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उपन्यास >> तुम्हारी रोशनी में

तुम्हारी रोशनी में

गोविन्द मिश्र

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1985
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14347
आईएसबीएन :9788171784578

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अपने इस पाँचवें उपन्यास में गोविन्द मिश्र यथार्थ पर बराबर खड़े रहते हुए उन चिरन्तन, मानवीय और आत्मिक सन्दर्भों तक उठते दिखते हैं जिनसे जोड़कर जीवन को देखना ही उसे सम्पूर्णता में लेना है

‘‘छटपटाहट में वह इधर से उधर भागती है कि शायद यहाँ... या कि वहाँ... उसे वह मिल जायेगा, यह... या कि वह... सुवर्णा को वह दे देगा जिसकी रोशनी में वह अपने भीतर का बहुमूल्य पा लेगी... उसकी आँखें भीगने को हो आई थीं। उसकी उदासी देखकर मन भारी हो आया। मैंने उसके हाथ पर अपना हाथ रखा, हल्के से दबाया। चहकती-फिरती लड़की, थोड़ा फ्लर्ट जैसा करती हुई, किसी से भी सम्बन्ध बनाती हुई शायद उस पर वही सब फबता था।’’ ‘‘तार्किक-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण उसके व्यवहार का, थोड़ा-बहुत उसका भी... काफी सही कर लेता हूँ मैं, फिर भी यह वह नहीं होती जो मेरे अन्तस् में उतरती है, भावनाओं की सीढ़ी-दर-सीढ़ी। उसके ये दो रूप अलग-अलग जा पड़ते हैं और तब मुझे लगता है मेरे इस तमाम तार्किक विश्लेषण में वह कहीं खो गई है, या इस सारे आलवाल के बीच कहीं है वह जो वह सचमुच है...’’ आधुनिकता और परम्परा के बीच झूलती भारतीय नारी का एक ऐसा चित्र शायद पहली बार हिन्दी उपन्यास में आया है। इतना संश्लिष्ट कि कहना मुश्किल कि सुवर्णा यह है - अपनी तरफ से साफ या सपाट करने की जरा भी कोशिश न करते हुए चरित्र को उसके उलझावों के साथ वैसे का वैसा रख देना कि वह साहित्य का कम जीवन का ज्यादा लगे। तुम्हारी रोशनी में सुवर्णा की तार्किकता से भावना की रेंग तक पहुँचने की यात्रा है, मुक्ति और बन्धन के बीच अपनी पहचान खोजती आधुनिक भारतीय नारी का संघर्ष है, मूल्यहीनता की संस्कृति के खोखलेपन को उजागर करते हुए उसे प्रेम तक वापस ले जाने का आग्रह है...या कि यह सब, और बहुत कुछ और भी, अपने-आपमें समेटे हुए एक प्रेम-कहानी है...जीवन में कुछ सुन्दर जोड़ती हुई? अपने इस पाँचवें उपन्यास में गोविन्द मिश्र यथार्थ पर बराबर खड़े रहते हुए उन चिरन्तन, मानवीय और आत्मिक सन्दर्भों तक उठते दिखते हैं जिनसे जोड़कर जीवन को देखना ही उसे सम्पूर्णता में लेना है और जो इधर लगातार कम होता गया है।

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