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आज के प्रसिद्ध शायर - अमीर कजलबाश

अमीर कजलबाश

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1536
आईएसबीएन :9789350641033

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प्रस्तुत है चुनी हुई गजलें नज्में शेर और जीवन परिचय....

Aaj Ke Prasiddh Shayar - Amir Kajalbhash

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लोकप्रिय उर्दू शायर अमीर आगा कजलबाश की एक-से-एक बढ़कर चुनी हुई नज्में गजलें और शेर जिनमें आज की इन्सानी जिन्दगी के सभी रंग-शायर के अपने खास अंदाज में।

अमीर की शायरी : नदी के पास उजाला

अमीर आग़ा क़ज़लबाश उर्दू शायरी में एक ऐसी शख़्सियत का नाम है जो संस्कृति, संस्कार और परम्परा की सीमाओं को ज़ेहन में रखकरक अपनी बात कहने के लिए ज़मीन तलाशने में विश्वास करते हैं। ग़ज़ल कहें या नज़्म, अमीर अपने तल्ख़ तजुर्बात की नुमाइन्दगी इस ख़ूबसूरत अन्दाज़ में करते हैं कि शायरी का सौन्दर्य जख़्मी न होने पाये। इसी ख़ूबी के कारण उनके तजुर्बात का खुरदरापन उनकी शायरी को खुरदरा नहीं होने देता। एक ढलकता हुआ प्रवाह है, रवानी है, जो लफ़्ज़ों में ढलकर आती है। वे कहते हैं :
शुमार कर न अभी मेरा इन निगाहों में
मैं इस हजूम से दामन बचा के निकलूँगा
घिरा हूँ आज अँधेरों के दरमियाँ लेकन
मैं एक मशाले-फ़रदा जला के निकलूँगा

आने वाले कल के लिए मशाल जलाने की लगातार जुस्तजू है अमीर की शायरी। ऐसा नहीं कि अँधेरों से लड़कर उजालों की पताका फहराने का सपना पालना सिर्फ़ अमीर ने किया है, किसी और शायर ने नहीं किया। सच तो यह है कि हर अच्छी शायरी की बुनियाद इसी सपने का पर्याय होती है और हर शायर उजाले की किरण की टोह में ही ज़िन्दगी बसर करता है। मगर इस टोह का अंदाज़ अपना-अपना होता है। अमीर का अंदाज़ देखें :

ये घनी छाँव भी साज़िश है किसी दुश्मन की
मुझको मालूम था तुम लोग ठहर जाओगे।

अमीर को घनी छाँव भी अँधेरे की घनी साज़िश लगती है। उजाले का ज़रा-सा दामन भी दबता नज़र आता है, तो अमीर चौकन्ने हो जाते हैं। अमीर को इस बात का बख़ूबी एहसास है कि दुनिया में तारीक़ी का समन्दर लहरा रहा है। सूरज डूब चुका है लेकिन इस विश्वास को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा कि सूरज का न होना उजालों की ख़ात्मे की तस्दीक़ नहीं है। घने अँधेरों में एक नन्हीं-सी कन्दील भी सूरज की नुमाइन्दगी करती है और अँधेरों के ख़िलाफ बग़ावत का परचम लहराती खड़ी हो जाती है :
रात उस घर में कल भी आएगी
घर में रखना कोई दीया महफूज़।

इतना ही नहीं, अँधेरों को शिकस्त देने का एक यह भी तरीक़ा अमीर ने निकाला है कि रोशनी न भी हो तो शब के सफ़र में जागते रहना भी अँधेरों को परास्त कर देने का पर्याय है :

दिन निकला तो सो जाऊँगा
शब के शफ़र में नींद है रहज़न।

हर गाम पर उनका यह एहसास बोलता सुनाई पड़ता है कि सुबह आएगी और सूरज अपनी पूरी बुलंदी से चमकेगा। अपने इसी विश्वास को ज़िन्दा रखने के लिए उनका आह्वान है :

