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संसार-चक्र

दुर्गा प्रसाद खत्री

प्रकाशक : लहरी बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 1984
पृष्ठ :116
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15393
आईएसबीएन :0

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एक बहुत बड़े रईस को रोजगार में भारी नुकसान का सामना करना पड़ा जिसकी वजह से वह कर्ज में लद गया। दीवाले से बचने के लिये मजबूरी में उसने एक सुन्दर युवती की बहुत बड़ी रकम चुरा ली |
तब फिर क्या हुआ ? क्या वह पुलिस और कानून के चक्कर से बच सका?

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रहस्यपूर्ण जासूसी उपन्यास बाबू दुर्गाप्रसाद खत्री

एक बहुत बड़े रईस को रोजगार में भारी नुकसान का सामना करना पड़ा जिसकी वजह से वह कर्ज में लद गया। दीवाले से बचने के लिये मजबूरी में उसने एक सुन्दर युवती की बहुत बड़ी रकम चुरा ली |
तब फिर क्या हुआ ?
क्या वह पुलिस और कानून के चक्कर से बच सका?


॥श्री॥
संसार - चक्र
पहिला बयान

"देखो रामलाल, मेरी तो बहत इच्छा थी कि तम व्यापार में मेरी सहायता करते, मेरी कोठियों और मिलों का काम सम्हालते, और मेरे बैंक के डाइरेक्टर बन कर मेरे बोझ को कुछ कम करते, और तुम्हारी माँ की भी यही इच्छा थी, मगर मैं देखता हूँ कि तुम्हारी इच्छा कुछ और ही है। तुम्हें कई दफे कई तरह के कामों में मैंने लगाना चाहा, पर तुम बराबर सब तरफ से नाक भौं सिकोड़ते ही नजर आए। आखिरी दफे जो बात तुमने कही उससे यह भी साबित हुआ कि तुम मेरे सब कामों में केवल मेरी सहायता ही न करना चाहते हो सो बात नहीं बल्कि तुम्हें इस तरह के कामों से नफरत भी है। मेरी समझ में तो सच बात यह जान पड़ती है कि तुम मेहनत करने से भागते हो और इसीलिये दस तरह के बहाने निकाला करते हो, यह मैं अच्छी तरह समझ गया है और यही समझ कर मैं इस नतीजे पर पहुंचा है कि भले ही तुमने एम 0 ए 0 पास कर लिया हो और यूनिवर्सिटी भर के सब लड़कों में अव्वल आए हो, फिर भी तुम्हारी शिक्षा अधूरी है। तुम्हें अभी दुनिया की, दुनिया में रहने वालों की, और दुनिया की जरूरतों की, कोई भी खबर नहीं है, और न तुम यही जान पाए हो कि रुपया क्या चीज है, या उसकी असली कीमत क्या है। अब तक बराबर जरूरत से ज्यादा रुपया तुम्हें मिलता रहा है, और तुम शायद यह भी देख या समझ रहे हौ कि जब मैं मरूंगा तो मेरी सब दौलत तुम्हारे ही पास आवेगी, इसीलिये रुपए की ठीक ठीक कीमत अभी तक तुम्हें मालम नहीं हुई है और इस तरह पर भी तुम्हारी शिक्षा अधूरी है। जिसे पूरा करने का कर्तव्य मेरा है।
“अपने उस कर्तव्य को मैं ऐसे ढंग पर पूरा करना चाहता हूँ कि जिसमें तुम्हें तकलीफ भी न हो, अथवा कम से कम तकलीफ हो, और मेरा मतलब भी सिद्ध हो जाय। देखो, इस लिफाफे में बीस हजार रुपए के नोट हैं। तुमने कई दफे यह इच्छा प्रगट की है कि तुम पृथ्वीपर्यटन करना चाहते हो। मैं भी इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि तुम्हें ऐसा ही करना चाहिये। दुनिया भर में एक बार घूम लेने से तुम्हारी आँखें, जो अभी तक बन्द हैं, खुल जायेंगी और तुम्हें मनुष्यों का, चीजों का, समय का और रुपयों की कीमत का, ठीक ठीक ज्ञान हो जायगा। यद्यपि तुम्हें दूर देशों को भेजने में तुम्हारी माँ की छाती फट जायगी और मुझे भी अत्यन्त कष्ट होगा, फिर भी मैं तुम्हें हुक्म देता हूँ कि तुम इस देश के बाहर निकलो और दुनिया भर में जहाँ चाहो घूमो फिरो। जैसे चाहे सैर सपाटा करो, जैसे चाहो रहो, जैसे चाहो बर्तो। सिर्फ तीन कैद मैं तुम्हारे ऊपर लगाता हूँ। तुम्हें अकेले जाना होगा, तुम्हें साल भर -तीन सौ पैंसठ दिनों के अन्दर, अपना सफर खतम करना होगा, और तुम्हें उस बीस हजार रुपये के भीतर अपना खर्चा रखना होगा। इन तीन कैदों के भीतर रहते हुए तुम जो चाहे करो, जहाँ चाहे घूमो, पर साल भर बाद मेरे पास लौट आओ। याद रक्खो, कि तुम्हें अकेले जाना रहना और लौटना पड़ेगा, और इस बीस हजार के ऊपर एक पैसा भी मुझसे न मांगना होगा। यही तुम्हारी शिक्षा है, यही तुम्हारी परीक्षा है। तुम्हें इसी आखिरी स्कूल में मैं भेज रहा हूँ, आखिरी इम्तिहान पास करने को कह रहा हूँ। इतना समय और इतना रुपया खर्च करके तुम मेरे पास लौट आओ और तब जैसे जो कहोगे, जिस प्रकार रहना चाहोगे, जैसे दिन बिताना चाहोगे, ठीक वैसे ही करने की इजाजत मैं दे दूंगा।
