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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

नौ

 

राम लक्ष्मण की ओर मुड़े, ''तुमसे पूछने का अवसर ही नहीं मिला लक्ष्मण। अपराधियों को दंड दे दिया गया?''

"हां भैया। आपके आदेश का पूर्ण पालन हुआ।'' लक्ष्मण अत्यन्त प्रसन्न थे। उन्हें देवप्रिय तथा उसके साथियों का वध कर वास्तविक आनंद मिला था।

राम को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। गगन तथ उसके साथी जल्दी ही लौट आए।

सिर झुकाकर गगन ने अभिवादन किया और बोला, ''हे राम! हम बहुत दूर तक मारीच के पीछे हो आए हैं। किंतु, खेद है कि वह हमें कहीं भी दिखाई नहीं पड़ा। हमें मार्ग में अनेक लोगों ने बताया है कि उन्होंने एक अत्यन्त विकट तथा भयंकर दिखने वाले राक्षस को देखा है। उस राक्षस के शरीर पर एक गंभीर घाव था, जिससे रक्त-साव हो रहा था और राक्षस काफी पीड़ित था। उसके जाने के मार्ग के विषय में पूछने पर प्रत्येक व्यक्ति ने दक्षिण दिशा की ओर संकेत किया है। ऐसा लगता है कि वह आपसे भयभीत और पीड़ित होकर बिना रुके दक्षिण की ओर भागता ही चला गया है और अब वह लंका में ही जाकर रुकेगा और रावण की गोद में सिर रखकर रोएगा।'' गगन हंस पड़ा, ''आपकी अनुमति के अभाव में हम लौट आए हैं। अब यदि आज्ञा हो तो हम अन्त तक उसका पीछा करें।"

वह सिर उठाकर राम की आशा की प्रतीक्षा करने लगा।

'राम का आना निष्फल नहीं हुआ'-गुरु सोच रहे थे-'उस गगन में, जो उन्हें अपने पिता के हत्यारे का नाम बताने के पश्चात फूट-फूटकर रोया था और इस गगन में, जो मारीच को ढूंढ़ने के लिए लंका तक जाने को प्रस्तुत है, कितना अन्तर है। राम का प्रभाव अमोघ है।'

"तुम ठीक कहते हो गगन।'' राम गम्भीर थे, ''मारीच कदाचित् लंका जाकर ही रुकेगा, उससे पूर्व उसे कोई भी स्थान सुरक्षित नहीं लगेगा। किंतु वीर बंधु! तुम्हें लंका जाने की आवश्यकता नहीं है। पहले हम ताड़का वन में बनी लंका का ध्वंस कर लें।''

"ताड़का वन की लंका।''

राम ने देखा, प्रत्येक आकृति पर प्रसन्नता थी। राक्षसों की लंका नष्ट करने के नाम पर ऐसी प्रसन्नता कदाचित् अयोध्या के सैनिकों के मुख पर भी नहीं आती। वे लोग वेतनभोगी सैनिक थे। वे आज्ञाधीन लड़ते थे। युद्ध के लिए उनके मन में ललक नहीं थी। किंतु ग्रामीणों और आश्रमवासियों की यह जो आर्य-आर्येतर सेना अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए स्वतः उठ खड़ी हुई थी, ललकपूर्वक न्याय के लिए युद्ध कर रही थी। ये लोग वेतन के प्रतिदान में, अपने स्वामी की विजय के लिए उसके शत्रुओं का वध नहीं कर रहे थे; ये लोग अपने विरुद्ध किए गए अत्याचारों का प्रतिशोध कर रहे थे; और भविष्य में होने वाले अत्याचारों की संभावनाओं को नष्ट कर रहे थे। यह त्रस्त प्रजा थी, जो त्रास को समाप्त कर रही थी। एक बार यह त्रास समाप्त हो जाए तो इन समस्त जनपदों की प्रजा स्वच्छ मन से फूले-फलेगी। न्याय और ममता की भावना शक्तिमती होगी। तब यह अत्याचारों का विरोध कर सकने वाली जीवन्त प्रजा होगी।

राम ने हाथ जोड़कर गुरु को संबोधित किया, "गुरुदेव! आपका राम जन-साधारण के विरुद्ध अन्याय तथा अत्याचार करने वाले राक्षसों के शिविर के नाश की अनुमति चाहता है।''

"जाओ वत्स! प्रसन्न मन जाओ। भगवान तुम्हारी रक्षा करें। तुमने इस प्रजा में न्याय और वीरता के मंत्र फूंक दिए हैं।'' ऋषि अत्यन्त प्रसन्न थे।

राम और लक्ष्मण आगे-आगे चल पड़े। उनके पीछे-पीछे सारी प्रजा चली। गुरु विश्वामित्र ने बड़े आश्चर्य से देखा कि केवल आचार्य विश्वबंधु तथा मुनि आजानुबाहु उनके दाएं-बाएं खड़े रह गए थे, शेष सारे आश्रमवासी राम और लक्ष्मण के पीछे चले गए थे-पुरुष, स्त्रियां, बच्चे। यहां तक कि वह पुनर्वसु जो उनकी आज्ञा के बिना एक डग भी नहीं उठाता था, वह भी अत्यन्त उत्साहित होकर राम की जनता के साथ चला जा रहा था।

"यह वास्तविक जनयुद्ध है।'' गुरु ने कहा और अपनी आंखों में आए हुए आनन्द के अश्रु पोंछ लिए।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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