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शेर-ओ-शायरी

अयोध्याप्रसाद गोयलीय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :620
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1453
आईएसबीएन :00000

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शेर-ओ-शायरी के 620 पृष्ठों के आज तक के सर्वश्रेष्ठ कवियों की रचनाओं के सर्वोत्तम अंशों का संकलन है।

Sher-O-Shayari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सस्नेह भेंट

प्रिय सुमत बाबू !
यूँ तो न जाने कितने मुशायरे देखे थे, परन्तु 15 जून 1933 का वह दिन कितना सुखद और भव्य था, जब हम दोनों एक साथ प्रथम बार ग़ाज़ियाबाद मुशायरे में थे। मुशायरे में जाते समय तो यूँ ही इत्तफ़ाक़िया साथ हो लिये थे, परन्तु वहाँ से लौटे तो दोनों अभिन्न हृदय मित्र बनकर। उन 3-4 घण्टों में इतने शीघ्र कैसे हमने एक दूसरे को पहचान लिया, कैसे बिना प्रयास के आत्मीय बन गये, स्मरण करके आश्चर्य होता है।
उस दिन के बाद कितने मुशायरे और कवि-सम्मेलन साथ-साथ देखे, और दिखाये; साहित्यिक उत्सवों में गये, और लोगों को अपने यहाँ बुलाया, कुछ याद है ?
तब तुम बी. ए. के विद्यार्थी थे और अब 9-10 वर्ष से मजिस्ट्रेट। परन्तु साहित्यिक अभिरुचि वही बनी हुई है। कॉलेज में रहे तो वहाँ मुशायरों, कविसम्मेलनों और साहित्यिक गोष्ठियों की धूम मचा दी। मजिस्ट्रेट हुए तो उस रुचि में और चार चाँद लग गये—रौनक़े बज़्में अदब बन गये।
इस पुस्तक में सैकड़ों ऐसे शेर हैं जो हम दोनों ने झूम-झूम कर सुने हैं, पढ़े हैं, पचासों शेर समय-समय पर अपने पत्रों पर लिखे हैं। जिस शेरो-शायरी की वजह से हम दोनों आत्मीय बने, उस शेरो-शायरी को इस रूप में भेंट करते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है।
अपने बड़े भाई की इस भेंट को तुम किस आदर और चाव से लोगे, और उपयोग करोगे, यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ। यह जवाहरपारे योग्य पारखी के हाथ में दे रहा हूँ। इस सूझ से मुझे अत्यन्त सन्तोष मिल रहा है।
‘‘कि जौहर हूँ और जौहरी चाहता हूँ।’’
गोयलीय

शेर-ओ-शायरी
प्रस्तावना

‘शेर-ओ-शायरी’ के छह सौ पृष्ठों में गोयलीयजी ने उर्दू कविता के विकास और उसके चोटी के कवियों का काव्य-परिचय दिया। यह एक कविहृदय साहित्य-पारखी के आधे जीवन के परिश्रम और साधना का फल है। हिन्दी को ऐसे ग्रन्थों की कितनी आवश्यक्ता है, इसे कहने की ज़रूरत नहीं। जितना जल्दी हो सके, हमें उर्दू के सारे महान् कवियों को नगरी अक्षरों में प्रकाशित कर देना है। गोयलीयजी का यह ग्रन्थ हिन्दी के उस कार्य की भूमिका है। हिन्ही-साहित्य-सम्मेलन शीघ्र ही उर्दू के एक दर्जन श्रेष्ठ कवियों के परिचय-ग्रन्थ निकालने की इच्छा रखता है, फिर हमें उनकी पूरी ग्रन्थावलियों को नागरी अक्षरों में लाना है। हमारे महाप्रदेश ने संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को अपनी राज-भाषा स्वीकृत किया है, किन्तु उसका यह अर्थ नहीं, कि हमारे महाप्रदेश (युक्तप्रदेश, बिहार, महाकोसल, विन्ध्यप्रदेश, मालवसंघ, राजस्थानसंघ, मत्स्यसंघ, हिमाचलप्रदेश, पूर्व-पंजाब और फुलकिया संघ) की सन्तानों ने अपनी प्रतिभा का जो चमत्कार साहित्य के किसी भी क्षेत्र में दिखलाया है, उसे अपनी वस्तु के तौर पर प्ररक्षित करना हिन्दीभाषियों का कर्तव्य नहीं है। जिस तरह भाषा की कठिनाई होने पर भी सरह, स्वयम्भू, पुष्पदन्त, अब्दुर्रहमान आदि अपभ्रंश कवियों को हिन्दीकाव्य-प्रेमियों से सुपरिचित कराना हमारा कर्तव्य है; उसी तरह उर्दू के महाकवियों की कृतियों से काव्यरसिकों को वंचित नहीं होने देना चाहिए। व्यक्ति के लिए भी बीस-पच्चीस साल अधिक नहीं होते, जाति के लिए तो वह मिनट-सेकेण्ड के बराबर हैं। 1970-75 ई. तक अरबी अक्षरों में उर्दू-कविता पढ़नेवाले बहुत कम ही आदमी यहाँ मिल पायेंगे। आज तक दुर्राष्ट्रीय भावनाओं के कारण हिन्दी मुसल्मानों की विचारधारा चाहे कैसी ही रही हो, किन्तु अब वह हिन्दी में वही स्थान लेने जा रहे हैं, जो उनके पूर्वजों जायसी, रहीम आदि ने लिया था, और जो उनके सहधर्मियों ने बंग-साहित्य में ले रखा है। हिन्दी को एक सम्प्रदाय विशेष की भाषा माननेवाले गलती पर हैं। समय दूर नहीं है, जब हिन्दी में भी नज़रुल्इस्लाम-परम्परा चलेगी। मुसल्मान बन्धुओं की प्रतिभा, जो उर्दू के क्षेत्र में अपना चमत्कार दिखलाती थी, अब वह हिन्ही की होने जा रही है। इसीलिए मैं हिन्दीवालों से ज़ोर देकर कहना चाहता हूँ, कि कम-से-कम आप अपने साहित्य-क्षेत्र में साम्प्रदायिक संकीर्णता को स्थान न दें।
उर्दू की सत्कविता हमारे लिए इतिहास के विस्मृत पृष्ठ न बनेगी, न वैसा होना चाहिए। ऐसा करने के लिए अत्यावश्यक है, किवह नागरी वेश-भूषा में हमारे सामने आ जाय। ‘शेर-ओ-शायरी’ के पढ़नेवालों के लिए यह कहने की आवश्यकता नहीं, कि मीर-दर्द-नज़ीर ने काव्यगगन में कितनी उड़ान की, ज़ौक़-ग़ालिब-मोमिन ने अपने ध्वन्यालोकों से काव्यजगत् को कितना आलोकित किया, दाग़-हाली-अकबर ने कविता-सुन्दरी को कितने अलंकारों से अलंकृत किया और चकबस्त-जोश-साग़र ने देश के तरुणों को कितनी अन्त:प्रेरणा दी।

