनात्मक साहित्य अध्ययन को लेकर सबसे बड़ी भ्रान्ति तुलनीय साहित्यों की भाषाओँ की विशेषज्ञता को लेकर है। केवल भाषा ज्ञान से साहित्यिक अध्ययन की योग्यता या समझ हासिल हो जाना जरूरी नहीं है, इसलिए तुलनीय साहित्यों के मूल भाषा ज्ञान पर तुलनात्मक साहित्य अध्ययन के प्रस्थान बिंदु के रूप में अतिरिक्त बल देना इस अनुशासन से अपरिचय का द्योतक है। तुलनीय साहित्यों का भाषाज्ञान और उसमें दक्षता निश्चय ही वरेण्य है और तुलनात्मक साहित्य अध्ययन में साधक भी है, पर अधिकांश अध्ययनों के लिए अनुवाद (निश्चय ही अच्छा अनुवाद) आधारभूत और विकल्प हो सकता है। दरअसल अनुवाद को तुलनात्मक साहित्य के सहचर के रूप में देखना चाहिए। भारत में तुलनात्मक साहित्य अध्ययन के क्षेत्र में अधिकांश कार्य अंग्रेजी में और उसके माध्यम से हुआ है; अतः उसमें तुलनात्मक चिंतन के भरिय सन्दर्भ बहुत कम हैं। आज तुलनात्मक अध्ययन अनुशासन की उस सैद्धांतिकी की तलाश अनिवार्य है, जो भारतेतर विचारकों और पश्चिमी चिंतन को भी ध्यान में रखते हुए भारतीय मनीषा के अंतर्मंथन से निकली हुई मौलिक अवधारणाओं के सहारे विकसित हो। प्रस्तुत पुस्तक उपर्युक्त दिशा में आधार विकसित करने का हिंदी में पहला व्यवस्थित उद्यम है।

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