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मोहन राकेश की सम्पूर्ण कहानियां

अनीता राकेश

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :478
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1532
आईएसबीएन :9788170282280

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प्रस्तुत है मोहन राकेश की सम्पूर्ण कहानियां...

Mohan rakesh ki sampurnya kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नई कहानी का उद्भव तथा विकास में मोहन राकेश का अग्रणी स्थान है। उन्होंने अपने जीवन-काल में साठ के लगभग कहानियाँ लिखीं हैं जो 1947 से 1969 के बीच विभिन्न संग्रहों में प्रकाशिक होती रहीं। फिर 1972 में इन सब कहानियों का संकलन तीन संग्रहों में प्रकाशित हुआ, जिनके साथ कमलेश्वर ने पुस्तकाकार अप्रकाशित एक दर्जन कहानियों को सम्पादित कर चौथे संग्रह के रूप में प्रकाशित कराया।

समय बीतते ये संग्रह भी समाप्त हो गए और यह जरूरत महसूस की जाने लगी कि सभी कहानियाँ एक ही संग्रह में प्रकाशित की जाएँ। प्रस्तुत संग्रह इसी माँग का परिणाम है। यह अन्तिम तथा स्थायी रूप है।

प्रस्तुत संग्रह में मोहन राकेश की कुल 46 कहानियाँ हैं। लगभग बाईस वर्षों के रचनाकाल के दौरान लिखी गई ये जीवन्त कहानियां रचनाकार की असाधारण लेखन-क्षमता का परिचय देती हैं। इनमें जीवन के अछूते सन्दर्भों को सामने रखते हुए लेखक ने कथा के ऐसे रोचक ताने-बाने बुने हैं कि पाठक मुग्ध रह जाता है। सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभूतियों को इनमें मार्मिक अभिव्यक्ति मिली है।
मोहन राकेश अपने दौर के सर्वाधिक चर्चित रचनाकार थे। उन्हें अपूर्व लोकप्रियता अपने नाटकों के कारण मिली थी, लेकिन कथा-साहित्य की विकास यात्रा के क्रम में भी उनकी कथात्मक कृतियाँ मील के पत्थर के समान हैं। उनके उपन्यासों और कहानियों में जीवन की त्रासदियाँ पूरी संजीदगी से मुखर हुई हैं। इस संग्रह की कहानियों से इस तथ्य की पुष्टि होती है।

भूमिका

सन् 1947 से 1969 के बीच लिखी छियालीस कहानियों का प्रकाशन चार जिल्दों में हुआ था। विचार था कि इस तरह प्रायः सभी कहानियां एक जगह उपलब्ध हो सकेंगी। परन्तु चारों जिल्दों के अलग-अलग समय पर प्रकाशित होने के कारण बाद की जिल्दों तक पहले की जिल्दों के संस्करण लगभग समाप्त हो गए जिससे उन्हें एक साथ एक सेट के रूप में प्रस्तुत करने का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। क्योंकि पहले से प्रकाशित अलग-अलग संग्रह भी अभी उपलब्ध नहीं थे, इसलिए बहुत-से पाठकों के पत्र आने लगे कि अमुक-अमुक कहानियों की तलाश उन्हें कहां से करनी चाहिए। मुझे प्रसन्नता है की पूरी कहानियों की तलाश उन्हें कहां से करनी चाहिए। मुझे प्रसन्नता है कि पूरी कहानियों को एक-साथ प्रकाशित करने की वर्तमान योजना से इस जिज्ञासा का समाधान हो जाएगा। जो पाठक विशेष रूप से मेरे पहले कहानी-संग्रह ‘इंसान के खंडहर’ की कहानियां पढ़ना चाह रहे हैं, उन्हें भी अन्यत्र कहीं उन कहानियों को नहीं खोजना होगा। वे सब कहानियां भी (कुछ सम्पादित रूप में) इनमें सम्मिलित कर दी गई हैं। इनके अतिरिक्त इधर की लिखी ‘क्वार्टर’ तक की कहानियाँ भी।
आरम्भिक रूप से कौन कहानी किस संग्रह में प्रकाशित हुई थी, इसका ब्यौरा एक तालिका में दे दिया गया है।