अधिकांश उर्दू कवियों ने जहाँ तक हो सका, अपनी कविता को विदेशी साँचे में ढालना चाहा। कोई बुरी बात नहीं थी, यदि वह अरबी छन्दों का भी उपयोग करते, किन्तु हिन्दी के छन्दों का सर्वथा बायकाट करना कभी उचित नहीं था। पहली अवस्था में हिन्दी छन्दशास्त्र और समृद्ध होता, किन्तु दूसरी बात ने कवियों के पैर को उनकी जन्म-भूमि से उखाड़ दिया। आख़िर हिन्दी संगीत को मुसल्मान संगीतकारों की देन कम नहीं है। उत्तरी भारत में पिछले चार सौ वर्षों से प्रचलित संगीत वही संगीत नहीं है, जो कि मुसल्मानों के आने के पहले भारत में प्रचलित था। लेकिन संगीत क्षेत्र में मुस्लिम कलावन्तों ने बायकाट की नीति नहीं अपनायी। उन्होंने सम्पूर्ण भारतीय संगीत को अपनाया और उसमें अरबी, ईरानी और उज़ेबकी संगीत का पुट देकर उसे समृद्ध किया। इसी तरह वीणा और मृदंग को उन्होंने जला नहीं दिया, बल्कि साथ-साथ उनसे सितार और तबले की सृष्टि कर भारतीय वाद्य-यन्त्रों में कुछ सुन्दर यन्त्रों की वृद्धि की। उपमा, अलंकरण और उपजीव्य कथानक में भी उर्दू कवियों ने स्वदेशी बायकाट और विदेशी स्वीकार की नीति को बड़ी कठोरता से अपनाया। यदि अपने देश के कृतित्व के साथ-साथ बाहरी वस्तुएँ भी ली जातीं, तो वह हमारी दृष्टि को विशाल करने में सहायक होतीं। मैं यहाँ शिकायतों का लेखा प्रस्तुत करने के लिए इन बातों को नहीं कह रहा हूँ। छन्द, काव्यशैली, दृष्टान्त, और काव्योपजीव्य कथानक से परिचित होने पर सहृदय व्यक्ति के लिए काव्यरस का आस्वादन करना सरल हो जाता है। उर्दू-कविता से प्रथम परिचय प्राप्त करनेवालों के लिए इन बातों का जानना अत्यावश्यक है। गोयलीयजी जैसे उर्दू-कविता के मर्मज्ञ का ही यह काम था, जो कि इतने संक्षेप में उन्होंने उर्दू ‘छन्द और कविता’ का चतुर्मुखी परिचय कराया।