सरों को सलीबों पै रोशन रखो
ये दुनिया चराग़ों से ख़ाली न हो।

यानी, एक अंडरकरेंट उसके साथ यह भी है कि अँधेरों से उजालों को जाने वाले रास्ते का सफ़र सलीबों पर सर रखकर चलने का सफर है। हर कन्दील को रोशनी देने के लिए गलना पड़ता है। हर भविष्य की इबारत के लिए उँगलियाँ स्याही में नहीं, लहू में डुबोकर रखनी पड़ती हैं। तमाम राष्ट्रों के इतिहास गवाह हैं कि उनका भविष्य लहू में डूबी हुई उँगलियों से ही लिखा गया है। अमीर का इशारा उसी तरफ़ है :
काम आएँगी कल से तहरीरें
उँगलियों को लहू में तर रखना

सपना एक ही है कि रात की चौखट पर दीया जलाकर ज़रूर रखा जाए ताकि रोशनी का सिलसिला सुबह के आने तक जारी रहे। यह सपना नया नहीं है, हर शायर ने इस सपने को एक शक़्ल देने की कोशिश की है, सिर्फ़ उस शक्ल के रंग जुदा-जुदा होते हैं। कोई उसमें रंग भरता है चाँद-तारों से मश्विरा करके, और कोई उसमें रंग भरता है उँगलियों को लहू में तर करके। अमीर की शायरी इसी सपने को साकार देखने की जद्दोजहद है। जैसे ज़िंदगी हर वक़्त युद्ध में ही सन्नद्ध नहीं रहती, उसमें उदासियाँ, खामोशियाँ, खुशियाँ, आँसू, अहसास सभी कुछ होता है और सबकुछ ज़रा-ज़रा से फ़ासले पर होता है, उसी तरह अमीर की शायरी में यह सब कुछ अपने पूरे अस्तित्व के साथ हाज़िर है। कहीं वह बड़े क़रीने से सजाकर पेश किया गया लगता है और कहीं बेपनाह बेतरतीबी के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ करता लगता है। एक ही साथ बाख़बर होने से बेख़बर होने तक की तमाम रंगतें अमीर की ग़ज़लों में आपको मिलती हैं। बड़ी सादगी से यह हिदायत भी कि :

जानलेवा बहुत है बाख़बरी
ख़ुद को थोड़ा-सा बेख़बर रखना।

शब्द ‘थोड़ा-सा’ क़ाबिले ग़ौर है। इतना बेख़बर होने की सलाह अमीर कभी नहीं देना चाहते कि आपकी पकी हुई फ़सल कोई और काट ले जाए और आप बेख़बरी का आलम जीते हुए लुट जाएँ। उनका मानना है कि चौतरफा चौकन्ने रहो। इतना कि आपकी फ़सल को काटकर ले जाने का हौसला किसी दूसरे में पैदा न हो। लेकिन इतना भी नहीं कि हमेशा तीर-कमान साधे ही दिखाई पड़ो। कसी हुई सारंगी की तरह हर वक़्त ज़िंदगी का सुर निकालना ठीक नहीं रहता। सुर की अहमियत उभारने के लिए थोड़ा बेसुरा बनकर रहना भी मुनासिबत के दायरे में आता है। लेकिन इस बेख़बरी के आलम में भी उनकी नज़र उस उजाले को देखने की उम्मीद लगाए रहती है जिसके लिए उसका ऐलान है :

नदी के पार उजाला दिखाई देता है
मुझे ये ख़्वाब हमेशा दिखाई देता है।

यह अँधेरों के लिए एक ललकार है अमीर की। अँधेरों और उजालों की जंग के मैदान में यह ललकार ही अमीर की असली पहचान है, जिसे उर्दू में रजज़ कहते हैं। अमीर के घने दोस्त शायर मख़्मूर सईदी ने अमीर को इसी एतबार से ‘रजज़ का शायर’ कहा है। अपने पहले काव्य संग्रह ‘बाज़गश्त’ (1974) से लेकर अब तक अमीर उसी मुद्रा में युद्धभूमि में खड़े दिखाई देते हैं। अगर ‘बाज़गश्त’ में अमीर मानवीय संबंधों की बुनियाद के खोखलेपन पर हतप्रभ थे तो दूसरे संग्रह ‘इंकार’ में अन्दर का आक्रोश अल्फ़ाज़ में आँच भर रहा था। तीसरे संग्रह ‘शिकायतें मेरी’ में यह आक्रोश संतुलन बनाकर चलता हुआ लगता है और एक आत्मविश्वास भी जागा हुआ लगता है कि कितना ही तुच्छ और असहाय दिखनेवाला वजूद अगर आत्मविश्वास से काम ले तो माहौल की क्रूरताएँ और विद्रूपताएँ नियंत्रण में लाई जा सकती हैं।

