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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

किंतु इन्द्र उस पर हावी होता गया। इन्द्र ने उसके केशों को अपने बायें हाथ की मुट्ठी में इस प्रकार जकड़ लिया कि वह अपना सिर तनिक नहीं हिला सकती थी। उसकी जंघा को अपने बल्ष्टि घुटने के नीचे दबा कर, इन्द्र ने उसके शरीर को कीलित कर दिया था...अहल्या पूरी तरह असमर्थ हो चुकी थी...।

सहसा इन्द्र कुटिया के द्वार पर निरंतर बढ़ते हुए शोर के प्रति सजग हुआ। कदाचित् बाहर लोग जमा हो चुके थे और उन्होंने कुटिया के द्वार को खोलने का प्रयत्न भी था-किंतु द्वार भीतर से बंद था। जाने क्यों, वे लोग कुटिया का द्वार तोड़ने में संकोच का अनुभव कर रहे थे। संभव है वे लोग कुलपति की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे हों। पर वे किसी भी क्षण द्वार तोड़ सकते थे। अब इन्द्र को भाग जाना चाहिए था।

'नीच!''

विश्वामित्र ने देखा, राम के जबड़े आक्रोश में भिंच गए थे, निश्चय ही उनका क्रोध सीमा का अतिक्रमण कर गया था; नहीं तो राम का गंभीर व्यक्तित्व, किसी अन्य को सरलता से विचलित होता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। लक्ष्मण की आंखें क्रोध से जल रही थी और मुहिया आक्रोशपूर्वक भिंची हुई थीं।

"भुझे नहीं सुननी है शेष कथा।'' आक्रोश से भरे हुए लक्ष्मण फूट पड़े, 'नीच और दुष्ट इन्द्र।''

'इस कथा को सुनकर तुम्हें इन्द्र पर क्रोध आता है, क्यों लक्ष्मण?'' गुरु ने पूछा।

"जी।''

"तो पुत्र! कथा सुनाना सार्थक हुआ।'' विश्वामित्र का स्वर आश्वस्त था, "वत्स! बुद्धिजीवी ऐसी कथाएं सुनाकर अपने जीवन में संघर्ष की एक भूमिका निभाता है। जन-मानस में अन्याय का रूप स्पष्ट कर उसके विरुद्ध आक्रोश भड़काना, क्रांति की पृष्ठभूमि को प्रस्तुत करना है। यदि मैंने यह कथा सुनाकर, इन्द्र के अत्याचार के विरुद्ध तुम्हारे मन में आक्रोश को सार्थक किया है, तो मैंने कथा के युयुत्सु रूप को सार्थक किया है; उसका उपयोग एक शस्त्र के रूप में किया है सौमित्र।'' और विश्वामित्र मुड़े, 'राम! तुम्हें क्या लगता है कि कथा अभी शेष है?''

"गुरुवर!'' राम बोले, ''आक्रोश को भड़काने की सार्थकता को मैं अस्वीकार नहीं करता; किंतु जितना मैं आपको समझ सका हूं, उस स्फीत आक्रोश को निर्माण की दिशा का संकेत दिए बिना, आप नहीं रहेंगे। कथा का शेष भाग पीडामय होगा, मैं जानता हूं किंतु उस पीड़ा को जानकर ही हम अधिक उपयोगी हो पाएंगे।''

गुरु की आंखों में प्रशंसा का भाव उमड़ आया, "मनुष्य के स्वभाव की तुम्हारी पहचान अद्भुत है राम! मेरे पास शब्द नहीं हैं कि मैं बता सकूं कि तुमने मेरे लक्ष्य को कितना सटीक समझा है...। आगे की कथा विशेष पीड़ादायक है पुत्र! पर फिर भी सुनो।''

गुरु ने थमकर, जैसे कथा आगे बढ़ाने के लिए बल एकत्रित किया।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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