‘वली’ ने उत्तरीय भारत के मुसल्मान कवियों का मुँह फ़ारसी की तरफ़ से हटाकर उर्दू की ओर मोड़ा था। गोयलीयजी ने अपने संग्रह में ‘मीर’ (1709-1809) से लेकर अभी भी हमारे बीच में वर्तमान उर्दू के श्रेष्ठ कवियों और उनकी कविता के विकास को लिया है, किन्तु यह काव्यधारा न ‘मीर’ से आरम्भ होती है, न ‘वली’ (1700 ई.) से ही। वह उससे भी पहले ‘दकनी’ कवियों तक पहुँचती है। दकनी कवि और उनकी कृतियाँ उर्दू में भी बहुत कम प्रकाशित हुई हैं, हिन्दी के लिए तो वह सर्वथा अपरिचित हैं। उर्दू में उनके काव्य इसीलिए सर्वप्रिय नहीं हो सके, कि वह हिन्दी-शब्दों का सर्वथा बायकाट नहीं करते थे, और उन शब्दों को अरबी अक्षरों में शुद्धतापूर्वक लिखा-पढ़ा नहीं जा सकता था। ‘दकनी’ काव्यों में से अत्यधिक ने अभी छापे का मुँह नहीं देखा, वह अब भी हैदराबाद के कुछ पुस्तकालयों की अलमारियों में बन्द हैं। हमें कामना करनी चाहिए, कि निज़ाम की धर्मान्धता की अग्नि में निज़ाम की भाँति उनकी भी भेंट न चढ़ जाये। हमारे ‘अंग्रेज़ मित्र’ तो समस्या को खटाई में ही नहीं रखना चाहते बल्कि उसे और भीषण बनाना चाहते रहे। यह जनतन्त्रता के दावेदार हैदराबाद की 87% जनता के अस्तित्व से इनकार कर रहे थे, किन्तु हमने समस्या को पाँच दिन में हल करके छोड़ा। आगे यही करना है, कि आज के निज़ाम हटाये जायें और हैदराबाद में ज़बर्दस्ती मिलाये आन्ध्र, कर्नाटक और महाराष्ट्र के भागों को अपने-अपने प्रदेशों में लौटने के लिए स्वतन्त्रता मिले। निज़ाम के क़ैदख़ाने में बन्द जनता को जिस तरह मुक्त किया गया है, उसी तरह हैदराबाद की अलमारियों में बन्द ‘दकनी’ कविता को भी प्रकाश में लाना है। इस काम के लिए गोयलीयजी से बढ़कर योग्य पुरुष मिलना मुश्किल क्या असम्भव है। वही ऐसे व्यक्ति हैं, जिनकी उर्दू-हिन्दी के साहित्य में सर्वतोमुखी प्रवृत्ति है, वही अरबी लिपि द्वारा विकृत किये गये तत्सम, तद्भव शब्दों की परख करके उन्हें असली रूप में ला सकते हैं। भार बहुत बड़ा है, इसमें सन्देह नहीं; किन्तु गोयलीयजी के कन्धे इसके लिए समर्थ हैं। हमें आशा है कि वह हिन्दी को निराश नहीं करेंगे और ‘दकनी कवि और उनकी कविता’ का परिचय हिन्दी पाठकों को उनसे मिल के रहेगा।

गोयलीयजी के संग्रह की पंक्ति-पंक्ति से उनकी अन्तर्दष्टि और गम्भीर अध्ययन का परिचय मिलता है। मैं तो समझता हूँ, इस विषय पर ऐसा ग्रन्थ वही लिख सकते थे। उनके बारे में मेरे एक मित्र ने अपने पत्र में लिखा है : ‘‘गोयलीयजी (समाज और साहित्य की) गतिविधि में गत पच्चीस वर्षों से भाग ले रहे हैं। उनके सीने की आग आज भी उसी तरह गरम है। समाज, देश, धर्म और साहित्यसेवा की दीवानगी आज भी बदस्तूर क़ायम है। जेल भी हो आये हैं। सादा मिज़ाज, स्पष्ट और कठोर (उनकी विशेषता) है। वे धर्मशास्त्र, हिन्दी, उर्दू और इतिहास के अच्छे पण्डित हैं। ‘कथा कहानी’, ‘राजपूताने के जैनवीर’, ‘मौर्यसाम्राज का इतिहास’ आदि इनके मशहूर ग्रन्थ हैं। ‘दास’ उपनाम से इनकी लिखी हुई हिन्दी-उर्दू कविताओं का संग्रह प्रकाशित हो चुका है। उर्दू शायरी में उनकी ख़ास दिलचस्पी है। (उन्होंने) सामाजिक जागृति के क्षेत्र में कार्यकर्ताओं को जोशीले गाने और उत्साहप्रद कविताएँ तथा युवकों की भावनाओं को सिंहनाद का स्वर दिया। (वह हैं) पुरुषार्थ के पुतले, असाम्प्रदायिक दृष्टिवादी, सदा जवान।’’

लेखक की असाम्प्रदायिक दृष्टि और दूसरे गुण उनकी कृति में प्रतिबिम्बित हैं। उनकी सदा जवानी से हम ‘दकनी’ कविता-संग्रह की आशा रखते हैं।

एक नज़र

‘शेर-ओ-शायरी’ के 620 पृष्ठों और 10 परिच्छेदों में उर्दू के 31 श्रेष्ठ कवियों के सर्वोत्तम काव्यांशों का संकलन और तत्ससम्बन्धी साहित्यिक अध्ययन का सार है। इसके अतिरिक्त प्रसंगवश तथा संकलन को व्यापक बनाने के लिए लगभग 150 कवियों के काव्यांशों के उद्धरण दिये गये हैं। पुस्तक में कुल मिलाकर लगभग डेढ़ हज़ार शेर (अशआर) और 160 नज़्में तथा गीत होंगे- सब अपनी जगह पर चुस्त, फड़कते हुए और नमूने के ! जैसा कि महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी प्रस्तावना में लिखा है— ‘‘यह एक कवि-हृदय साहित्य-पारखी के आधे जीवन के परिश्रम और साधना का फल है। गोयलीयजी के संग्रह की पंक्ति-पंक्ति से उनकी अन्तर्दृष्टि और गंभीर अध्ययन का परिचय मिलता है।’’ हमारा विश्वास है कि उर्दू साहित्य की गतिविधि का अनुभवपूर्ण दिग्दर्शन करानेवाली और नामी कवियों की चुनी हुई काव्य-वाणी का इतना सुन्दर, प्रामाणिक और व्यापक संग्रह प्रस्तुत करनेवाली इस जोड़ की कोई दूसरी पुस्तक हिन्दी में अभी तक प्रकाशित नहीं हुई।