‘नये बादल’ तथा ‘एक और जिंदगी’ शीर्षक संग्रहों की भूमिकाएं अपने समय संदर्भ में इस विकसित होती विधा के साथ मेरे सम्बन्ध को रेखांकित करती थीं। परन्तु आज के संदर्भ में जबकि कहानी-नयी कहानी की चर्चा पत्र-पत्रिकाओं के स्तंभों से आगे कई पुस्तकों का विषय बन चुकी है, उन वास्तविक कथ्य उसकी रचना है, वास्तविक प्रासंगिकता भी उसके इसी कथ्य की होती है। शेष सब यात्रा का गुबार है जो धीरे-धीरे बैठ जाता है। इसके सम्बन्ध को लेकर कई-एक प्रश्न मन में हैं जो अपने आज के लेखन को निर्धारित कर रहे हैं। परन्तु वे एक व्यक्ति-लेखक द्वारा अपने ही लिए अपने सामने रखे गए प्रश्न हैं जिन्हें सामान्य प्रश्नों के रूप में प्रस्तावित करने का मुझे कोई आग्रह नहीं है।

अपनी कथा-यात्रा का संक्षिप्त विवरण मैंने ‘मेरी प्रिय कहानियां’ शीर्षक संकलन की भूमिका में दिया है जिसे वहां से देखा जा सकता है।

वर्ष : 1972

-मोहन राकेश

नोट : ‘नन्ही’ से आरंभ संग्रह की अंतिम बारह कहानियां कमलेश्वर ने संकलित और संपादित करके पुस्तक रूप में (संग्रह ‘एक घटना’ नाम से) पहली बार प्रकाशिक कराई थीं। उनकी लिखी भूमिका परिशिष्ट-2 में दी जा रही है।

मिस पाल


वह दूर से दिखाई देती आकृति मिस पाल ही हो सकती थी।
फिर भी विश्वास करने के लिए मैंने अपना चश्मा ठीक किया। निःसन्देह, वह मिस पाल ही थी। यह तो खैर मुझे पता था कि वह उन दिनों कुल्लू में रहती हैं, पर इस तरह अचानक उनसे भेंट हो जाएगी, यह नहीं सोचा था। और उसे सामने देखकर भी मुझे विश्वास नहीं हुआ कि वह स्थायी रूप से कुल्लू और मनाली के बीच उस छोटे से गांव में रही होगी। वह दिल्ली से नौकरी छोड़कर आई थी, तो लोगों ने उसके बारे में क्या-क्या नहीं सोचा था !
बस रायसन के डाकखाने के पास पहुंच कर रुक गई। मिस पाल डाकखाने के बाहर खड़ी पोस्टमास्टर से कुछ बात कर रही थीं। हाथ में वह एक थैला लिए थी। बस के रुकने पर न जाने किस बात के लिए पोस्टमास्टर को धन्यवाद देती हुई वह बस की तरफ मुड़ी। तभी मैं उतरकर सामने पहुंच गया। एक आदमी के अचानक सामने आ जाने से मिस पाल थोड़ा अचकचा गई, मगर मुझे पहचानते ही उसका चेहरा खुशी और उत्साह से खिल गया !

