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जीवनी/आत्मकथा >> अक्षरों के साये

अक्षरों के साये

अमृता प्रीतम

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1528
आईएसबीएन :9789350643327

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प्रस्तुत है अमृता प्रीतम की आत्मकथा....

Aksharo Ke Saye a hindi book by Amrita Pritam - अक्षरों के साये (अमृता प्रीतम)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बीस वर्ष पूर्व प्रकाशित ‘रसीदी टिकट’ के बाद अमृता प्रीतम की यह एक और आत्मकथा न केवल उनके आज तक के समग्र जीवन को अपने कथावृत्त में समेटती है, बल्कि एक बिलकुल नये, अध्यात्म से जुड़े धरातल पर उसका विवरण प्रस्तुत करती है।
घर, समाज, मजहब और सियासत के नाम पर...
दरो-दीवार पर जो साये लिपटते रहे-कुछ उनकी बात करती यह पुस्तक-एक उस मुकाम पर पहुंचती है-जहां अन्तर्चेतना के साये अक्षरों में उतरते हैं-चेतना का नादमय होना अक्षरों में ढलता नहीं-फिर भी उसकी बात करते हुए यह कुछ पृष्ठ हैं-जिन्हें एक अन्तर्यात्रा कह सकती हूं-
अमृता

मौत के साये

जब मैं पैदा हुई, तो घर की दीवारों पर मौत के साये उतरे हुए थे...
मैं मुश्किल से तीन बरस की थी, जब घुटनों के बल चलता हुआ मेरा छोटा भाई नहीं रहा। और जब मैं पूरे ग्यारह बरस की भी नहीं थी, तब मां नहीं रही। और फिर मेरे जिस पिता ने मेरे हाथ में कलम दी थी, वे भी नहीं रहे...
और मैं इस अजनबी दुनिया में अकेली खड़ी थी-अपना कहने को कोई नहीं था। समझ में नहीं आता था-कि ज़मीन की मिट्टी ने अगर देना नहीं था, तो फिर वह एक भाई क्यों दिया था ? शायद गलती से, कि उसे जल्दी से वापिस ले लिया और कहते हैं-मां ने कई मन्नतें मान कर मुझे पाया था, पर मेरी समझ में नहीं आता था कि उसने कैसी मन्नतें मानीं और कैसी मुराद पाई ? उसे किस लिए पाना था अगर इतनी जल्दी उसे धरती पर अकेले छोड़ देना था...
लगता-जब मैं मां की कोख से आग की लपट-सी पैदा हुई-तो ज़रूर एक साया होगा-जिसने मुझे गाढ़े धुएं की घुट्टी दी होगी...
बहुत बाद में-उल्का लफ़्ज सुना, तब अहसास हुआ कि सूरज के आस पास रहने वाली उल्का पट्टी से मैं आग के एक शोले की तरह गिरी थी और अब इस शोले के राख होने तक जीना होगा...

आने वाले वक्त का साया

 

जब छोटी-सी थी, तब सांझ घिरने लगती, तो मैं खिड़की के पास खड़ी-कांपते होठों से कई बार कहती-अमृता ! मेरे पास आओ।
शायद इसलिए कि खिड़की में से जो आसमान सामने दिखाई देता, देखती कि कितने ही पंछी उड़ते हुए कहीं जा रहे होते...ज़रूर घरों को-अपने-अपने घोंसलों को लौट रहे होते होंगे...और मेरे होठों से बार-बार निकलता-अमृता, मेरे पास आओ ! लगता, मन का पंछी जो उड़ता-उड़ता जाने कहां खो गया है, अब सांझ पड़े उसे लौटना चाहिए...अपने घर-अपने घोसले में मेरे पास... वहीं खिड़की में खड़े-खड़े तब एक नज़्म कही थी-कागज़ पर भी उतार ली होगी, पर वह कागज़ जाने कहां खो गया, याद नहीं आता...लेकिन उसकी एक पंक्ति जो मेरे ओठों पर जम-सी गई थी-वह आज भी मेरी याद में है। वह थी-‘सांझ घिरने लगी, सब पंछी घरों को लौटने लगे, मन रे ! तू भी लौट कर उड़ जा ! कभी यह सब याद आता है-तो सोचती हूं-इतनी छोटी थी, लेकिन यह कैसे हुआ-कि मुझे अपने अंदर एक अमृता वह लगती-जो एक पंछी की तरह कहीं आसमान में भटक रही होती और एक अमृता वह जो शांत वहीं खड़ी रहती थी और कहती थी-अमृता ! मेरे पास आओ !
अब कह सकती हूं-ज़िंदगी के आने वाले कई ऐसे वक़्तों का वह एक संकेत था-कि एक अमृता जब दुनिया वालों के हाथों परेशान होगी, उस समय उसे अपने पास बुलाकर गले से लगाने वाली भी एक अमृता होगी-जो कहती होगी-अमृता, मेरे पास आओ !