‘शेर-ओ-शायरी’ की कल्पना इसके निर्माता श्री अयोध्याप्रसाद ‘गोयलीय’ के मन में आज से 18 वर्ष पूर्व उदित हुई जब वह राष्ट्रीय आन्दोलन के ‘सरगर्म कार्यकर्ता’ के रूप में देहली की सैण्ट्रल जेल में अन्य स्थानीय नेताओं और बन्दी मित्रों के साथ साहित्यचर्चा किया करते थे। उस समय तक गोयलीयजी सफल लेखक, प्रभावशाली वक्ता और उर्दू काव्य के प्रामाणिक अध्येता के रूप में ख्याति पा चुके थे। यह हिन्ही के अनेक स्थानीय पत्रों के लिए नियमित रूप से उर्दू के शेरों का संकलन किया करते थे और ‘मधु-संचय’, ‘चयनिका’ तथा ‘महफ़िल’ आदि स्तम्भों का सम्पादन किया करते थे। तब से अब तक श्री गोयलीयजी का अध्ययन जारी रहा और उसके साथ-साथ शेरोशायरी का पुलिन्दा बढ़ता गया। सन् 1944 में जब देश की समस्याओं ने नया रूप धारण किया और जब आज़ादी की मंज़िल क़रीब आती हुई दिखाई दी, तब देश के नेताओं का ध्यान देश की जनता के साहित्यिक मेलजोल और हिन्दी-उर्दू की समस्या के समाधान की ओर गया। उस समय अनेक मित्रों ने श्री गोयलीयजी से अनुरोध किया कि वह ‘शेर-ओ-शायरी’ को जल्दी पूरा कर लें। परिस्थितियों का तक़ाज़ा था कि ऐसी पुस्तक शीघ्र प्रकाश में आ जाये। सोचा गया कि सारे संग्रह को कई जिल्दों में प्रकाशित कर दिया जाये, पर काग़ज़ और छपाई की समस्या आड़े आयी। तब निश्चय किया गया कि लेखक सारी सामग्री के आधार पर एक संकलन तैयार कर दें जो तात्कालिक समस्या की पूर्ति तो कर ही दे, पर चीज़ ऐसी बन जाये कि एक ओर तो वह उर्दू के साहित्यिक अध्ययन के लिए प्रामाणिक, सर्वांगीण पृष्ठभूमि देने और दूसरी और सामान्य पाठकों की सुविधा के लिए उर्दू के सब रंग के और सब मुख्य कवियों के बेहतरीन चुने हुए शेरों का संग्रह प्रस्तुत कर दे।

इस प्रकार का संकलन कितना कष्ट-साध्य है इसे साहित्यिकों में भी केवल भुक्तभोगी ही जान सकेंगे। जो साहित्य पिछले 300 वर्षों में बादशाहों और नवाबों की छत्रछाया में पनपा, जो साहित्य नये साम्राज्यों और सामाजिक संस्थाओं के ध्वंस और निर्माण के दौर से गुज़रा और जिस साहित्य के हृदय, आत्मा, परिधान, अलंकार और उद्देश्य में युगान्तकारी परिवर्तन हुए—और फिर भी जिसका तारतम्य शताब्दियों की घनी तहों को पार कर आज के अनेक ग़ज़ल-गो शायरों की कविता में गुँथा हुआ है—उसके युग-निर्माता और युग-पोषक कवियों को छाँटना और छोड़ना और छाँटे हुए कवियों के दीवानों और संग्रहों में से अमुक शेर को रखना और अमुक को रद करना बड़ा टेढ़ा और, यदि कहूँ तो, संकलनकर्ता की साहित्यिक ख्याति को ख़तरे में डाल देनेवाला काम है।
नि:सन्देह श्री गोयलीयजी ने इस काम को अधिक से अधिक सफलता के साथ निभाया है। आज जब यह किताब छपकर तैयार है तो हम सन् 1945 से 1948 में आ पहुँचे हैं। कल तक जो ‘इन्क़लाब’ महज़ एक ख़्याल था और जिसकी ज़िन्दाबादी की सदा हम पुरजोश जुलूसों में महज़ नारों के रूप में लगाते थे, आज वह इन्क़लाब मुजस्सिम और साकार हमारे सामने है। अभी कितने इन्क़लाब आस्मान से झाँक रहे हैं—
‘‘आँख जो कुछ देखती है, लब पै आ सकता नहीं।
महवे-हैरत हूँ कि दुनिया क्या से क्या हो जायेगी।

