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जीवनी/आत्मकथा >> मुक्त गगन में

मुक्त गगन में

विष्णु प्रभाकर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1519
आईएसबीएन :9788170284598

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यशस्वी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर की बहुप्रक्षित आत्मकथा.... साथ ही पूरी एक सदी के साहित्यिक जीवन तथा समाज और देश का चारों ओर दृष्टि डालता आईना और दस्तावेज़।

Mukt gagan mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विष्णु प्रभाकर अपने सुदीर्घ जीवन में साहित्यिक के अतिरिक्त सामाजिक नवोदय तथा स्वतंत्रता संग्राम से भी पूरी अंतरंगता से जुड़े रहे-रंगमंच, रेडियो तथा दूरदर्शन सभी में वे आरंभ से ही सक्रिय रहे। शरत्चन्द्र चटर्जी के जीवन पर लिखी उनकी बहुप्रशंसित कृति ‘आवारा मसीह’ की तरह यह भी अपने ढंग की विशिष्ट रचना है।

यह आत्मकथा तीन खंडों में प्रकाशित है।
पंखहीन (प्रथम खंड)
मुक्त गगन में (द्वितीय खंड)
और पंक्षी उड़ गया (तृतीय खंड)

मूर्धन्य साहित्यकार विष्णु प्रभाकर की यह आत्मकथा उनके अपने जीवन का वृत्तान्त होने के साथ-साथ बीसवीं शताब्दी के आरंभ से देश और उसके समाज में चले सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलनों का, तथा इन सबके साथ साहित्य की विविध गतिविधियों का, चारों ओर नजर डालता आईना है। समूची पिछली सदी को अपने में समेटता यह जीवन-वृत एक प्रकार से युग का गहराई से किया गया चित्रण तथा विश्लेषण लेखा-जोखा है जिसमें देश और उसके जन ने एक बिलकुल नया, आधुनिक, निर्माणशीलता जीवन जीना आरम्भ किया है।

पिछले 75 वर्षों से लगातार लिख रहे विष्णु प्रभाकर का लेखन उस समय आरम्भ हुआ जब हिंदी साहित्य आरम्भिक तैयारियों के बाद विषय, भाषा, अभिव्यक्ति आदि सभी दृष्टियों से प्रौढ़ता प्राप्त करने लगा था। साहित्य-विधाओं में एक के बाद एक, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नई कहानी इत्यादि युग बन और मिट रहे थे, परन्तु नई इक्कीसवीं शताब्दी के इन आरम्भिक वर्षों में जो सब प्रायः समाप्त हो चुका है। उन्होंने यह समस्त उत्थान-पतन राजधानी दिल्ली में रहकर स्वयं अपनी आँखों से देखा और उसमें भाग लिया है। इसे सौभाग्य ही कहा जाना चाहिए कि नब्बे वर्ष की सुदीर्घ आयु पार करके वे आज भी हमारे बीच हैं और शताब्दी के इस घटनाचक्र तथा इतिहास को लिपिबद्ध किया है।
यह आत्मकथा विष्णु प्रभाकर के अपने जीवन के उतार-चढ़ाव के साथ-साथ भारतीय समाज के ऐतिहासिक परिवर्तन का भी रोमांचक दस्तावेज़ है।

 

भूमिका

 

मेरी आत्मकथा का दूसरा खण्ड अवधि की दृष्टि से बहुत छोटा है लेकिन प्रभाव की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। अब तक सारे काम मुझे किस तरह और क्यों अपनी इच्छा के विरुद्ध करने पड़े थे, इन बातों का वर्णन पहले काल-खण्ड में आ चुका है। दूसरे काल-खंड (1944-57) में भी मुझे दो बार दूसरों की इच्छा के अनुसार नौकरी करनी पड़ी, लेकिन तब तक मैंने अपनी राह पर चलना सीख लिया था। इसलिए दोनों बार डेढ़-डेढ़ वर्ष के बाद ही त्यागपत्र देकर मैं वहाँ से मुक्त हो गया। मैं अब स्वतन्त्र था अपनी इच्छा अनुसार अपना मार्ग चुनने के लिए। और मैंने चुना भी। यहाँ एक बात निश्चय ही स्वीकार करूँगा कि ऐसा करने में मुझे अपने संयुक्त परिवार का विशेषकर, पत्नी का पूर्ण सहयोग मिला।

हमारा संयुक्त परिवार कालान्तर में इतना प्रसिद्ध हुआ कि सन् 1967 में फ्रांस की एक टी.वी. फिल्म ने जब भारत की नारी को लेकर एक फिल्म बनाई तब संयुक्त परिवार का परिचय देने के लिए उसने हमारे परिवार को चुना था।
इसी दूसरे काल-खण्ड में जिसे मैंने नाम दिया है ‘मुक्त गगन में’ हमें देश के बँटवारे जैसी त्रासदी को झेलना पड़ा। कितना पीड़ायादक था यह सब। इसका यत्किंचित वर्णन ही मैं कर सका हूँ। लेकिन इसके साथ ही मुझे ऐसे अनेक अवसर भी मिले जिन्होंने मुझे अपने मन की इच्छानुसार काम करने की शक्ति दी और शक्ति दी साहित्य की दुनिया में अपनी स्वतन्त्र पहचान कराने की।