‘‘रणजीत तुम ?’’ उसने कहा, ‘‘तुम यहां कहां से टपक पड़े ?’’
‘‘मैं इस बस से मनाली आ रहा हूं।’’ मैंने कहा।’’
‘‘अच्छा ! मनाली तुम कब से आए हुए थे ?’’
‘‘आठ दस दिन हुए, आया था। आज वापस जा रहा हूं।’’

‘‘आज ही जा रहे हो ?’’ मिस पाल के चेहरे से आधा उत्साह गायब हो गया, ‘देखो कितनी बुरी बात है कि आठ-दस दिन से तुम यहां हो और मुझसे मिलने की तुमने कोशिश भी नहीं की। तुम्हें यह तो पता ही था कि मैं कुल्लू में हूं।’’
‘‘हां, यह तो पता था, पर यह पता नहीं था कि कुल्लू के किस हिस्से में हो। अब भी तुम अचानक ही दिखायी दे गईं, नहीं मुझे कहां से पता चलता कि तुम इस जंगल को आबाद कर रही हो ?’’
‘‘सचमुच बहुत बुरी बात है,’’ मिस पाल उलाहने के स्वर में बोली, ‘‘तुम इतने दिनों से यहां हो और मुझसे तुम्हारी भेंट आज हुई आज जाने के वक्त...।’’

ड्राइवर जोर-जोर से हार्न बजाने लगा। मिस पाल ने कुछ चिढ़कर ड्राइवर की तरफ देखा और एक साथ झिड़कने और क्षमा माँगने के स्वर में कहा, ‘‘बस जी एक मिनट। मैं भी इसी बस से कुल्लू चल रही हूँ। मुझे कुल्लू की एक सीट दीजिए। थैंक यू वेरी मच !’’ और फिर मेरी तरफ मुड़कर बोली, ‘‘तुम इस बस से कहां तक जा रहे हो ?’’
‘‘आज तो इस बस से जोगिन्दरनगर जाऊंगा। वहां एक दिन रहकर कल सुबह आगे की बस पकड़ूंगा।’’
ड्राइवर अब और जोर से हार्न बजाने लगा। मिस पाल ने एक बार क्रोध और बेबसी के साथ उसकी तरफ देखा और बस के दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए बोली, ‘‘अच्छा कुल्लू तक तो हम लोगों का साथ है ही, और बात कुल्लू पहुंचकर करेंगे। मैं तो कहती हूं कि तुम दो-चार दिन यहीं रुको, फिर चले जाना।’’

बस में पहले ही बहुत भीड़ थी। दो-तीन आदमी वहाँ से और चढ़ गए थे, जिससे अन्दर खड़े होने की जगह भी नहीं रही थी। मिस पाल दरवाजे के अन्दर जाने लगीं तो कण्डक्टर ने हाथ बढ़ाकर उसे रोक दिया। मैंने कण्डक्टर से बहुतेरा कहा कि अन्दर मेरी वाली जगह खाली है, मिस साहब वहां बैठ जाएंगी और मैं भीड़ में किसी तरह खड़ा होकर चला जाऊंगा, मगर कण्डक्टर एक बार जिद पर अड़ा तो अड़ा ही रहा कि और सवारी वह नहीं ले सकता। मैं अभी उससे बात ही कर रहा था कि ड्राइवर ने बस स्टार्ट कर दी। मेरा सामान बस में था, इसलिए मैं दौड़कर चलती बस पर सवार हो गया। दरवाजे से अन्दर जाते हुए मैंने एक बार मुड़कर मिस पाल की तरफ देख लिया। वह इस तरह अचकचाई-सी खड़ी थी जैसे कोई उसके हाथ से उसका सामान छीन कर भाग गया हो और उसे समझ न आ रहा हो कि उसे अब क्या करना चाहिए।