मेरी अमीर से जान-पहचान उनके सोचने के इसी हिस्से में हुई थी। तब शायद उनका संग्रह ‘शिकायतें मेरी’ आनेवाला था। मैं उन दिनों ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में ‘पराग’ पत्रिका का संपादक था और दरियागंज दफ़्तर मैं बैठा करता था।
एक दिन अचानक फ़ोन आया श्री रमानाथ अवस्थी का। बोले, ‘‘भाई, क्या कर रहे हो ? अगर आ सको तो फ़ौरन चले आओ। मैं अपने एक बहुत ही अच्छे दोस्त का परिचय आपसे कराना चाहता हूँ।’’ फ़ोन का लहज़ा कुछ उतावला और असाधारण था, सो चल पड़ा। पहुँचा तो एक सज्जन बड़े अदब से मुझसे ‘आदाब अर्ज़’ कहते हुए रमानाथ जी की तरफ़ मुख़ातिब हो गए। रमानाथ जी ने कहा, ‘‘तुम्हारा परिचय बाद में कराऊँगा, पहले तुम वह शेर जो अभी मुझे सुनाया था तुमने, उसे नन्दन जी को सुनाओ !’’ सज्जन तो सज्जन थे ही, रमानाथ जी के आदेश का पालन करते हुए उन्होंने तहतुललफ़्ज एक ग़ज़ल के चंद शेर पढ़ दिये। मैं यह अंदाज़ नहीं लगा पाया कि जिनके लिए मुझे बुलाया गया, ये वही सज्जन हैं। उन दिनों रमानाथ जी के पास रेडियो में रोज़ अनेक लोग आते-जाते रहते थे। बहरहाल मैंने शे’र सुने :

कोई मेरे बारे में कब ये सोचता होगा,
मैं भी इन अँधेरों में बुझ गया तो क्या होगा।
सुबह मेरे माथे पर इस क़दर लहू कैसा,
रात मेरे चेहरे पर आईना गिरा होगा।।

मेरे मुँह से बेसाख़्ता ‘वाह’ के साथ निकला, ‘‘रमानाथ जी, कलाम बहुत ही उम्दा है, किसी बहुत ही बड़े शायर का मालूम पड़ता है।’’
अब जनाब शायर से नहीं रहा गया, बोले, ‘‘आप शर्मिन्दा न करें, इस नाचीज़ को इतना न उठाएँ। मैं अमीर क़ज़लबाश।’’
अमीर से यह मेरा पहला परिचय था, लेकिन उस परिचय से अभी तक चिपका हुआ हूँ। आज तक नसीब को ठोंककर रोनेवालों के लिए, अपनी ही सच्चाइयों से टकराकर लहूलुहान हो जाने की सच्चाई उजागर करनेवाला इतनी बुलंदी का शे’र मैंने कहीं पढ़ा हो, याद नहीं पड़ता। तब से कई साल गुज़र गए हैं। वह सच्चाई अपनी जगह क़ायम है।

बिलकुल आज लिखी जा रही उर्दू शायरी से पूरी तरह वाक़िफ रह पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं है, लेकिन यह जानने की कभी-कभी मन में उत्सुकता होती थी कि अमीर का आज की उर्दू शायरी में क्या स्थान है। एक दिन लखनऊ से दिल्ली आते हुए एयरपोर्ट पर देखा कि कुँवर मोहिंदर सिंह बेदी प़्लेन के लेट हो जाने को चहलकदमी से पाट रहे थे। मैं भी उस इंतज़ार की बेचैनी को कम करने की गरज़ से उन्हें छेड़ बैठा और फिर हम उर्दू अदब के ताज़ा-तरीन बहस-मुबाहसों की तरफ़ मुड़ गए। उसी बातचीत में बेदी जी ने कहा, ‘‘आपकी दिलचस्पी नई शायरी में गहरी लगती है। आपको अमीर की शायरी ज़रूर पसंद आएगी। बड़ा ताज़ा कलाम है उसका। बात कहने का ढंग उसका ऐसा है कि हमारे ज़माने से अलग, उसका अपना ज़माना बोलता हुआ नज़र आता है।’’ सुनकर बेहद ख़ुशी हुई थी कि उस नए-से नाम की ताज़गी से बेदी जी भी इतने मुतास्सिर हैं।
फिर मुलाक़ातें होती रहीं, बढ़ती रहीं और बढ़ता रहा अमीर की शायरी से मेरा ताल्लुक। ‘सारिका’ उस समय की मशहूर कथा पत्रिका थी, लेकिन उसमें कविता के नाम पर ग़ज़लों के छपने का सिलसिला पहले से चालू था। मैंने संपादक के नाते अमीर से ‘सारिका’ के लिए ग़ज़लें माँगीं, सो अमीर ने मेरे दफ़्तर में बैठकर ही चार-पाँच ग़ज़लें लिखकर दे दीं। एक ग़ज़ल का मतला था :
तुमसे मुमकिन हो तो बालों में सजा लो मुझको।
शाख से टूटने वाला हूँ सँभालो मुझको।।

