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राजनैतिक >> प्रतिरोध

प्रतिरोध

विश्वंभरनाथ उपाध्याय

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :276
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1503
आईएसबीएन :9788170282648

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राजनैतिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया एक रोचक उपन्यास...

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रख्यात लेखक डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय ने राजनैतिक परिवर्तन तथा अनैतिक आचरण के विरोध विषयों पर अपने-सशक्त तथा अत्यंत पठनीय उपन्यासों के कारण बहुत प्रसिद्ध प्राप्त की है।
भ्रष्टाचार की समस्या पर उनका उपन्यास ‘दूसरा भूतनाथ’ बहुत पसन्द किया गया था। अब इसी थीम पर, परंतु कुछ भिन्न दृष्टि से लिखा, यह उनका नवीनतम उपन्यास है।

आदि से अंत तक पाठक को बाँधकर रखने वाला उपन्यास वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में बहुत सामयिक बन पड़ा है।  
‘प्रतिरोध’  उपन्यास के क्षेत्र में एक नया प्रयोग है। यह एक सचेत, जागरुक, संकल्पबद्ध व्यक्ति की कहानी है और इसमें बाहरी घटनाओं के ताने-बाने के साथ प्रतिरोधी व्यक्ति का आंतरिक द्वंद्व और दाह भी है, घटना और मनोघटना का पूरा मानचित्र भी।

‘प्रतिरोध’ का नायक एक विशिष्ट व्यक्ति है, कवि, संघर्षधर्मा व्यक्तित्व, अतएव इस उपन्यास में उसकी तथा उसके साथियों की रचनाओं के उद्धरण भी दिए गये हैं जो उनकी शख़्शियत को उभारते हैं और उन्हें गहराई देते हैं। इस उपन्यास में अनेक वास्तविक व्यक्ति भी हैं जिनके विषय में मूल्यांकनों द्वारा मनुष्यता की उनकी भूमिकाओं की भव्यता या अभव्यता की झांकी दी गई है।

‘प्रतिरोध’ उपन्यास जहाँ अपने सामयिक कथ्य के आकर्षण और आधाभूत अक्षांशों और देशांतरों की ओर ध्यान आकर्षित करता है, वही यह मूलभूत मानव के अस्तित्व और उसकी सार्थकता का अन्वेषण, मनन और मूल्याकंन करता है।

 

(भूमिका से)

 

प्रतिरोध से पहले

 

‘प्रतिरोध’ (Resistance) शीर्षक का यह उपन्यास, ‘मेरे पक्षधर’ और ‘दूसरा भूतनाथ’ की अगली कड़ी है। यों तो ‘रीछ’ ‘विश्वबहु परशुराम’, आधुनिक सिंहासन बत्तीसी, (कठपुतली एक से आठ तक) में भी इस प्रकार का ‘प्रतिरोध’ है किंतु सीधे सामाजिक चेतना के आधार पर वर्तमान स्थितियों में भिडंत ‘मेरे पक्षधर’, ‘दूसरा भूतनाथ’ और ‘प्रतिरोध’ में ही है। क्योंकि यह संघर्ष, व्यक्ति के माध्यम से हुआ है, अतएव त्रासदी अश्वयंभावी थी किंतु जो हो रहा है, वह उतना अवांछनीय है कि उसके विरुद्ध टकराहट स्वयं अपने में मानव गरिमा की कसौटी बन गई है क्योंकि जो गलत, गलीज और ग्लानिकारी है, उसे सहते रहना, उसे तरह दे जाना, उसका विरोध न करना मनुष्य को प्रवृति-प्रवाह में पतित कर देता है। प्रवृत्ति में तो मात्र पशु जीता है।

बींसवी सदी का अंत सर्वव्यापक संकट या सक्रांति (क्रायसिस) में हो रहा है। इस संकटानुभूति को ‘प्रतिरोध’ में एक प्रबुद्ध व्यक्ति की समस्त तीक्ष्णता के साथ यहां दिखाया गया है और यह भी कि यदि विकल्प ढूंढने पर भी न मिल रहा हो तो ‘प्रतिरोध’ ही एक ऐसा उपाय बनता है जिससे संघर्ष के नए विकल्प खुलते हैं......सर्वत्र एक दिग्भ्रम, एक दिशाहारापन बढ़ता जा रहा है, इस दिशा में जो मात्र विखंडन’ का मार्ग सुझा रहे हैं, वे यह भूलते हैं कि विखंणन तभी कारगर होता है जब स्पष्ट हो कि जो अयुक्त है, उसे विखंडित कर किस प्रारूप (माडल) को स्थापित किया जाएगा अतएव कोरा विखंडन या विसंरचना (डीकंस्ट्रक्शन) अभीष्ट-संरचना के अभाव में अराजकता की सृष्टि करेगा, यह हमारा मत है। प्रतिरोध में, इसीलिए भविष्य का रचाव वर्तमान व्यवस्थाओं की अयुक्तता और उसके विरुद्ध     ‘प्रतिरोध’ प्रक्रिया का नैरंतर्य है। ‘प्रतिरोध’ इस प्रकार यह सोचने को विवश कर सकता है कि सार्वत्रिक संकट के समय हम क्या करें ?