बस हल्के-हल्के मोड़ काटती कुल्लू की तरफ बढ़ने लगी। मुझे अफसोस होने लगा कि मिस पाल को बस में जगह नहीं मिली तो मैंने क्यों न अपना सामान वहां उतरवा लिया। मेरा टिकट जोगिन्दरनगर का था, पर यह जरूरी नहीं था कि उस टिकट से जोगिन्दरनगर तक जाऊं ही। मगर मिस पाल से भेंट कुछ ऐसे आकस्मिक ढंग से हुई थी और निश्चय करने के लिए समय इतना कम था कि मैं यह बात उस समय सोच भी नहीं सका था। थोड़ा-सा समय और मिलता, तो मैं जरूर कुछ देर के लिए वहां उतर जाता। उतने समय में तो मिस पाल से कुशल-समाचार भी नहीं पूछ सका था, हालांकि मन में उसके सम्बन्ध में जानने की उत्सुकता थी। उसके दिल्ली छोड़ने के बाद लोग उसके बारे में जाने क्या-क्या बातें करते रहे थे। किसी का ख्याल था कि उसने कुल्लू में एक रिटायर्ड अंग्रेज़ मेजर से शादी कर ली है और मेजर ने अपने सेब के बगीचे उसके नाम कर दिए हैं। किसी की सूचना थी कि उसे वहां की सरकार की तरफ से वजीफा मिल रहा है और वह करती वरती कुछ नहीं है, बस घूमती और हवा खाती है। कुछ ऐसे लोग भी थे जिनका कहना था कि मिस पाल का दिमाग खराब हो गया है और सरकार उसे इलाज के लिए अमृतसर के पागलखाने में भेज रही है। मिस पाल एक दिन अचानक अपनी लगी हुई पांच सौ की नौकरी छोड़कर चली आई थी, उससे लोगों में उसके बारे में तरह-तरह की कहानियाँ प्रचलित थीं।

जिन दिनों मिस पाल ने त्यागपत्र दिया, मैं दिल्ली में नहीं था। लम्बी छुट्टी लेकर बाहर गया था। मिस पाल के नौकरी छोड़ने का कारण मैं काफी हद तक जानता था। वह सूचना विभाग में हम लोगों के साथ काम करती थी और राजेन्द्रनगर में हमारे घर से दस-बारह घर छोड़कर रहती थी। दिल्ली में भी उसका जीवन काफी अकेला था, क्योंकि दफ्तर के ज्यादातर लोगों से उसका मनमुटाव था और बाहर के लोगों से वह मिलती बहुत कम थी। दफ्तर का वातावरण उसके अपने अनुकूल नहीं लगता था। वह वहां एक-एक दिन जैसे गिनकर काटती थी। उसे हर एक से शिकायत थी कि वह घटिया किस्म का आदमी है, जिसके साथ उसका बैठना नहीं हो सकता।

‘‘ये लोग इतने ओछे और बेईमान हैं,’’ वह कहा करती, ‘‘इतनी छोटी और कमीनी बातें करते हैं कि मेरा इनके बीच काम करो हर वक्त दम घुटता रहता है। जाने क्यों ये लोग इतनी छोटी-छोटी बातों पर एक-दूसरे से लड़ते हैं और अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए एक-दूसरे को कुचलने की कोशिश करते रहते हैं।’’
मगर उस वातावरण में उसके दुखी रहने का मुख्य कारण दूसरा था, जिसे वह मुंह से स्वीकार नहीं करती थी। लोग इस बात को जानते थे, इसलिए जान-बूझकर उसे छोड़ने के लिए कुछ-न-कुछ कहते रहते थे। बुखारिया तो रोज़ ही उसके रंग-रूप पर कोई न कोई टिप्पड़ी कर देता था।

‘क्या बात है मिस पाल, आज रंग बहुत निखर रहा है !’’
दूसरी तरफ वह जोरावरसिंह बात जोड़ देता, ‘‘आजकल मिस पाल पहले से स्लिम भी तो हो रही है।’’
मिस पाल इन संकेतों से बुरी तरह से परेशान हो उठती और कई बार ऐसे मौके पर कमरे से उठकर चली जाती। उसकी पोशाक पर भी लोग तरह-तरह की टिप्पणियां करते रहते थे। वह शायद अपने मुटापे की क्षतिपूर्ति के लिए बाल छोटे कटवाती थी और बनावसिंगार से चिढ़ होने पर भी रोज काफी समय मेकअप पर खर्च करती थी। मगर दफ्तर में दाखिल होते ही उसे किसी न किसी मुंह से ऐसी बात सुनने को मिल जाती थी, ‘‘मिस पाल, नई कमीज की डिजाइन बहुत अच्छा है। आज तो गजब ढा रही हो तुम !’’