इक़बाल

कल जिस शेरोशायरी की आवश्यकता राजनैतिक आन्दोलन की सहकारिता के लिए थी, आज हम उसका मूल्य अपने स्वतन्त्र और विशाल देश की गत तीन शताब्दियों के उर्दू के साहित्यिक उत्तराधिकारी के रूप में आँकेंगे। देश के बँटवारे के बाद जो मुसलमान भाई आज हिन्दुस्तान में रह गये हैं वह ख़ालिस हिन्दुस्तानी ही बनकर रहेंगे, उनके लिए अब कोई दूसरा रास्ता नहीं। कवि और साहित्यकार सदा ही सब वर्गों में होते हैं जो अपनी साहित्यिक परम्परा को नई परिस्थितियों के अनुरूप विकसित करते हैं। क्या हिन्दुस्तानी मुसलमान शायर चुप होकर बैठ जायेगा, इसलिए कि हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हिन्दी है ? मुसलमान के लिए हिन्दी ‘हौआ’ नहीं है—या यों कहें कि मुसलमान ‘आदम’ के लिए हिन्दी ही ‘हौआ’ होगी। हिन्दी आख़िर खुसरो, जायसी, रसखान और रहीम की भाषा है; हिन्दी ने नज़ीर के कलाम को चमकाया और हफ़ीज जालन्धरी, साग़िर निज़ामी और अख़्तर शीरानी के गीतों को मधुर बनाया। हिन्दी की जादूभरी छैनी से ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी और दूसरे कवि उर्दू का नया दिलकश बुत तराश रहे हैं। आख़िर लिपि का भेद दो चार साल में जब मिट जायेगा, तो उर्दू और हिन्दी में कोई फ़र्क़ न रह जायेगा, हिन्दू और मुसलमान सबकी राष्ट्रीय भाषा एक होगी। तब ‘शेर-ओ-शायरी’ राष्ट्र के परम्परागत साहित्य के अंग-विशेष की झाँकी और अध्ययन के लिए अत्यन्त उपयोगी परिचयात्मक पुस्तक प्रमाणित ही होगी।
‘शेर-ओ-शायरी’ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह उर्दू साहित्य से सर्वथा अपरिचित व्यक्ति को भी उस साहित्य की पृष्ठभूमि, उसके अलंकरण, उपमाओं, काव्य-प्रसंगों, किंवदन्तियों और कवियों की कलात्मक सृष्टि से सुबोध शैली में परिचित करा देती है। पुस्तक के पहले 114 पृष्ठ—‘उद्गम’ और ‘तरंग’ शीर्षक परिच्छेद—इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, जिनमें ‘गुलशन’, ‘मैख़ाना’, ‘इश्क़’, और ‘सहरा’ के अन्तर्गत उर्दू कविता के सारे उपकरणों, उपमाओं, तरकीबों और मुहावरों को विस्तार से समझाया है। हिन्दी के पाठक जिन प्रचलित उर्दू शब्दों को ग़लत बोलते हैं और जिनके कारण प्राय: उपहास-पस्त बन जाते हैं, उन लगभग 150 शब्दों की सूची भी इस अध्याय में दे दी है।

कवियों के परिचय का ‘उद्घाटन’ मीर मुहम्मद तक़ी ‘मीर’ (सन् 1709-1809 ई. तक) से किया है, क्योंकि उर्दू कविता अपने वर्तमान निखरे रूप में यहीं से या इसी काल से प्रारम्भ होती है। ‘वली’ और उनके समकालीन अन्य शायर भी युगप्रवर्तकों में हैं, किन्तु ‘मीर’ उस निखरे हुए युग के सर्वश्रेष्ठ ग़जल-गो कवि माने गये हैं। ‘वली’ से पहले उर्दू कविता का विकास दक्षिण में जिस रूप में हुआ था, वह प्राय: ‘स्वदेशी’ उर्दू थी, अर्थात् उसमें हिन्दी के शब्दों और प्रान्तीय तरकीबों और मुहावरों की प्रधानता थी। वह कहलाती भी ‘हिन्दी’ या ‘हिन्दवी’ थी। किन्तु उत्तर के शाही दरबारों में जहाँ अरबी और फ़ारसी को संस्कृति और उत्कृष्ठ सामाजिक स्थिति की भाषा माना जाता था, इस ‘हिन्दी’ को अरबी और फा़रसी के साँचे में ढाला जाने लगा और इस तरह एक ऐसी काव्य-शैली को जन्म दिया गया जिसमें अरबी और फ़ारसी भाषा के शब्दों और उस साहित्य की कल्पनाओं, कवि-पद्धतियों, छन्दों और अलंकारों को आरोपित किया गया।

अपने वैभव की स्थिति में उर्दू कविता बहुत कुछ हिन्दी की रीतिकालीन श्रंगारिक कविता के ढंग की चीज़ है। दोनों रीतिकालीन कविताओं का लालन-पालन राजदरबारों में हुआ, दोनों के पुरुषार्थ की अपेक्षा प्रेम और विरह के श्वास-नि:श्वासों को प्रतिध्वनित किया और दोनों ने अपने निश्चित उपकरणों को नये अलंकारों से चमत्कृत किया। यदि उर्दू की कविता अश्लील है तो इस प्रकार की हिन्दी कविता में कम अश्लीलता न पाइयेगा—हाँ, हिन्दी कविता के श्रृंगार का रूप स्वाभाविक और परिधान परिष्कृत है। उर्दू कविता का यह रीतिकालीन युग महान साहित्यिक कलाकारों का युग है। ‘मीर’ की कविता की दर्दीली पैनी धार, ज़ौक़ की सुघराई, ग़ालिब की दार्शनिक गहराई और कल्पना की उड़ान, मोमिन की सादा बयानी का चमत्कार और दाग़ की भाषा-माधुरी के दर्शन इसी युग की कविता में मिलते हैं। इनके शेर की ख़ूबी का क्या कहना ! शेर के बँधे छन्द में, नपे-तुले शब्दों में वह बात और चमत्कार पैदा करते हैं कि आदमी सकते में आ जाये। बिहारी के दोहों की तरह, ‘देखत में छोटे लगें घाव करें गंभीर’।