कम से कम तीन बड़े ऐसे साहित्यिक समारोह इस अवधि में हुए जिनसे मैं बहुत गहरे जुड़ा रहा। यह मात्र जुड़ना ही नहीं था, उनका सारा दिन दायित्व भी हमें संभालना था और हमने संभाला। पहला समारोह था मथुरा के ‘ब्रज साहित्य मंडल’ के वार्षिक अधिवेशन का। दूसरा था सुप्रसिद्ध स्थानीय संस्था ‘शनिवार समाज’ की ओर से, पहली बार संसद में चुनकर आए भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों का सम्मान और तीसरा अखिल भारतीय स्तर की सुप्रसिद्ध प्रगतिशील संस्था ‘इप्टा’ (भारतीय जन नाट्य संघ) का वार्षिक अधिवेशन। इन सबका यत्किंचित वर्णन मैंने इस खण्ड में करने का प्रयास किया है। इन समारोहों ने मुझे कितनी शक्ति और दी और मेरे कद को कितना ऊँचा उठाया, यह सब पढ़कर ही जाना जा सकता है।

जैसा कि मैंने कहा कि इस काल-खण्ड में मुझे अपनी इच्छा के विरुद्ध डेढ़ साल तक आकाशवणी में ड्रामा प्रोड्यूसर के पद पर काम करना पड़ा पर यह सब एक सोची-समझी सुनियोजित योजना के अन्तर्गत था। और इस अनुभव ने मुझे अनायास ही इतना कुछ दिया कि मैं मालामाल हो उठा। आन्तरिक और भौतिक दोनों की दृष्टियों से। यूँ विभाजन के बाद दिसम्बर 1947 में मैं प्रोग्राम बनाने और क्रियान्वित करने में आकाशवाणी से इतने गहरे जुड़ गया था मेरे हाथ में वहाँ के अधिकारियों से अधिक शक्ति आ गई थी लेकिन सितम्बर 1955 से लेकर मार्च 1957 तक जब मैं वहाँ एक अधिकारी के रूप में काम कर रहा था तो मेरे सौभाग्य से उस छोटी-सी अवधि में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घट गईं।

पहली घटना थी सोवियत रूस की कम्यूनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी श्री खुश्चेव और राष्ट्रपति बुल्गानिन की भारत यात्रा, दूसरी घटना का सम्बन्ध था सन् 1956 में तथागत बुद्ध की 2500 वीं जन्म-जयन्ती के समारोहों से। इन सबका मैंने इस काल में-खण्ड में यथासम्भव वर्णन विस्तार से किया ही है। इन्होंने जहाँ एक ओर मुझे अपने पंखों पर उड़ना सिखाया वहीं दूसरी ओर इसी काल-खण्ड में की गई हिमालय के दुर्गम तीर्थ स्थलों की और दक्षिण में कन्याकुमारी के सागर तट की गई यात्राओं ने मुझे सोचने के लिए विवश कर दिया कि हिमालय के दुर्गम पथों पर चलने और दक्षिण में समुद्र की गहराईयों में झांकने का क्या अर्थ हो सकता है ? कितना रोमांचकारी, कितना आनन्दायक था वह अनुभव। उसको शब्द देना बड़ा कठिन है। फिर भी प्रयत्न तो मैंने किया ही है और इसी प्रक्रिया में भयहीन जीवन जीने का अर्थ भी सीख लिया है।

कितने पास से देखा मैंने प्रकृति के नाना रूपों को। मृत्यु से कितनी बार साक्षात्कार किया। देश के बँटवारे के बाद जब कबायलियों ने कश्मीर पर आक्रमण किया तब मैं वहाँ पहली बार हवाई जहाज़ में बैठ गया आकाश में ऊपर उड़ते हुए जब मैंने अपने नीचे उन भूधराकार पर्वत-शिखरों को देखा तब मैंने सोचा इन सबका मुँहबोला चित्रण करने वाले कवियों-साहित्यकारों की कल्पना-शक्ति कितनी सघन और कितनी अन्तर्मुखी थी।

इसलिए इन सब अनुभवों के आधार पर मैं यह विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि इस छोटे से काल में मैंने इतना कुछ पाया कि उस पाने ने मुझे वह बना दिया जो आज मैं हूँ मैं जानता हूँ उस, अनुभूति को वांछित शब्द नहीं दे पाया, पर उसने मुझे साहित्यकार होने की क्षमता निश्चित ही प्रदान की। भले ही मैं आशा के अनुरूप ऊँचाईयों तक नहीं पहुँच सका, पर ‘मुक्त गगन में’ अपनी इच्छा अनुसार विचरण करना तो मैंने सीख लिया था। यह क्या कम उपलब्धि है !