मिस पाल को इस तरह की बातें दिल में चुभ जाती थीं। जितनी देर दफ्तर में रहती, उसका चेहरा गंभीर बना रहता। जब पांच बजते, तो वह इस तरह अपनी मेज से उठती जैसे कोई सजा भोगने के बाद उसे छुट्टी मिली हो। दफ्तर से उठकर वह सीधी अपने घर चली जाती और अगले दिन सुबह दफ्तर के लिए निकलने तक वहीं रहती। दफ्तर के लोगों से तंग आ जाने की वजह से ही वह और लोगों से भी मेल-जोल नहीं रखना चाहती थी। मेरा घर पास होने की वजह से, या शायद इसलिए कि दफ्तर के लोगों में मैं ही ऐसा था जिसने उसे कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था, वह कभी शाम को हमारे यहां चली आती थी। मैं अपनी बूआ के पास रहता था और मिस पाल मेरी बुआ और उनकी लड़कियों से काफी घुल-मिल गई थी। कई बार घर के कामों में वह उनका हाथ बंटा देती थी। किसी दिन हम उसके यहां चले जाते थे। वह घर में समय बिताने के लिए संगीत और चित्रकला का अभ्यास करती थी। हम लोग पहुंचे तो उसके कमरे में सितार की आवाज आ रही होती या वह रंग और कूचियां लिए किसी तश्वीर में उलझी होती।

मगर जब वह उन दोनों में कोई भी काम न कर रही होती तो अपने तख्त पर बिछे मुलायम गद्दे पर दो तकियों के बीच लेटी छत को ताक रही होती। उसके गद्दे पर जो झीना रेशमी कपड़ा बिछा रहता था, उसे देखकर मुझे बहुत चिढ़ होती थी। मन करता था कि उसे खींचकर बाहर फेंक दूं। उसके कमरे में सितार, तबला रंग, कैनवस, तस्वीरें कपड़े तथा नहाने और चाय बनाने का सामान इस तरह उलझे-बिखरे रहते थे कि बैठने के लिए कुरसियों का उद्धार करना एक समस्या हो जाती थी। कभी मुझे उसके झीने रेशमी कपड़े वाले तख्त पर बैठना पड़ जाता तो मुझे मन में बहुत परेशानी होती। मन करता कि जितनी जल्दी हो सके उठ जाऊं। मिस पाल अपने कमरे के चारों तरफ खोज कर कहां से एक चायदानी और तीन-चार टूटी प्यालियां निकाल लेतीं और हम लोगों को ‘फर्स्ट क्लास बोहिमयन कॉफी’ पिलाने की तैयारी करने लगती। कभी वह हम लोगों को अपनी बनाई तस्वीरे दिखाती और हम तीनों—मैं और मेरी दो बंहने—अपना अज्ञान छिपाने के लिए उसकी प्रशंसा कर देते मगर कई बार वह हमसे उदास मिलती और ठीक ढंग से बात भी न करती। मेरी बहनें ऐसे मौके पर उससे चिढ़ जातीं और कहतीं कि वे उसके यहां फिर न आएंगी। मगर मुझे ऐसे अवसर पर मिस पाल से ज़्यादा सहानुभूति होती।

आखिरी बार जब मैं मिस पाल के यहां गया, मैंने उसे बहुत ही उदास देखा था। मेरा उन दिनों एपेंडसाइटिस का आपरेशन हुआ था और मैं कई दिन अस्पताल में रहकर आया था। मिस पाल उन दिनों रोज अस्पताल में खबर पूछने आती रही थी। बूआ अस्पताल में मेरे पास रहती थी पर खाने-पीने का सामान इकट्ठा करना उनके लिए मुश्किल था मिस पाल सुबह-सुबह आकर सब्जियां और दूध दे जाती थी। जिस दिन मैं उसके यहां गया, उससे एक ही दिन पहले मुझे अस्पताल से छुट्टी मिली थी और मैं अभी काफी कमजोर था। फिर भी उसने मेरे लिए जो तकलीफ उठाई थी, उसके लिए मैं उसे धन्यवाद देना चाहती थी।
मिस पाल ने दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी और कमरा बन्द किए अपने गद्दे पर लेटी थी मुझे पता लगा कि शायद वह सुबह से नहाई भी नहीं है।