 ‘प्रतिरोध’ उपन्यास के क्षेत्र में एक नया प्रयोग है। एक जागरुक, संकल्पबद्ध व्यक्ति की कहानी है और इसमें बाहरी घटनाओं के ताने-बाने के साथ प्रतिरोधी व्यक्ति का आंतरिक द्वंद्व और दाह भी है, घटना और मनोघटना का पूरा मानचित्र तथा दृश्यबंध। क्योंकि ‘प्रतिरोध’ एक जुझारू व्यक्ति का जीवनवृत नहीं, उपन्यास है। अतः उसमें कल्पना के प्रयोगों से एक ऐसा चित्र रचा गया है जो मूल ‘कृष्णगोपाल’ नाम के व्यक्ति से भिन्न और विशिष्ट हो गया है और यह उपन्यास के लिए जरूरी था वर्ना ‘प्रतिरोध’ उपन्यास-नायक कृष्णगोपाल का जीवनवृत्त बन जाता जो अभिप्रेत नहीं था। अभिप्रेत यह था कि नायक, ‘प्रतिरोध’ का नमूना या प्रतिनिधि बन जाए। वह विशिष्ट होने पर भी सामान्य प्रतिरोध का प्रातिनिधिक चरित्र भी हो जाए-अतएव कृष्णगोपाल, उर्मिला, उद्धव, इला आदि के मूल प्रारूप (प्रोटोटाइप) को खोजने की जरूरत नहीं है। वे जैसे उपन्यास में चित्रित हुए हैं, उन्हें उसी रूप में देखने की आवश्यकता है। मैंने उपन्यालेखन के अनुभव में यह देखा है कि किसी वास्तविक पात्र को लेकर जब रचना शुरू होती है तो रचना की गत्यात्मकता में मूल पात्र प्रायः एक हद तक स्वतंत्र हो जाते हैं, वे अमूर्त्तता से जब मूर्त्तता ग्रहण करते हैं तो लेखक की द्वंद्वात्मकता है, जादू और जद्दोजहद कि पात्र जीवंत होकर अपनी सूरत और सीरत स्वंय निर्धारित करने लगते हैं परंतु अंततः लेखक को ही यह तय करना पड़ता है कि वह उन्हें अंतिम स्वरूप क्या दे। सृष्टि का रहस्य यह है कि वह संपूर्णतः पूर्वनिर्धारित नहीं होती अन्यथा वह यांत्रिक हो जाती है। किसी रचना के वृत्तांत और पात्र वैसे ही प्रयोगशील होते है जैसे वास्तविक प्राणी होते हैं, उनमें एक अप्रत्याशित तत्व रहता है।

‘प्रतिरोध’ का नायक एक विशिष्ट व्यक्ति है, कवि, संघर्षधर्मा व्यक्तित्व, अतएव इस उपन्यास में उसकी तथा उसके साथियों की रचनाओं के उद्धरण भी दिए गए हैं जो उसकी शख्शियत को उभारते हैं और उन्हें गहराई देते हैं। इनके सिवा इस उपन्यास में अनेक वास्तविक व्यक्ति भी हैं जिनके विषय में मूल्यांकन द्वारा मनुष्यता की उनकी भूमिकाओं की भव्यता या अभव्यता की झांकी दी गई है। यहां उन्हें लांछित या प्रशंसित करने का इरादा नहीं था, प्रयोजन यह था कि क्या होना चाहिए था और लोग क्या कर रहे हैं।