डालमियानगर में अपनी तरह की एक छोटी-सी संगत है। कभी यह ‘साहित्य-गोष्ठी’ हो जाती है, और कभी ‘बज़्मेअदब’। इस अदबी बज़्म के ‘पीरेमुग़ाँ’ हैं गोयलीयजी और ‘रिन्दों’ में शामिल हैं डालमियानगर की बड़ी से बड़ी हस्तियाँ (जिसमें ज्ञानपीठ के संस्थापक और अध्यक्षा भी शामिल हैं)। ग़ालिब, दाग़ इक़बाल और अकबर के एक-एक शेर पर हम लोग मुद्दतों अश-अश किये हैं और दुहराते-तिहराते रहे हैं। इस संकलन में इस तरह के सैकड़ों शेर हैं। कुछेक शेरों के अर्थ की गहराई, शब्दों की सुघराई और आशय का चमत्कार, इसी पुस्तक में आप देखेंगे:—
ग़ालिब-

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीरे नीम-कश को।
ये ख़लिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता।।

मैं और बज़्मेमयसे1 यूँ तिश्नाकाम2 आऊँ।
गर मैंने तौबा3 की थी, साक़ी को क्या हुआ था ?

चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के4 साथ।
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को5 मैं।।

न लुटता दिन को तो कब रात को यूँ बेख़बर सोता।
रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूँ रहज़न को6।।

मोमिन

माँगा करेंगे अब से दुआ हिज़ेयार की7।
आख़िर तो दुश्मनी है असर को दुआ के साथ।।

1. मधुशाला से; 2. प्यास लिये हुए; 3. शराब न पीने की प्रतिज्ञा; 4. तेज़ चलनेवाले के; 5. नेता को; 6. चोर को; 7. प्रेयसी के विरह की।
अकबर-

हरचन्द बगोला मुज़तिर1, है, इक जोश तो उसके अन्दर है।
इक वज्द2 तो है, इक रक़्स3 तो है, बेचैन सही, बरबाद सही।।

कह गए हैं खूब भाई घूरन।
दुनिया रोटी है और मज़हब चूरन।।

इक़बाल-

ख़ुदी4 को कर बुलन्द इतना कि हर तक़दीर से पहले।
ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे, बता तेरी रज़ा5 क्या है।

उर्दू कविता के जो दो कलाकार सदा अमर रहेंगे, वह हैं ग़ालिब और इक़बाल। ‘शेर-ओ-शायरी’ में दोनों की कविताओं का संकलन विशेष रुचि के साथ किया गया है, और व्याख्या में परिश्रम किया गया है। हमारा ख़याल है कि इक़बाल का मर्तबा आनेवाली पीढ़ियों की निगाह में ग़ालिब से भी ऊँचा होगा। प्रस्तुत संकलन में लेखक ने इक़बाल के जीवन को तीन दौरों में विभक्त करके, हर दौर की नुमाइन्दा कविताओं के उद्धरण दिये हैं। प्रारम्भ में इक़बाल ने भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को अपने व्यक्तित्व का समर्थन और अपनी वाणी का बल दिया।
‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा’—इक़बाल का ही दिया हुआ राष्ट्रीय गीत है। इक़बाल ने ही आत्मविभोर होकर पुकारा था—
‘‘ख़ाके वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है।’’
बाद में वही इक़बाल फ़िर्क़ापरस्त बन गये और उन्होंने नई प्रार्थना ईजाद की:—
‘‘यारब ! दिले मुस्लिम के वोह ज़िन्दा तमन्ना दे।
जो क़ल्ब को गरमा दे, जो रुह7 को तड़पा दे।’’

1. परेशान; 2. तन्मयता; 3. नृत्य; 4. अपनी आत्मा को; 5. सम्मति, अभिलाषा; 6. अपनी आत्मा; 7. हृदय, आत्मा।
इन शब्दों की ओर ध्यान दीजिए। इक़बाल ने मुसल्मानों के लिए एक ‘तमन्ना’ माँगी—एक चाह, एक ख़याल, एक उद्देश्य—जिसके पीछे वह दीवाने हो सकें, जिसके लिए उनके कलेजे में गरमी आ सके और जो उनकी आत्मा में उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक तड़प पैदा कर दे।
आख़िर पाकिस्तान इस ‘ज़िन्दा तमन्ना’ की शक्ल में सामने आया। पाकिस्तान की ख़ाली ख़ाली कल्पनाओं में इक़बाल ने ही रूह फूँकी।
हमारी पीढ़ी इस इतिहास के इतने निकट है कि हम सम्भवतया पाकिस्तान की मूल भावनाओं का सही-सही अन्दाज़ा नहीं लगा सकते। इक़बाल की कविताओं का संकलन हमारे सामने है। उनका एक शेर है:—
‘‘बनायें क्या समझकर शाख़ेगुल पर आशियाँ1 अपना ?
चमन में आह ! क्या रहना, जो हो बे-आबरू रहना ?’’ (पृष्ठ 277)

यह पहले दौर का शेर है। इसका अर्थ गम्भीर है।
इक़बाल मुसल्मानों के लिए इस युग के पैग़म्बर से कम नहीं। अगर इक़बाल दूर तक भविष्य में झाँक सकते थे और उन्होंने पेशीनगोई की है, तो हमें और भी देखना चाहिए कि उन्होंने क्या कहा है। इसी संग्रह के चन्द और शेर मुलाहिज़ा हों। ‘ज़िन्दा तमन्ना’ को इक़बाल ने और आगे बढ़ाया और कहा था:—
‘‘कैफ़ियत बाक़ी पुराने कोहो2-सहरा में नहीं।
है जुनूँ3 तेरा नया, पैदा नया वीराना कर।।’’ (पृष्ठ 289)