पहला मिसरा मुझे उर्दू शायरी का, खासतौर पर ग़ज़ल के इश्क़िया, रुखसार, चाँद, साक़ी, प्याला लहज़े का मिसरा लगा। लेकिन शेर मुकम्मल होते ही लगा, अमीर ने परंपरा को नई ज़मीन पर लाकर खड़ा कर दिया। एक चुनौती थी फूल की तरफ़ से कि अगर दम है तो एक शाख से टूटकर बिखरने जाते हुए फूल को सँवारकर; सहेजकर उसे सरेआम बुलंदी का रुतबा दो, वरना फूल आज नहीं, कल बिखर तो जाएगा ही। अमीर की शायरी का यही अंदाज़ मेरे मानस पर रोज़-बरोज़ बेहतर होकर चस्पां होता गया है। गिरते हुए इंसान को थामकर उसे बुलंदियाँ देने का पैग़ाम ही शायरी की मक़सद होता है। अमीर के अल्फ़ाज़ में बोलूँ तो पढ़ने वाले को शायरी में उम्मीद की एक मशाल जलती हुई नज़र आनी चाहिए। लेकिन ज़िंदगी की सच्चाइयों से कतराकर जलनेवाली मशालें इंसान के काम नहीं आया करतीं। असल में ज़िंदगी एक अंधा मकान है जिसमें तारीक़ी के खंड़हर घनी दस्तकें देकर उस अंधेपन को बेसहारा क़रार देने पर तुले रहते हैं। अमीर के शब्द हैं :

मिलेंगे अब हमें हर सू डरावने मंज़र।
हमारे साथ वो आए जो बदहवास न हो।।
न जाने कब से लहू पी रहा है वो अपना।
ख़ुदा करे कि किसी को भी ऐसी प्यास न हो।।

कबीर ने कहा था, ‘‘जो घर फूँकै आपनो, चलै हमारे साथ।’’ अमीर का ज़माना बदहवासों को साथ लेकर चलनेवालों का ज़माना नहीं है। यह ज़माना वह है जहाँ :

‘न सुन सका कोई आहट न मिल सका कोई अक्स
मेरा ख़याल है मेरा सफ़र अकेला है।’

आप-हम सभी जानते हैं कि ज़िंदगी से हमें फूलों के बदले ख़ुशबू के तोहफ़े नहीं मिला करते। ईट का जवाब पत्थर से देने को तैयार न रहो तो ज़िंदगी चीथकर फेंक देने को तैयार बैठी है :

क्या दिया है तुम्हें इस शहर ने फूलों के एवज़।
अब ज़रा संग भी हाथों में उठाकर देखो।।

ज़िंदगी की इन्हीं तल्ख़ियों के बीच से खूबसूरती के साथ गुज़र जाने के लिए एक ज़रिए की तलाश है अमीर की शायरी, जहाँ खुद्दारी भी है, इंसान की अपनी अहमियत का परचम भी है और पस्तहिम्मती का वह आलम भी है जहाँ आदमी सिर्फ़ एक तनहाई होता है, और कुछ नहीं। इस पस्तहिम्मती में भी अमीर के इंसान का नेज़ा देखिए :