हथियारों के साये

 

तब-जब पिता थे, मैं देखती कि वे प्राचीन काल के ऋषि इतिहास और सिक्ख इतिहास की नई घटनाएं लिखते रहते, सुनाते रहते। घर पर भी सुनाते थे, और बाहर बड़े-बड़े समागमो में भी लोग उन्हें फूलों के हार पहचानाते थे-उनके पांव छूते थे...
उनके पास खुला पैसा कभी नहीं रहा, फिर भी एक बार उन्होंने बहुत-सी रकम खर्च की, और सिक्ख इतिहास की कई घटनाओं के स्लाइड्स बनवाए-जो एक प्रोजक्टर के माध्यम से, दीवार पर लगी बड़ी-सी स्क्रीन पर दिखाते, और साथ-साथ उनकी गाथा-अपनी आवाज़ में कहते, लोग मंत्र-मुग्ध से हो जाते थे...
एक बार अजीब घटना हुई। उन्होंने एक गुरुद्वारे की बड़ी-सी दीवार पर एक स्क्रीन लगा कर वे तस्वीरें दिखानी शुरू कीं, आगंन में बहुत बड़ी संगत थी, लोग अकीदत से देख रहे थे, कि उस भीड़ में से दो निहंग हाथों में बर्छे लिए उठ कर खड़े हो गए, और ज़ोर से चिल्लाने लगे-यहां सिनेमा नहीं चलेगा...
मैं भी वहीं थी, पिता मुझ छोटी-सी बच्ची को भी साथ ले गए थे। और मैंने देखा-वे चुप के चुप खड़े रह गए थे। एक आदमी उनके साथ रहता था, उस सामान को उठा कर संभालने के लिए, जिसमें प्रोजेक्टर और स्लाइड्स रखने निकालने होते थे...
पिताजी ने जल्दी से अपने आदमी से कुछ कहा-और मुझे संभाल कर, मेरा हाथ पकड़ कर, मुझे उस भीड़ में से निकाल कर चल दिए...

लोग देख रहे थे, पर खामोश थे। कोई कुछ नहीं कह पा रहा था-सामने हवा में-दो बर्छे चमकते हुए दिखाई दे रहे थे...
यह घटना हुई कि मेरे पिता ने खामोशी अख्तियार कर ली। सिक्ख इतिहास को लेकर, जो दूर-दूर जाते थे, और भीगी हुई आवाज़ में कई तरह की कुरबानियों का जिक्र कहते थे, वह सब छोड़ दिया...
एक बाद बहुत उदास बैठे थे, मैंने पूछा-क्या वह जगह उनकी थी ? उन लोगों की ?
कहने लगे-नहीं मेरी थी। स्थान उसका होता है, जो उसे प्यार करता है...मैं खामोश कुछ सोचती रही, फिर पूछा-आप जिस धर्म की बात करते रहे, क्या वह धर्म उनका नहीं है ?
पिता मुस्करा दिए कहने लगे-धर्म मेरा है, कहने को उनका भी है, पर उनका होता तो बर्छे नहीं निकालते...उस वक़्त मैंने कहा था-आपने यह बात उनसे क्यों नहीं कहीं ? पिता कहने लगे-किसी मूर्ख से कुछ कहा-सुना नहीं जा सकता...
वह बड़ा और काला बक्सा फिर नहीं खोला गया। उनकी कई बरसों की मेहनत, उस एक संदूक में बंद हो गई-हमेशा के लिए...