‘‘क्या बात है, मिस पाल ? तबियत तो ठीक है ?’’ मैंने पूछा।
‘‘तबीयत ठीक है’’, उसने कहा, ‘‘मगर मैं नौकरी छोड़ने की सोच रही हूं।’’
‘‘क्यों ? कोई खास बात हुई है क्या ?’’
‘‘नहीं, खास बात क्या होगी ? बात बस इतनी ही है मैं ऐसे लोगों के बीच कामकर ही नहीं सकती मैं सोच रही हूं कि दूर के किसी खूबसूरत-से पहाड़ी इलाके में चली जाऊं और वहां रहकर संगीत और चित्रकला का ठीक से अभ्यास करूं। मुझे लगता है, मैं खामखाह यहां अपनी जिन्दगी बरबाद कर रही हूं। मेरी समझ में नहीं आता कि इस तरह की जिन्दगी जीने का आखिर मतलब क्या है ? सुबह उठती हूं, दफ्तर चली जाती हूं। वहां सात-आठ घंटे खराब करती हूं, खाना खाती हूं सो जाती हूं। यह सारा का सारा सिलसिला मुझे बिलकुल बेमानी लगता है। मैं सोचती हूं कि मेरी जरूरतें ही कितनी हैं ? मैं कहीं और जाकर एक छोटा-सा कमरा या शैक लूं तो थोड़ा-सा जरूरत का सामान अपने पास रखकर पचास-साठ या सौ रुपये में गुजारा कर सकती हूं। यहां मैं जो पांच सो लेती हूं, वे पांच के पांच सौ हर महीने खर्च हो जाते हैं। किस तरह खर्च हो जाते हैं, यह खुद मेरी समझ में नहीं आता। पर अगर ज़िन्दगी इसी तरह चलती है, तो क्यों खामखाह दफ्तर आने-जाने का भार ढोती रहूं ? बाहर रहने में कम से कम अपनी स्वतन्त्रता होगी। मेरे पास कुछ रुपये पहले के हैं, मुझे प्राविडेंट फंड के मिल जाएंगे। इतने में एक छोटी सी जगह पर मेरा काफी दिन गुजारा हो सकता है। मैं ऐसी जगह रहना चाहती हूं जहां यहां की-ही गन्दगी न हो और लोग इस तरह की छोटी हरकतें न करते हों। ठीक से जीने के लिए इन्सान को कम से कम इतना तो महसूस होना चाहिए कि उसके आसपास का वातावरण उजला और साफ है, और वह एक मेंढक की तरह गंदले पानी में नहीं जी रहा।’’

‘‘मगर तुम यह कैसे कह सकती हो कि जहां तुम जाकर रहोगी, वहां हर चीज़ वैसी ही होगी जैसी तुम चाहती हो ? मैं तो समझता हूं कि इन्सान जहां भी चला जाए, अच्छी और बुरी तरह की चीज़ें उसे अपने आसपास मिलेंगी ही। तुम यहां के वातावरण से घबराकर कहीं और जाती हो, तो यह कैसे कहा जा सका है कि वहां का वातावरण भी तुम्हें ऐसा ही नहीं लगेगा ? इसलिए मेरे ख्याल से नौकरी छोड़ने की बात तुम गलत सोचती हो। तुम यहीं रहो और अपना संगीत और चित्रकला का अभ्यास करती रहो। लोग जैसी बातें करते है करने दो।’’



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