अब अपना कोई अक्स भी पाओगे न मुझमें।
उम्मीद का सूरज हूँ मगर डूब चुका हूँ।।

हताशा के क्षणों में भी अपने-आपको पहचानकर चलने का एहसास अमीर की शायरी में हर जगह मौजूद है। अमेरिकी कवि रिचर्ड एबरहार्ट का कहना है कि ‘‘मैं कविता के ज़रिए अपनी ख़ुद की पहचान की तलाश में रहता हूँ। हर कविता मेरी यात्रा का एक पड़ाव होती है। जिस कविता में तात्कालिनता ज़रूरत से ज़्यादा आ जाती है, वह कविता वहीं कमज़ोर हो जाती है।’’ अमीर की शायरी तात्कालिनता से दूर, शाश्वतता की शायरी है। वह अपने समय की भी धड़कन है मगर उसमें धड़कन के पार क्षितिज के विस्तार की अनंतता भी है। मुझे याद है, हंगरी के कैथलिक कवि यानुस पिलिंस्ज़्की को जब 1980 का हंगरी का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार दिया गया तो उन्होंने अपनी कविता को इतिहास लेखन बताते हुए कहा कि कला जब अपने ज़माने का इतिहास लिखती है तो वह इतिहास किसी इतिहासकार की सजरादारीसे ज़्यादा विश्वसनीय, जीवंत और स्थायी होता है। उनके मुताबिक तोल्स्तोय या दोस्तोयव्स्की उपन्यास ही नहीं लिखते, वे अपने ज़माने की हर धड़कन का इतिहास लिखते हैं। मुझे अमीर की शायरी अपने मौजूदा ज़माने की तल्ख़ियों का इतिहास लगती है, और असल में ज़िंदा भी हम उन्हें ही मान सकते हैं जो इन तल्ख़ियों का ज़हर पीकर जीते हैं। आज के विचारक-चिंतक, जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं, जीवन का दूसरा नाम चुनौती है। जो चुनौतियों का जवाब नहीं देते या नहीं दे पाते; वे ज़िंदगी जीते नहीं घिसटते हैं। अमीर की शायरी में उन चुनौतियों की पहचान भी है, उनकी बदलती रंगतों की राज़दारी भी है, उन राज़दारियों को जीकर निकल जाने का आत्मविश्वास भी है और ज़िंदगी को मनाकर जी लेने की दीवानगी भी। लेकिन ज़िंदगी है कि आपका रोज़ क़त्ल करती है और जिस खंज़र से आपका क़त्ल करती है, वह आपके ही हाथों में थमाकर दफ़ा हो जाती है। आप सबूत तक नहीं दे पाते कि आख़िर आपका क़ातिल है कौन।

लेकिन शायद अमीर की शायरी को सिर्फ़ इतनी-सी हदों में बाँधकर समझना अपने-आपको धोखा देना होगा। उसमें आत्मान्वेषण भी है, मौसम का सुरूर भी है, पतझड़ की उदासी भी है। सहरा की वीरानगी भी है और खंडहरों पर उगा हुआ सब्ज़ा भी। कलकत्ता में एक गोष्ठी में उनकी ग़ज़ल सुनी। एक शे’र था :

ये वीराँ खंडहर अब भी गूँगा नहीं।
मेरा नाम लेकर पुकारा करो।।

लगा कि एक डूबती हुई कश्ती के लिए किसी बूढ़े मल्लाह ने आवाज़ लगा दी हो। जिस खुदी की पहचान की बात रिचर्ड एबरहार्ट ने की थी, उसका एहसास तो अमीर अपनी हर ग़ज़ल में कराते हैं। अंग्रेज़ी के दार्शनिक वाक्य : ‘नो दाईसेल्फ’ का शायराना तर्जुमा है अमीर की शायरी। वे तमाशबीन भी हैं और भुक्तभोगी भी। आत्मविश्वास की इंतहाई हदों में जीने का हौसला रखने वाले इसी शायर की दो लाइनें और यहाँ देने का लोभ-संवरण नहीं कर पा रहा :

कल वो माझी भी था, पतवार भी था, कश्ती भी।
आज एक एक से कहता है—बचा लो मुझको।।

तुमसे टूटेगा न इस शब की सियाही का तिलिस्म।
मैंने पहले ही कहा था कि जला लो मुझको।।