बाद में-जब हिंदुस्तान की तक्सीम होने लगी, तब वे नहीं थे। कुछ पूछने-कहने को मेरे सामने कोई नहीं था...कई तरह के सवाल आग की लपटों जैसे उठते-क्या यह ज़मीन उनकी नहीं है जो यहां पैदा हुए ? फिर ये हाथों में पकड़े हुए बर्छे किनके लिए हैं ? अखबार रोज़ खबर लाते थे कि आज इतने लोग यहां मारे गए, आज इतने वहां मारे गए...पर गांव कस्बे शहर में लोग टूटती हुई सांसों में हथियारों के साये में जी रहे थे...
बहुत पहले की एक घटना याद आती, जब मां थी, और जब कभी मां के साथ उनके गांव में जाना होता, स्टेशनों पर आवाज़ें आती थीं-हिंदू पानी, मुसलमान पानी, और मैं मां से पूछती थी-क्या पानी भी हिन्दू मुसलमान होता है ?-तो मां इतना ही कह पाती-यहां होता है, पता नहीं क्या क्या होता है...
फिर जब लाहौर में, रात को दूर-पास के घरों में आग की लपटें निकलती हुई दिखाई देने लगीं, और वह चीखें सुनाई देतीं जो दिन के समय लंबे कर्फ्यू में दब जाती थीं...पर अखबारों में से सुनाई देती थीं-तब लाहौर छोड़ना पड़ा था...
थोड़े दिन के लिए देहरादून में पनाह ली थी-जहां अखबारों की सुर्खियों से भी जाने कहां-कहां से उठी हुई चीखें सुनाई देतीं...रोज़ी-रोटी की तलाश में दिल्ली जाना हुआ-तो देखा-बेघर लोग वीरान से चेहरे लिए-उस ज़मीन की ओर देख रहे होते, जहां उन्हें पनाहगीर कहा जाने लगा था... अपने वतन में-बेवतन हुए लोग....
चलती हुई गाड़ी से भी बाहर के अंधेरे में मिट्टी के टीले इस तरह दिखाई देते-जैसे अंधेरे का विलाप हो ! उस समय वारिस शाह का कलाम मेरे सामने आया, जिसने हीर की लंबी दास्तान लिखी थी-जो लोग घर-घर में गाते थे। मैं वारिस शाह से ही मुखातिब हुई...
उठो वारिस शाह-
कहीं कब्र में से बोलो
और इश्क की कहानी का-
कोई नया वरक खोलो....

पंजाब की एक बेटी रोई थी
तूने लंबी दास्तान लिखी
आज जो लाखों बेटियां रोती हैं
तुम्हें-वारिस शाह से-कहती हैं...

दर्दमंदों का दर्द जानने वाले
उठो ! और अपना पंजाब देखो !
आज हर बेले में लाशें बिछी हुई हैं
और चनाब में पानी नहीं
...अब लहू बहता है...
पांच दरियाओं के पानी में
यह ज़हर किसने मिला दिया
और वहीं ज़हर का पानी
खेतों को बोने सींचने लगा...

पंजाब की ज़रखेज़ जमीन में
वहीं ज़हर उगने फैलने लगा
और स्याह सितम की तरह
वह काला जहर खिलने लगा...
वही जहरीली हवा
वनों-वनों में बहने लगी
जिसने बांस की बांसुरी-
ज़हरीली नाग-सी बना दी...

नाग का पहला डंक मदारियों को लगा
और उनके मंत्र खो गए...
फिर जहां तहां सब लोग-
ज़हर से नीले पड़ने लगे...

देखो ! लोगों के होठों से
एक ज़हर बहने लगा
और पूरे पंजाब का बदन
नीला पड़ने लगा...

गले से गीत टूट गए
चर्खे का धागा टूट गया
और सखियां-जो अभी अभी यहां थीं
जाने कहां कहां गईं...

हीर के मांझी ने-वह नौका डुबो दी
जो दरिया में बहती थी
हर पीपल से टहनियां टूट गईं
जहां झूलों की आवाज़ आती थी...

वह बांसुरी जाने कहां गई
जो मुहब्बत का गीत गाती थी
और रांझे के भाई बंधु
बांसुरी बजाना भूल गए...

ज़मीन पर लहू बहने लगा-
इतना-कि कब्रें चूने लगीं
और मुहब्बत की शहज़ादियां
मज़ारों में रोने लगीं...

सभी कैदों में नज़र आते हैं
हुस्न और इश्क को चुराने वाले
और वारिस कहां से लाएं
हीर की दास्तान गाने वाले...

तुम्हीं से कहती हूं-वारिस !
उठो ! कब्र में से बोलो
और इश्क की कहानी का
कोई नया वरक खोलो...

 

तब अजीब वक्त सामने आया-यह नज़्म जगह-जगह गाई जाने लगी। लोग रोते और गाते। पर साथ ही कुछ लोग थे, जो अखबारों में मेरे लिए गालियां बरसाने लगे, कि मैंने एक मुसलमान वारिस शाह से मुखातिब होकर यह सब क्यों लिखा ? सिक्ख तबके के लोग कहते कि गुरु नानक से मुखातिब होना चाहिए था। और कम्युनिस्ट लोग कहते कि गुरु नानक से नहीं-लेनिन से मुखातिब होना चाहिए था...