‘प्रतिरोध’ उपन्यास जहां अपने सामयिक कथ्य के आकर्षण और आधारभूत अक्षांशों और देशांतरों की ओर ध्यान आकर्षित करता है, वहीं वह मूलभूत मानव-अस्तित्व और उसकी सार्थकता का अन्वेषण, मनन और मूल्य-गवेषणा भी करता है। उसमें प्राणवंत प्रसंगों के प्रत्याशित-अप्रत्याशित मोड़ और मूर्छनाएं, मोह और मतताएं हैं। वहीं परिवर्तन की जानलेवा कशमकशें भी हैं, स्थिति, गति और नियति के आवर्त और वात्याचक्र भी है। ‘प्रतिरोध’ की सजधज, भाषिक बुनावट (टैक्स्चर) प्रचलित से भिन्न और निराली है  जो ‘पक्षधर’ और दूसरा भूतनाथ का अग्रगामी विकास है, ऐसा मुझे लगता है।
‘प्रतिरोध’ का संदेश यह है कि जब विकल्प स्पष्ट न हों, लगे कि सभी दिग्भ्रमित हैं, तब प्रतिरोध ही एकमात्र लक्ष्य रह जाता है और उसी प्रक्रिया से नए विकल्प उदित हो सकते हैं। यथास्थिति को स्वीकार कर आत्मनिर्वासन में जीने लगना या सहन करना, मानव-गौरव के विरुद्ध एक षडयंत्र या चातुर्य-सा प्रतीत होने लगता है। इस अर्थ में ‘प्रतिरोध’ एक  करणीय कार्यक्रम भी बन जाता है, ‘क्या किया जाए ? इस प्रश्न का उत्तर ‘प्रतिरोध’ है।

मानवता की दृष्टि से पतनशील या हासोन्मुख-स्थितियों में अधिकतर उपन्यासों के नायक और पात्र पतनशील (डिकेडेंट) ही दिखाए जाते हैं किंतु इस ‘प्रतिरोध में नायक और पात्र प्रतिबद्ध और संकल्पशील हैं यही कारण हैं इस उपन्यास ‘प्रतिरोध’ के भीतर मानवीयता का ह्यास जो कैंसर की तरह बढ़ रहा है, वह नयी शताब्दी में रुके, निरुद्ध हो, निर्गत नष्ट हो तथा मानव मूल्यों तथा मानवीयताओं को पुनः बढ़त मिले, यही इस उपन्यास का उद्देश्य है।
 यह रचना स्वर्गीय श्री गोपालकृष्ण कौल को समर्पित है, जिनमें मुझे प्रतिरोध का एक नया आभास मिला था, एक निरंतर, असंतोष, वितृष्णा, विक्षोभ और मानव स्थिति और उसकी निष्क्रिय नियति के प्रति प्रगूढ़ वेदना, तीक्ष्णता और पाप श्री गोपालकृष्ण कौल में था जो उन्हें आत्महनन की ओर ले जाता था और अंत में वह उसी ओर ले गया। किंतु इस उपन्यास में उसका हूबहूपन खोजना उसी तरह अयुक्त होगा जैसे किसी रचना में तथ्य या वास्तविकता का यथावत् अन्वेषण करना।

किसी सशक्त दृष्टि संपन्न व्यक्ति के औपान्यासिक रूपांतरण में जिस यातना व्यथा और विकलता का अनुभव करना पड़ता है, उसमें से गुजरते हुए मैंने यह उपन्यास लिखा है, जैसे यह मात्र कल्पना का करतब नहीं है, यह अनुभूत सत्य है। यहां विचार, अनुभूति में और अनुभूति, विचार में बदलती हुई एक ऐसे सृजन का उपकरण बनी है जिसमें मैं स्वयं विस्मित हूं।

 

गया प्रयाग
सात-3 पच्चीस
जवाहरनगर, जयपुर- 302004
(राज)

 

विश्वम्भरनाथ उपाध्याय

 

1

 


वह व्यक्ति था क्या ? व्यक्ति होता तो वह सदा धधकता क्यों रहता ‍? बड़े-ब़ड़े कभी शांत और ठंडे होते हैं या फिर किए जाते हैं वर्ना वे छार-छार हो  जाते.....शांत तो वह भी होता है पर व हमेशा व्यंग्य या विडंबना में, जिस वह हास्य कहा जाता करता था। हँसी पर उसमें से प्रतिकूल व्यक्तियों को मन ही मन कत्ल करते-रहते इतना सहज हो गया हो, वह पेशेवर फांसी लगावने वाला हो जो बिना किसी क्षोभ के अपराधियों को जेल में फांसी लगाने के लिए सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है।  