और सुनिए:—
‘‘मुझे रोकेगा तू ऐ नाख़ुदा4 क्या ग़र्क़ होने से ?
कि जिनको डूबना हो, डूब जाते हैं सफ़ीनों में5।।’’ (पृष्ठ281)

1. घोंसला; 2. पर्वतों-जंगलों में; 3. उन्माद, उमंग; 4. नाविक; 5. नौकाओं में।
तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही खुदकशी करेगी।
जो शाख़े नाजुक पै आशियाना बनेगा, ना पाएदार होगा।। (पृष्ठ 283)

और फिर ‘शिकवे’ का आख़िरी बन्द:—
बुत1 सनमख़ानों2 में कहते हैं, ‘‘मुसलमान गए’’।
है खुशी उनको कि काबे के निगहबान3 गए।।
मंज़िलेदहर4 से ऊँटों के, हदीख़्वान गए।
अपनी बग़लों में दबाये हुए क़ुरआन गए।।
ख़न्दाज़न5 कुफ़्र6 है, अहसास तुझे है कि नहीं।
अपनी तौहीद का कुछ पास तुझे है कि नहीं !
काश ! इक़बाल बाद की सियासत को शायरी से दूर रखते ! वह अमर तो हैं ही; उन्हें सब पूजते भी।

इस संग्रह की एक और विशेषता है कि इसमें उर्दू कविता के वर्तमान प्रगतिशील युग का उचित प्रतिनिधित्व किया गया है। आज के माहौल, आज के ज़माने और वातावरण में उर्दू कविता ने जो उन्नति की है, हिन्दी के बहुत कम साहित्यिकों को इस बात का सही-सही अन्द़ाजा है। अभी तक हिन्दी के 90 प्रतिशत पाठक उर्दू को महज़ ‘हुस्नोइश्क़’ और ‘गुलोबुलबुल’ की शायरी समझते हैं। वर्तमान नवयुवक कवियों में, विशेषकर फ़ैज़, मजाज़, जज़्बी, साहिर और फ़िराक़ ने आज उर्दू शायरी को किसी भी भाषा के तरक़्क़ीपसन्द युग-साहित्य के हमपल्ले ला बिठाया है। आज का उर्दू कवि युग का और जनता की आवाज़ का प्रतिनिधि है। उसने आदमी के ख़ुद्दारी और आत्मगौरव दिया है। वह भगवान से भी आदर माँगता है:—

हश्र7 में भी ख़ुस8 रवाना, शान से जायेंगे हम।
और अगर पुरसिश9 न होगी तो पलट आयेंगे हम।। -जोश (पृष्ठ 343)

1. हिन्दू देवी-देवता; 2. मन्दिरों में; 3. पहरेदार, रक्षक; 4. काबे के मार्ग से; 5. मुस्करा रहे हैं; 6. ग़ैर मुस्लिम, हिन्दू; 7. प्रलयवाले दिन ईश्वर के समक्ष; 8. बादशाही; 9. आवभगत।

सजदे करूँ, सवाल करूँ, इल्तजा करूँ।
यूँ दे तो कायनात मेरे काम की नहीं।।
वो ख़ुद अता करे तो जहन्नुम भी है बहिश्त।
माँगी हुई निजात मेरे काम की नहीं।। -सीमाब (पृष्ठ 373)

आज भी उर्दू शायरी में मोहब्बत का चर्चा है, मगर यह अब अकेले भोगने की चीज़ नहीं रही:—
अपनी हस्ती का सफ़ीना1 सूयेतूफ़ाँ2 कर लें।
हम मोहब्बत को शरीकेग़मे-इन्साँ कर लें।। -मौज (पृष्ठ 485)

आज का इन्सान इश्क़ की महफ़िल में न शमा की तरह जलता है, न परवाने की तरह फुँकता है। उसे मुहब्बत की नाकामी का डर नहीं, वह सरेतूफ़ान ज़िन्दगी मौजों पर अठखेलियाँ करता हुआ चलता है:—

मुझको कहने दो कि मैं आज भी जी सकता हूँ।
इश्क़ नाकाम सही, ज़िन्दगी नाकाम नहीं।। -साहिर (पृष्ठ 527)

दरिया की ज़िन्दगी पर, सदक़े हज़ार जानें।
मुझको नहीं गवारा, साहिल की3 मौत मरना।। -जिगर (पृष्ठ 586)

आधुनिक प्रगतिशील कविता के अन्य विषयों पर मसलन मज़दूर किसानों की तबाही, देशभक्ति, मानवप्रेम, जागरण, आत्मगौरव आदि पर उर्दू में जो लिखा गया है उसके अनेक सुन्दर उदाहरण इस संकलन में यथास्थान दिए गए हैं।
श्री गोयलीयजी के इस संग्रह में जहाँ अध्ययन की गहराई, अनुभव की परिपक्वता और साहित्य की सच्ची परख की खूबियाँ हैं, वहाँ उनकी निराली टकसाली शैली का चमत्कार भी कम आकर्षक नहीं। उनके कुछ परिचय देखिए:—
1. नाव; 2. तूफ़ान की ओर; 3. किनारा
मयख़ाना—