यह सब होता रहा-पर नज़्में-मुझ पर जैसे बादलों सी घिरतीं और बरस जातीं-उस वक्त पंजाब की कहानी लगी
तकदीर उठी-रकाब में पैर रखा
पोठोहार को घोड़े के पैरों में कुचलती
पूरे पंजाब को देखने लगी...

उसके घोड़े की आवाज़ सुन कर
धरती आकाश चौंक गए
भारत-मां का दिल कांपने लगा
अब मेरी आबरू का क्या होगा...

क्या किसी ने वह बेटा नहीं जना
जो इस घोड़े की लगाम पकड़ ले !
क्या कोई मदारी नहीं
जो काले नाग को कील ले !

ऊंचे लंबे खेत थे-हरे भरे
खलवाड़े में आग किसने लगा दी
आग की लपटों पर-
लोग सान चढ़ने लगे...

पांच दरियाओं के पानी
गर्म तेल से बहने लगे...

खेतों के बीज हाथों से छूट गए
हांडियां पकाती हुई कलछियां फूट गईं
कुएं में मटकी की रस्सी टूट गई
कलाइयों की चूड़ियां-टूट गईं...

इस पेड़ का क्या होगा ?
इस छाया का क्या होगा ?
नफरत के कीड़े-तो ज़ड़ में लगे हैं
और राही-रास्ता भूलने लगे हैं...

कैसी हवा चलने लगी-
राजा ! तू कैसा राज करेगा
कि आने वाली सदी तक
एक राख-सी उड़ने लगी..

राजा ! तू कैसा राज करेगा
सिर पर कोई आकाश न रहा
पैंरों के नीचे ज़मीन न रही...

मैं अक्षरों में भी भीगती रही-
आंसुओं में भी भीगती रही
लिखती रही...

उस मज़हब के माथे पर से
यह खून कौन धोएगा...
जिसके आशिक-हर गुनाह
मज़हब के नाम से करते
राहों पर कांटे बिछाते हैं
ज़बान से ज़हर उगलते
जवान खून को बहाते हैं
और खून से भरे हाथ
मज़हब की ओट में छिपाते हैं...

तहज़ीब की लाश-
बाज़ार में रुलने लगी
और हर गुनाह की बात-
मज़हब के माथे पर लगने लगीं...

 

उन दिनों जनरल शाह नवाज़ अगवा हुई लड़कियों को तलाश रहे थे, उनके लोग, जगह-जगह से टूटी बिलखती लड़कियों को ला रहे थे-और पूरा-पूरा दिन-ये रिपोर्ट उन्हें मिलती रहतीं। मैंने कुछ एक बार उनके पास बैठ कर बहुत सी वारदातें सुनीं। ज़ाहिर है कि कई लड़कियां गर्भवती हालात में होती थीं...

उस लड़की का दर्द कौन जान सकता है-जिसके दिल की जवानी को ज़बर से मां बना दिया जाता है....एक नज़्म लिखी थी-मज़दूर ! उस बच्चे की ओर से-जिसके जन्म पर किसी भी आंख में उसके लिए ममता नहीं होती, रोती हुई मां और गुमशुदा बाप उसे विरासत में मिलते हैं...
मेरी मां की कोख मजबूर थी-
मैं भी तो एक इन्सान हूं
आजादियों की टक्कर में
उस चोट का निशान हूं
उस हादसे का ज़ख्म जो मां के माथे पर लगना था
और मां की कोख को मजबूर होना था...

मैं एक धिक्कार हूं-
जो इन्सान की जात पर पड़ रही..
और पैदाइश हूं-उस वक्त की
जब सूरज चांद-
आकाश के हाथों छूट रहे थे
और एक-एक करके
सब सितारे टूट रहे थे...

मैं मां के ज़ख्म का निशान हूं
मैं मां के माथे का दाग हूं
मां-
एक जुल्म को कोख में उठाती रही
और उसे अपनी कोख से
एक सड़ांध आती रही
कौन जान सकता है
एक जुल्म को, पेट में उठाना
हाड़-मांस को जलाना

पेट में जुल्म का फल
रोज-रोज़ बढ़ता रहा...
और कहते हैं-
आज़ादी के पेड़ को-
एक बौर पड़ता रहा...
मेरी मां की कोख मजबूर थी

 

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