पर पेशेवर जल्लाद और उसमें अंतर यह था कि वह खराब या उसकी दृष्टि में खराब लोगों के विडंबन में मजा लेता था और शत्रु के व्यक्तित्ववध में अद्भुद कुशलता दिखाया करता था.....वह किसी विशेषज्ञ के आत्मविश्वास और प्रवीणता के साथ आत्मसजग हुए बिना, प्रतिद्वंद्वी को वार्तालाप में ऐसे कतरता था गोया वह अपने सरौता से सुपारी कतर रहा हो....और उन क्षणों में उनके मुख पर जो मुस्कुराहट आकर जम जाती थी, उसके भीतर लगता था कि कोई बड़ा और व्यापक विचार विराजा हुआ है जो विशिष्ट होने पर भी सामान्यीकृत है, ऐसा जिसे कहावत के रूप में कहा जा सके....उसे ऐसा अनुभव होता होगा कि वह परोपकार की पराकाष्ठा में पहुंचा हुआ है....किसी विकृति के वाहक व्यक्ति का मनोरंजन विखंडन ही है, ऐसा वह मानता था। कहता था कि जो दुष्ट है, उसे यह बोध कराना कि वह बुरा है, यह सबसे बड़ा सत्कार्य है, वह भी इस तरह कि सुनने वाले हंसे और वह भी पर भीतर ही भीतर जो अपनी धुनाई पर भन्नाए पर सहने को विवश है।

जो बुरा है वो अपनी बुराई सुनने पर या तो सहता है या भयंकर हो जाता है, धृष्ट पर उससे वह श्रोताओं; दर्शकों की नजरों में और अधिक गिर जाता है। इस स्थिति में गजब यह था कि प्रायः शांत रहता और दुष्ट की धृष्टता को उसकी वीरता बताकर वह इस तरह बखानता कि वह मतिभ्रम में पड़ जाता कि उसकी प्रशंसा हो रही है या निंदा...वह इतनी गंभीरता से उसकी बदतमीजी को बहादुरी में बदलता कि वह अपनी अशिष्टता पर फूलने लगता....तभी सामूहिक  अट्टाहास होने पर वह खिसिया जाता है और सचमुच क्रोध में आ जाता। तब वह पुनः उसकी प्रशंसा करता...यह बुरों का विखंडन, एक कला अतिमानवीय है, करणीय क्योंकि व्यंग्य, व्यंग्यकर्त्ता को विधाता बना देता है। न्यायाधीश दंडधिकारी भी और स्वादिष्ट कथ्य यह है कि- उस दंडनायक व्यंग्याक व्यंग्यकारी से बचना भी असंभव था क्योंकि वह मैत्री और ममता को, अवांछनीयों के वध के लिए आवश्यक समझता था क्योंकि जो शत्रु है, वह मरने के लिए व्यंग्यकारी के पास क्यों आएगा...इस कारण भद्र समाज में वह स्वंय नियुक्त न्यायकर्ता दंडाधीश तत्वज्ञानी कलाकार साहित्यकर्त्ता और परोपकारी सब एक साथ था, वह सचमुच अपने शिकारों का काम कराया करता, उसकी संस्तुतियां करता, खिलता-पिलता मगर वह काटकता में कोई कमी नहीं लाता बल्कि महीन से महीन होता हुआ शत्रु को रगड़ता चला जाता है और ऐसी मार मारता जैसे उसे कोल्हू में गन्ने की तरह इस तरह पेर रहा है कि गन्ना समझे कि उसका सत् निकाला नहीं जा रहा, उसे रस पिलाया जा रहा है......
वह बतकही तक सीमितद नहीं रहता था, चक्कर भी चलाता था ....पर मजाल है कि कोई पता लगा ले  कि यह उसका ही खेल था और पता लगा भी ले तो वह उस शिकार को किसी अन्य लाइन पर डाल देता था ताकि वह उलझकर रह जाए और संदेस की हालत में आ जाने के पर वह उसके संदेह बढ़ाता रहता....तथापि यदि आखेटिव व्यक्ति ताव में आ ही जाता तो उसकी जगह दिखा देते...तब वह व्यक्ति विविश होकर धमकियां देता हुआ चला जाता किंतु उसकी चुनौती की परवाह न कर वह एक ठहाके को उसके पीछे रामबाण की तरह लगा देता और वह स्व्यंग्य वाक्य उसका पीछा न छोड़ता।
उसका नाम तो कुछ और था, जिसे वह छिपाता रहता किंतु उसकी बातचीत और व्यवहार में चक्कर चलाने वाला जान कर लेगा, खासकर उसकी सर्किल के लोग और साथी कृष्णगोपाल कहा करते थे और इस नाम का रहस्य का मित्र ने यह बताया थाः

