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उपन्यास >> दीक्षा

दीक्षा

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14995
आईएसबीएन :81-8143-190-1

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दीक्षा

''अहल्या!'' गौतम ने उसे अपने साथ चिपका लिया, ''ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है अहल्या! तुम देवि हो। मैं तुम्हारी सहनशीलता और उदारता पर मुग्ध हूं। जितनी पीड़ा तुमने सही है, उसकी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। तुम्हारी इस अवस्था में चाहिए तो यह कि मंै तुम्हें संभालूं, तुम्हें स्नेह और सांत्वना दूं, तुम्हारी देख-भाल करूं, तुम्हारी रक्षा करूं, तुम्हारे अपमान का प्रतिशोध लूं। किंतु, देखता हूं प्रिये! यह सब नहीं हो रहा है। जो मानसिक स्थिति मेरी होती जा रही है, उसमें मैं तुम्हें पीड़ा दे रहा हूं, और तुम मुझे सांत्वना। मैं विक्षिप्त-सा तुम दोनों को छोड़कर निकल गया, और घंटों बौराया-बौराया, इधर-उधर डोलता फिरा। तुम जागकर दूध दुह लाई हो, और मुझे एक बार भी ध्यान नहीं आया कि शत भूखा होगा। यह भी भूल गया कि शत कल ज्वरग्रस्त था, कल, उसे औषध दी थी; यह तो देखूं, औषध का प्रभाव क्या हुआ है?...मैं मूल गया कि तुम्हारे साथ अभी कल ही ऐसी घटना घटी है और ऐसे समय में तुम्हें मेरी आवश्यकता है। केवल मेरा ही त्याग तुम्हें बल दे सकता है, विश्वास दे सकता है, सांत्वना दे सकता है। मैं सब कुछ भूल गया और स्वयं अपने आपको ही पीड़ित समझकर, वन में विक्षिप्त-सा भटकता रहा...''

''स्वामि!'' अहल्या ने प्रेम से आंदोलित होकर उन्हें झकझोरा, ''आप ऐसा क्यों सोचते हैं। आप नहीं जानते कि आपने मुझे क्या दिया है। कोई और ऋषि, ऐसी परिस्थितियों में न केवल अपनी पत्नी को त्याग देता, वरन अपने मन की पूरी निष्ठा से उसे अपराधिनी मानता। आपने मुझे अपराधिनी नहीं माना-मेरे लिए यही बहुत है। अब यदि आप मुझे त्याग भी दें...''

''अहल्या!'' गौतम ने टोका।

''मुझे कहने दें स्वामी!'' अहल्या स्नेह-आप्लावित स्वर में बोली, ''अब यदि आप मुझे त्याग भी दें, तो भी मुझे आपके प्रेम में कोई संदेह नहीं होगा। बस आपका मन मुझे अपराधिनी न माने, मेरे लिए यही पर्याप्त होगा मेर गौतम!''

''प्रिये! एक बार फिर तो कहो।'' गौतम पुलकित हो उठे।

''मेरे गौतम! मेरे गौतम!!''

अहल्या ने अपना मस्तक, गौतम की गोद में रख दिया।

गौतम स्नेह-भरे हाथ से अहल्या के केश सहलाते रहे। आज उनके मन पर कहीं यह बोझ नहीं था कि एक अत्यन्त ज्ञानी एवं श्रेष्ठ तपस्वी ऋषि होकर भी वह काम को जीत नहीं पाए हैं। आज अहल्या का सिर अपनी गोद में रखे, अपनी हथेलियों में उसका मुख संजोए, उसके स्निग्ध केशों को सहलाते हुए, उनके स्नायुओं में कहीं काम का तनाव नहीं था। यह तो स्नेह था, शुद्ध और अमिश्रित स्नेह, काम की उत्तेजना से शून्य-ऐसे प्रेम का अनुभव उन्हें पहले तो नहीं हुआ था।

अपने भाव को वे स्वयं तक सीमित न रख सके। बोले, ''अहल्या! मैं ऐसे भी कितना सुखी हूं। तुम जैसी पत्नी पाकर, मुझे क्या नहीं मिला।...किन्तु एक बात मैं सुबह से सोच रहा हूं, तुम जैसे शुद्ध हृदय से कुछ भी छिपाना पाप है...''

"क्या सोच रहे हैं स्वामी?" अहल्या उठ बैठी।

"लेटी रहो प्रिये!'' गौतम ने अहल्या को पुनः लिटा लिया, ''और स्वामी न कहो, गौतम कहो।''

अहल्या के चेहरे पर संकोच उभरा। वह मुसकराई। तिर्यक आंखों से गौतम को देखा और बोली, "मेरे गौतम!''

और उसने अपना मुख हथेलियों में छिपा लिया।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम खण्ड - एक
  2. दो
  3. तीन
  4. चार
  5. पांच
  6. छः
  7. सात
  8. आठ
  9. नौ
  10. दस
  11. ग्यारह
  12. द्वितीय खण्ड - एक
  13. दो
  14. तीन
  15. चार
  16. पांच
  17. छः
  18. सात
  19. आठ
  20. नौ
  21. दस
  22. ग्यारह
  23. बारह
  24. तेरह

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