यह अमीर की शायरी में उनकी अपनी पहचान का एक उदाहरण है। ऐसा नहीं कि अँधेरे से लड़ने के लिए किसी और शायर ने अपनी महबूबा या दोस्त या हमसफ़र का कोई तरीक़ा न सुझाया हो, लेकिन यह कहना कि, ‘‘मैंने पहले ही कहा था कि जला लो मुझको,’’ बात पर अमीर की अपनी मोहर है। इसी मोहर से मीर, दाग़ और फ़िराक़ हज़ारों के बीच पहचान लिए जाते हैं। अमीर की भी अपनी छोटी-सी सही, लेकिन वह मोहर है। उनकी शायरी समय के बीच बहते हुए समय के पार जाती है। वह अपने वक़्त का इतिहास भी है, आने वाले समय का साया भी।
हिंदी के जाने-माने कवि डॉ. कुँवर बेचैन का एक गीत पढ़ा था :

जिस तरफ़ भी गयीं दृष्टियाँ
दृश्य ये ही पुराने मिले

ज़िंदगी की कड़ी धूप में
काँच के शामियाने मिले।

अमीर की शायरी से गुज़रते हुए आप उसी ज़िंदगी की कड़ी धूप में काँच के शामियाने से होकर गुज़रते हैं। मेरे लिए यहाँ हिंदी-उर्दू का मसला बिलकुल बेमानी लगने लगता है। डॉ. कुँवर बेचैन और अमीर क़ज़लबाश एक ही शामियाने के नीचे खड़े दिखाई देते हैं। यह अलग बात है कि ज़िंदगी देखने का उनका नज़रिया छोटा-बड़ा यानी बिलकुल अपना होता है। यह निजता की पहचान अमीर की शायरी को बुलंदियों की तरफ़ लेकर चली है।

वह दिनोंदिन अभी और बुलंद होती जाएगी, इसका मुझे यक़ीन है। कुमार पाशी ने उन्हें ‘तेज़ रफ़्तार मुसाफ़िर’ कहा है। अगर उनके इस कथन में अपना यक़ीन जोड़ दूँ तो ज़ाहिर है कि वह बुलंदी बड़ी तेजी से उनकी तरफ़ बढ़ती आ रही है।
ज़िंदगी की अनुभवजन्य सच्चाइयों ने अमीर के सोचने में एक तटस्थता भी पैदा की है, जिसके तहत वह दुनिया से एक तमाशबीन की तरह बातें करता है :

जब डूब ही जाने का यकीं है तो न जाने
ये लोग सफ़ीनों से उतर क्यूँ नहीं जाते।

इस तमाशबीनी में भी अपनी संस्कारशीलता का स्वाभिमान अमीर की ताकत है और तलाश भी। वे खुद्दारी की कद्र भी करते हैं और खुद्दारी जीते भी हैं। खुद्दारी का यह नशा उनकी आँखों की गहराइयों में धँसा बड़ी आसानी से दीख जाता है। पूछो तो कहेंगे :
किसको बताएँ कब से हम ज़िंदगी के राही
फूलों की आरजू में काँटों पै चल रहे हैं।

और यह काँटों पै चलना उनके लिए यक़ीनन एहसास की नयी ज़मीन पर नये फूलों के खिलने की पूर्वपीठिका है। यक़ीन भी मामूली नहीं, दूसरों के दिलों में भी यक़ीन भर देनेवाला :

मेरे जुनूँ का नतीज़ा ज़रूर निकलेगा
इसी सियाह समन्दर से नूर निकलेगा

अमीर की शायरी की मुकम्मल तस्वीर तब बनती है जब उनकी ग़ज़लों के साथ उनकी नज़्मों के अंदर भी झाँका जाये। कई बार यह लगता है कि अमीर अपनी ग़ज़लों से ज़्यादा अपनी नज़्मों में बोलते हैं, कई बार उन नज़्मों में अमीर की ख़ामोशी बोलती है। मंज़र देखें :
मैं इक ऐसा शजर हूँ
जिसकी शाख़ों पर बसेरा है
परिन्दों का न फूलों का
मैं इक ऐसी इमारता हूँ
कि जिसके बंद दरवाज़ों पै पहरा है
मुसलसल जानलेवा इक ख़ामोशी का

और इसी कैनवास में अपनी तस्वीर उकेरते हुए अमीर उस सच्चाई तक पहुँचते हैं जो सूफ़ियों के हक़ में महफूज़ मानी जाती है :
मैं इक ऐसा मुक़द्दर हूँ
जिसे तहरीर करने में
ख़ुदा मसरूफ़ है अब तक
मुझे जीना पड़ेगा जुल्मतों के दश्तो-सहरा में।

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