‘‘यह जो आसपास है, वह कंस का नगर है...जिसे  देखों, वह कंस का मुखबिर, उसका चाकर, उसके द्वारा नियुक्त वधिक...नगरों के नाम, भिन्न-भिन्न हैं पर नामों से क्या होता है अपना कृष्ण सच कहता है कि यह मान लें सर्वत्र कंस का राज है तो जमीन का लक्ष्य निश्चित हो जाता है। वह लक्ष्य है, प्रतिरोध....सर्वत्र प्रतिरोध, सार्वभौमिक प्रतिरोध.....वही अपने हाथ में है, क्या पता कृष्णवतार कब होगा.....भविष्य पुराण कहता है कि कलियुग में कृष्ण पुनर्जीत होगा, द्वितीय कृष्णावतार, परंतु अभी तक तो हुआ नहीं। लोगों को विश्वास है कि श्वेत घोड़े पर आरुढ़ भुवनमोहन, कन्हैयाजी, कल्कि का अवतरण होगा...वह जनता-जनार्धन कब तक आर्त्त पुकार की अपेक्षा करेगा ? वह तो नंगे पैर दौड़कर दुःखी प्राणियों का उद्धार करता है....लेकिन समूह तो मिथक में, मिथ्या स्वप्नों में पुराण कथा में जीता है...कंस के राक्षस प्रबल हैं,  अनंत है, उनका और कृष्ण नहीं आ रहा है, वह तो कुंजों में राधा के पैर पलोट रहा  होगा, वह गोपीवल्लभ.....ह...ह....ह...ह क्या गल्प रची है, पुराणों ने कवियों ने !’’

 ‘‘यह सबका ‘कृष्ण’ है, कृष्णगोपाल तो उसी से पूछें ...उसे सुनना तो एक अनुभव होता है। उससे पूछा गयाः
‘‘आप कृष्णगोपाल जी क्यों कहलाने लगे ?’’
वह हंसा, फिर रहस्यमय स्वर में बोल-‘‘आप किसी से कहें नहीं, ये जो आत्मशिल्पी है, इनमें जो जनपक्ष के हैं, ऐसे बुद्धिजीवी, पत्रकार, कार्यकर्ता, नेता, कवि लेखक वकील...जो अच्छे है, उन्हें कन्हैयाजी ने मधुराओं में नियुक्त किया कर दिया है, कंस-व्यवस्था के प्रतिमोह के लिए हां, यह सच है !’’
आंखें बड़ी-बड़ी कर रहस्य का आनंद लेते कृष्णगोपाल ने मित्र के कान में कहा- ‘‘प्रतिरोध ! रजिस्टेंस....यही जीवन पहचान और मर्म है...यह है तो वह वसुदेव-देवकी-नन्द-यशोदा-वासुदेव-बलराम का पक्षधर माना जाएगा, जिसमें बुराई, बुरे लोगों और विकृत व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध का भाव नहीं है, वह मानव नहीं कंस का दानव है....यह सत्य है जो चाहे आजमा ले।’’

मित्र ने आपत्ति की- ‘‘लेकिन कृष्ण और कंस में विभाजित करना मनोविज्ञान की दृष्टि से असंगत है....श्वेत-श्याम के ध्रुव मनुष्यों में नहीं है...आप लोगों के साथ अन्याय कर रहे हैं, नहीं ?’’