झिझकिये नहीं, जब आ ही गये तो खुलकर बैठिये। यहाँ ऊँच-नीच का भेद-भाव नहीं। ज़ाहिद, नासेह, शेख़ और वाइज़ की परवा न कीजिये। वे तो यहाँ खुद ही चोरी-चुपके आते हैं, और जल्दी से दुम दबाकर भाग जाते हैं। यह बुज़ुर्ग तो पीरेमुग़ाँ हैं। इनकी कृपादृष्टि तो ग़रीब-अमीर सब पर यकसाँ रहती है। ये जो सुराही लिये आ रहे हैं, यही साक़ी हैं। उधर वे रिन्द बैठे हुए हैं। उनके हाथों में साग़िर और पैमाने हैं जिनमें सुर्ख़ मय भरी हुई है। इधर ये शराब से भरे हुए ख़ुम और कूज़े रखे हुए हैं। जब उमरख़य्याम और हाफ़िज ज़िन्दा थे, यहाँ रोज़ आते थे।
नज़ीर—

...नज़ीर ने अज़ान भी दी, और शंख भी फूँका। तसबीह भी ली और जनेऊ भी पहना। मुहर्रम में रोये तो होली में भड़ुवे भी बने। रमज़ान में रोज़े रखे और सलूनों पर राखी बाँधने को मचल पड़े। शब्बरात पर महताबियाँ छोड़ी तो दीवाली पर दीप सँजोये। नबी, रसूल, वली, पीर, पैग़म्बर के लिए जी भरकर लिखा, तो कृष्ण, महादेव, नरसी, भैरो और नानक पर भी श्रद्धाञ्जलि चढ़ायी। गुलोबुलबुल पर कहा तो आम और कोयल को पहले याद रखा। पर्दे के साथ बसन्ती साड़ी भी याद रही। और तो और, गर्मी, बरसात और सर्दी पर भी लिखा। बच्चों के लिए रीछ का बच्चा, कौआ और हिरन, गिलहरी का बच्चा, तरबूज़, पतंगबाज़ी, बुलबुलों की लड़ाई, ककड़ी, तैराकी, तिल के लड्डू पर लिखने बैठे तो बच्चे बन गये। हरएक बालक गली-कूचों में गाता फिर रहा है। जवानों और बुड्ढों को नसीहत देने बैठे तो लोग वज्द में आ गये। मानो क़ुरान, हदीस, वेद, गीता, उपनिषद्, पुराण सब घोलकर पी जानेवाला कोई सिद्ध पुरुष बोल रहा है।
हफ़ीज़—

‘‘मिसरी जैसी भाषा, कन्यासी अछूती कल्पना और कृष्णकन्हाई की बाँसुरी से निकले हुए से मादक गीत आनन्दविभोर कर देने के लिए काफ़ी हैं’’ (पृष्ठ428)
जिगर—

‘‘मालूम होता है अल्लाहमियाँ जब अपने बन्दों को हुस्न तक़सीम कर रहे थे, तब हज़रते जिगर कौसर पर बैठे पी रहे थे। उन्हें जिगर की यह मस्ती और बेपरवाही शायद पसन्द न आयी और कुढ़कर हुस्न के एवज़ इश्क़ अता फ़रमाया ताकि जिगर उम्रभर जलते और बुझते रहें’’ (पृष्ठ 578)
इस प्रकार का हर परिचय अपने आप में एक कविता है। इन्हें पढ़कर और गोयलीयजी के परिश्रम के सफल परिणाम को देखकर उनके सम्बन्ध में कहने को जी चाहता है:—

बडी़ मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।

यह बात नहीं कि पुस्तक में छोटी-मोटी ख़ामियाँ नहीं रह गयीं हैं। कोई भी ‘संकलन’ निर्दोष नहीं हो सकता। जो दोष रह गये हैं, लेखक उनको जानता है और उनके बारे में उसकी अपनी सफ़ाई भी है। पर, रुचि के प्रश्न पर या साधनों की सीमितता के आधार पर सफ़ाई का प्रश्न उठता ही नहीं। संकलन में जो सावधानी बरती गयी है, बाज़ वक़्त एक-एक शेर को इन्तख़ाब में जो लम्बी बहसें झेलनी पड़ी हैं और हर ज़ौक (रुचि) और हर स्तर के पाठकों का ध्यान रखने में लेखक को जब-जब जी मसोसकर रह जाना पड़ा है, वह दास्तान मुझे मालूम है। इसीलिए मैं जानता हूँ कि यह संकलन कितना सुन्दर और कितना रंगीन है।
‘‘दास्ताँ उनकी अदाओं की है रंगीं, लेकिन।
उसमें कुछ खूनेतमन्ना भी है शामिल अपना।।’’

-असग़र

भारतीय ज्ञानपीठ, इस संकलन को बहुत प्रसन्नता के साथ पाठकों के हाथों में समर्पित करता है। हमारा यह सौभाग्य है कि इस संकलन की प्रस्तावना अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त, धुरन्धर विद्वान और अनथक पुरुषार्थी महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने लिखने की कृपा की है। वह हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी हैं। इस संग्रह की प्रामाणिकता, राष्ट्रीय साहित्य की समृद्धि और मूल्यांकन के लिए इस संग्रह की उपयोगिता तथा लेखक की अद्वितीय सफलता क

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