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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

विश्वामित्र कुछ स्तब्धता हुए, कितना प्रेम है दशरथ को राम से! और उन्होंने क्या सुन रखा था। तो क्या उनकी वे सूचनाएं गलत थीं? क्या अयोध्या से सिद्धाश्रम तक जाते-जाते तथ्य बदल जाते हैं? और यदि दशरथ के विषय में सूचनाएं गलत थी, तो राम के विषय में प्राप्त तथ्य गलत हो सकते...

किंतु उनकी स्तब्धता टिकी नहीं। दशरथ का प्रतिश्रुत होकर इस प्रकार आनाकानी करना...दशरथ क्या समझता है उन्हें? क्या वह यह अपमान सह जाएंगे?.

विश्वामित्र के नेत्र क्रमशः रक्तिम हो उठे। वह अपना दीर्घ परीक्षित आत्मनियंत्रण खो चुके थे। वह भूल गए कि वह दशरथ की राजसभा में बैठे हैं। आज उन्हें वह सत्य कह ही देना होगा, जिसे वह शब्दों में अभिव्यक्त करना नहीं चाहते थे। देश और काल का भान उन्हें नहीं था। इस समय वह शुद्ध सत्य थे, कर्त्तव्य थे।

'दशरथ!'' विश्वामित्र के उग्र स्वर से राजसभा थर्रा उठी, "वीर तो तुम्हें मैं नहीं ही मानता था, किंतु आज तुम यह सिद्ध करना चाहते हो कि तुम अपने बचन की रक्षा भी नहीं कर सकते। तुम्हारा नाश बिना सोचे-समझे बचन दे देने की इसी-आतुरता से होगा दशरथ!...जितने भी ऋषि-मुनि, चिंतक-बुद्धिजीवी सत्य और न्याय की रक्षा के लिए रघुवंशियों की ओर देखा करते थे, उन सबको तुमने अपने आचरण से हताश कर डाला है। आज कोई भी व्यक्ति तुमसे न्याय के नाम पर कोई अपेक्षा नहीं रखता। यह मेरी ही मूर्खता थी कि मैं तुमसे इतनी बड़ी आशा लेकर आया। लोग ठीक कहते हैं दशरथ का राज्य उसके अपने प्रासादों के भीतर भी शायद नहीं है, वहां कैकेयी का राज्य है..."

"ऋषिवर!'' दशरथ ने कातर स्वर में टोका।

''आज मुझे कह लेने दो दशरथ!'' विश्वामित्र बोले, "हम बुद्धिजीवियों ने अनासक्त होकर तुम्हें शासन सौंप दिया, तो तुम सत्ताधारी यह समझते हो कि सामान्य प्रजा तुम्हारे भोग के साधन जुटाने का माध्यम मात्र है? तुम समझते हो, प्रजा मात्र कीट-पतंग है? पर दशरथ! आज मैं तुम्हें बताने आया हूं कि हमारी रक्षा कर तुम हम पर कोई कृपा नहीं करते। यह तुम्हारा कर्त्तव्य है। आज तुम उससे विमुख हो रहे हो; तो मैं कुशिकनन्दन विश्वामित्र तुम्हारे सामने स्पष्ट कर देता हूं कि हम अनासक्त बुद्धिजीवियों में तुम्हारे जैसे अनेक शासकों के निर्माण की क्षमता है। मैं किसी भी स्वस्थ क्षत्रिय को दिव्यास्त्रों का ज्ञान देकर सम्राट् दशरथ बना सकता हूं। मैं प्रतिज्ञा करता हूं...''

'शांत हों भरतश्रेष्ठ!'' वसिष्ठ सारे वार्तालाप में पहली बार बोले, ''आप कोई प्रतिज्ञा न करें। सम्राट् के प्रति उदार हों। सम्राट् अपने वचन से पीछे नहीं हट रहे। वह स्वयं अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर आपकी रक्षा हेतु जाने को प्रस्तुत हैं। किंतु आप राजकुमार राम को ही ले जाना चाहें, तो ले जाएं। सम्राट् बाधा नहीं देंगे। उनके संकोच का कारण पुत्र के प्रति मोह ही है, कर्त्तव्यशून्यता नहीं। मैं राम आपको सौंपता हूं, किंतु...''

"गुरुदेव!'' दशरथ के मुंह से निःश्वास निकल गया।

"उद्विग्न न हों सम्राट्!'' वसिष्ठ ने उन्हें सांत्वना दी और फिर विश्वामित्र से संबोधित हुए, "मैं आपके यश की रक्षा हेतु दस दिनों के लिए राम आपको सौंपता हूं; किंतु आप मुझे वचन दें कि उसकी रक्षा के लिए आप उत्तरदायी होंगे और राजकुमार को सकुशल सम्राट् को लौटाना आपका कर्त्तव्य होगा।''

'मुझे स्वीकार है।'' विश्वामित्र बोले।

दशरथ का बूढा मन समझ नहीं पा रहा था कि वह हंसें या रोएं। वह तो वचन हार ही चुके थे, अब गुरु वसिष्ठ भी राम को दे देने के लिए प्रतिश्रुत हो गए थे। पर गुरुदेव ने स्पष्ट कर दिया था कि अवधि केवल दस दिनों की होगी और उसकी रक्षा का दायित्व विश्वामित्र का होगा। क्या वह मान लें कि दस दिनों के पश्चात् राम सुरक्षित लौट आएंगे? क्या यह संभव है? और यदि ऐसा न हुआ तो वह गुरु वसिष्ठ से क्या कहेंगे?...

दशरथ का मन कहीं अपने-आपसे ही खीझ उठा था। उन्हें इस प्रकार आतुर होकर वचन देने की क्या जल्दी थी? और उन्हें सत्यवादी बनकर ही क्या करना है? क्यों नहीं वह स्पष्ट कह सकते कि वह राम को ऋषि के साथ नहीं भेजेंगे...पर गुरु वसिष्ठ ने शायद राम को बुला भी भेजा था। दशरथ अपने भीतर ही कहीं बहुत टूट चुके थे।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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