‘‘आपका मनोविज्ञान व्यक्तिगत दृष्टि से ठीक है अस्तित्वतः प्रत्येक व्यक्ति की संरचना मिली-जुली हैं, धूप-छाव ही है किंतु जनसामान्य की दृष्टि से जो कुल मिलाकर आततायी है, भ्रष्ट है, दुष्ट और परजीवी है, पैरासाइट....वह राक्षस ही कहलाएगा। यों तो उसमें भी बदलने की संभावना रहने से, ब्रह्मवादी कहेंगे कि उसमें ब्रह्म है, कीट-पतंगों में भी, क्रूर वन-पशुओं में  भी क्योंकि वे भी प्रकृति का एक प्रयोजन पूरा कर रहे हैं, परंतु भेड़िये के भेड़िए ही कहा जाएगा, वृकासुर, पाशंडी को बकासुर नाम किसी प्राधान प्रवृत्ति, मुख्य लक्षण के वाचक होते है, वे अपने में सत्य नहीं किंतु वे किसी जनरल टेंडेसी के संकेतक होने से सही या गलत होते हैं,।’’
मित्र कृष्णगोपाल की गहराई और ज्ञान से प्रज्ञावित हुआ- ‘‘अरे यह तो सचमुच पहुँचा हुआ निकला, यह कहीं सचमुच द्वापर के ब्रजाधीश द्वारा कलियुग में भेजा हुआ कृष्णसखा तो नहीं है....?’’ मित्र ने जब दृष्टि गड़ाकर उसे देखकर उसे देखा तो उसके चेहरे में से कई चेहरों की झाईं पड़ी जैसे उसमें द्वापर के कृष्ण के साथी, श्रीदामा, भाई बलराम सुदामा, उद्धव आदि के चेहरे निकल रहे हों, जो विस्मति हुआ वह समझ गया हंसा-‘‘आप स्वयं जनपक्ष के है सो आप मुझमें अब श्रीकृष्ण की लीला देख रहे होंगे, लीलाधर के साथी, पर यह फंतासी है,....किंतु बंधुवर, मुझे आप उद्धव से लग रहे है... मैं आपकों उद्धत कहूं तो ?’’
‘‘जब लीला होनी ही है तो जो चाहें नाम रखिए...मिथक या पुराणकथा, ऊपर से मिथ्या है, गल्प पर उसे खोलो तो उसमें सत्य रहता है और जनमानस में पुराण भरा हुआ है सो मिथकीय नाम रखने से वह कथ्य को तुरंत समझ लेती है, वह जानता.....अब आप किस चिंता में हैं ?’’

कृष्णगोपाल ने कहा-‘‘मुझे लग रहा है कि कोई दानवीय खाद्यपदार्थ आ रहा है हमारी ओर....भूख भी लग आई है, शाम हो रही है......कोई दानव आ जाए तो किसी रेस्त्रां में चले ?’’
उद्धव और कृष्णगोपाल टहल रहे थे। साथ में कृष्णगोपाल के परिचित पंकजजी भी थे। उसे कृष्ण ने सूंघा और व्यग्यं रचाः
‘‘यह पंकज है, इनसे आज मानुस-गंध आ रही है।’’
उद्धव के उत्सुक होने के अवसर पर कृष्ण बोला-‘‘जी हां, इस पंकज में गंध बदलती रहती है। कल, इन्होंने कोई कंसीय कृत्य किया होगा, सो इनमें कीचड़ की गंध आ रही थी।’’
ठहाके के तूफान में पंकज, गिरते-गिरते बचा पर कोई कृष्णगोपाल का अभ्यस्त था, चोट चाट गया। वह कहने लगा-मैंने कल कौन-सा कंसकृत्य किया था आपको किसने कहा ?’’
‘‘कल आपने मेरे विरुद्ध गुट की गुप्त मीटिंग में हिस्सा लिया और यह वादा किया कि आप मेरे खिलाफ कार्यवाही करेंगे।’’
‘‘ऐसा कुछ नहीं किया था, लेकिन आपके उच्चाटक अंदाज और उखाडू उवाचों से आहत कई लोग आपको रगड़ने की जुगाड़ में रहते हैं।’’

‘‘और आप उसका स्वाद ले रहे हैं, धन्य है आप...खैर, आप मुझे सहते हैं, हम भी सहेंगे....उद्धवजी, आप भी क्या सहेंगे इन्हें सहें तो हम पृथक हो जाएं...वह मेरा आखेट आ रहा हैं.... वह देखों ! ’’
पंकज और उद्दव हैरत से उस दिशा में हेरने लगे, जिस तरह कृष्णगोपाल तक रहे थे स्कूटर पर बैठा वह व्यक्ति पास आया और उतरकर नाटकीय मुद्रा में नमस्कार करने लगा। कृष्ण ने व्यंग्य मुस्कान में मिलाकर प्रहार किया- ‘‘आप प्रसन्न हैं, कोई हरकत कामयाब हुई होगी नहीं  ?’’
हमारी हंसी के मध्य वह कृष्ण का आखेट बोला-‘‘भाई साहब वह ....वो...वो ही आपका विरोधी कह रहा था कि...कि .....मुझे बडा बुरा लगा।’’
कृष्णगोपाल बोले-‘‘तब आपने क्या कहा, उसकी विरोधी कार्यवाही का नहीं, आपके समर्थन का है, आपने हमारे समर्थन में क्या कहा ?’’

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