इसी उपलब्धि के कारण इस खण्ड का महत्त्व है। उन सब साहित्यकारों का जिनका मैंने इस काल-खण्ड में सान्निध्य पाया विस्तार से परिचय देना बहुत कठिन है। हाँ, उनमें से अधिकांश के संस्मरण मैंने अवश्य लिखे हैं। मेरा प्रयत्न रहेगा कि अगले खण्ड में उनको लेकर अलग से एक अध्याय लिख सकूँ।
अब तक मैंने उस एक घटना के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा जिसने सारे संसार को हत्प्रभ कर दिया था। वह घटना भी देश के बँटवारे के बाद तीन जनवरी, 1948 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की निर्मम हत्या। यहाँ मुझे प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर की याद आती है। वह अपनी साप्ताहिक पत्रिका ‘शंकर’स् वीकली’ में हर सप्ताह किसी महापुरुष का संक्षिप्त, पर सारगर्भित परिचय दिया करते थे उस अंक में मुखपृष्ठ पर गाँधीजी के बारे में क्या लिखा है परन्तु पन्ना पलटा, मैं चकित रह गया यह देखकर कि वहाँ पर बस ‘दो हाथ’ जुड़े हुए थे, प्रणाम की मुद्रा में।
कितना कुछ कह दिया उन दो जुड़े हुए हाथों ने ! उस ‘कहने’ को शब्द दिये जा सकते हैं क्या ? मैं भी नहीं दे सकूँगा। इसलिए मैं भी बस आप सबको हाथ जोड़कर नमस्कार करूँगा। आप स्वत्रन्त्र हैं अगले पन्ने पढ़ने को और उनका अर्थ लगाने को।

 

विष्णु प्रभाकर

 

मुक्त गगन में

 

बीते निशा उदय निश्चय सुप्रभात,
आते नहीं दिवस हत्त पुनः गए जो।
आशा भरी नयन मध्य अपार किन्तु,
बीती बसन्त स्मृतियाँ दिल को दुखातीं।


सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर पंजाब छोड़ देना चिरसंगति अभिलाषा के अनुरूप था। प्रसन्न होना चाहिए था और भी परन्तु जैसा मैं पहले भी कह आया हूँ विदा के क्षण यातना के क्षण होते हैं। वे लम्बे बीस वर्ष जिन्होंने मेरा निर्माण किया जो मेरे सृजन के मात्र साक्षी ही नहीं रहे बल्कि पथ-प्रदर्शक भी रहे, उन बीस वर्षों ने गहरी वेदना दी तो उतनी गहरी अनुभूति, उतनी ही तलस्पर्शी दृष्टि भी प्रदान की। यह मेरी पात्रता पर निर्भर करता था। कि मैं उसे कितना और कैसे ग्रहण कर पाया। देने वाले ने तो मुक्त हस्त से वह सब कुछ दिया जो उसके पास था।

अब जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ मुझे सृजन करते 57 वर्ष बीत रहे हैं। वह किस स्तर का है- यह निर्णय करने का अधिकारी मैं नहीं हूँ लेकिन यह निखूट सत्य है कि मेरे सृजन की प्रेरणाभूमि यही प्रदेश है। उसमें जितना कुछ ‘साहित्य’ की संज्ञा पाने का अधिकारी है उस पर इसी प्रदेश की जलवायु का प्रभाव है। सन् 1931 के अन्त में मैंने पहली कहानी लिखी थी और 1 अप्रैल, 1944 में जब मैं इस प्रदेश से विदा ले रहा था तब तक मैं सौ से अधिक कहानियाँ लिख चुका था। तीन-चार एकांकी भी लिखे थे और कुछ लेख भी। शुरू-शुरू में जैसा कि प्रायः होता है मेरा रुझान भी कविता और गद्य-काव्य की ओर था पर शीघ्र ही समझ गया कि मेरा वास्तविक क्षेत्र कहानी है। इसी रूप में मुझे स्वीकृति भी मिली।

मेरी अनेक सुपरिचित कहानियाँ इसी भूमि की देन हैं। उनमें कुछ हैं- रहमान का बेटा, अभाव, चैना की पत्नी, आश्रिता, ठेका, चाची, रायबहादुर की मौत, डायन, दूसरा वर, बच्चा किसका, छाती के भीतर, छोटे बाबू, अरुणोदय और मैं उन्हें क्या कहूँ ? किसके अतिरिक्त निशिकान्त को केन्द्र में रखकर लिखी गई कहानियाँ तथा साम्प्रदायिकता के सम्बन्ध में लिखी गई ‘मेरा वतन’ संग्रह की लगभग सभी कहानियाँ इसी प्रदेश की पृष्ठभूमि पर लिखी गई हैं।

कहानी की सीमा को छूते मेरे रेखाचित्रों और संस्मरणों में, जो लोकप्रिय हुए वे भी यहीं की देन हैं। उनमें कुछ हैं, शमशू मिस्त्री, टीपू सुलतान, गोपी चपरासी, पंडितजी, बाबूलाल शर्मा, चाची, जगन्नाथ व्यास, शेख मोहम्मद जान, खेतिया (नेत्रहीन की दृष्टि), अष्टावक्र और मिस्टर स्मिथ।

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