“एक बात और याद रक्खो। इतना रुपया, बीस हजार, तुम जैसे चाहे खर्च कर दो और जब चाहे खर्च कर दो, पर इससे ज्यादा एक दमड़ी की भी उम्मीद साल भर तक मझसे न करना। भले ही इसमें से बचा कर कौडी भी न लाओ, इसके ऊपर मुझसे मत मांगो।।
“साल भर तक तुम कहां जाते हो क्या करते हो, सब पूरी तरह से तुम्हारी इच्छा में रहेगा। मैं तुमसे कुछ न पूछूंगा, कुछ न टोकूँगा। सिवाय इसके कि तुम समय समय पर अपने हाल चाल की सूचना मुझे देते रहोगे। अगर इतने समय को अच्छी तरह काट के, भली भाँति, बिना तंगदस्ती में पड़े, तुम मेरे पास लौट आए, मैं समझूगा अक्लमन्द हौ, इम्तिहान पास कर आए। अगर किसी मुसीबत में पड़े, मैं समझूगा सबक सीख रहे हो।
“यह एक पोथी है। इसमें दुनिया भर के मुख्य मुख्य स्थानों का हाल, वहाँ के रास्तों का विवरण, होटलों आदि का परिचय, रेल और जहाज भाड़ा आदि दिया हुआ है। इससे मदद लेना चाहो लेना न चाहो मत लेना। तुम्हारा असबाब बँधा तैयार है। तुम्हारी मां वह देखो आ रही हैं। बस इसी वक्त हम लोगों से बिदा होवो और अपने साल भर के सफर पर रवाना हो जाओ, मगर याद रखना, एक बरस तक और यहाँ लौट आने तक, बस इसी बीस हजार रुपये में तुमको अपना पूरा काम चलाना है। इसके सिवाय मुझसे एक दमड़ी की उम्मीद न रखना, न रखना। समझे!!" ...
रामलाल को अपने पिता की इस लंबी चौड़ी स्पीच का एक का एक-एक अक्षर याद था। इसलिये याद था कि उस समय उसे अपने पिता की वे खरी खरी बातें, वह कुछ रूखा सा ढंग, कुछ अरुचिकर सा जान पड़ा था। यद्यपि अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर वह उस बीस हजार रुपये को ले के उसी घड़ी अपने घर से निकल खड़ा हुआ था, मगर अपने दिल में उसने कितनी ही तरह की बातें सोची थीं। पहिले तो यही सोचा था कि एक बरस क्या मैं पाँच बरस तक न लौटूंगा। फिर सोचा था, ये बीस हजार के बीस हजार ज्यों ला के बाबूजी.को वापस दूंगा और खुद मेहनत मजूरी करके, इंजिन में कोयला झोंक के, जरूरत पड़ी तो भीख मांग के दुनिया भर घूमूंगा। फिर सोचा था कि इसी बीस हजार से किसी दूर देश में जा के व्यापार करूँगा और करोड़पति हो के घर लौहँगा। इसी तरह की न जाने कितनी कितनी बातें वह सोच गया था, कितने कितने बाँधनू बाँध गया था कितने खयाली पुलाव पकाता हुआ वह घर से बाहर निकला था।
पर आज कहाँ थे वे ख्याल, कितनी दूर वे इरादे, कहाँ थे वे बीस हजार, कहाँ थे उसके पिता, कहाँ था उसका घर, कहाँ था उसका देश? कितनी दूर?
आज अपने घर से हजारों कोस दूर, समुद्र-तट की निर्जन बालू पर बैठे ठंढ में सिकुड़ते हुए रामलाल यही सब सोच रहा था। अपने पिता की एक-एक बात उसके ख्याल में आ रही थी। अपने ऊपर बीती हुई एक-एक घटना, अपना एक-एक काम, अपने इस सफर का एक-एक दिन उसे याद आ रहा था।
किस हिम्मत, किस जोश के साथ. उसने अपना सफर शरू किया था! दुनिया की सैर करने के पहिले उसने अपने मुल्क हिन्दुस्तान की सैर करने की
सोची थी। अपने पैत्रिक स्थान लाहौर से आरंभ करके उसने भारत भर की एक . परिक्रमा करी थी और इसके मुख्य नामी तीर्थों और दर्शनीय स्थानों को देखा था। इस लंबी यात्रा की अन्तिम छोर द्वारिकाजी से जहाज पर चढ़ जिस समय वह कराची पहँचा उस समय उसकी जेब में सोलह हजार रुपये थे और साल भर की मुद्दत में से सात महीने से भी अधिक बचे उसका मन उछल पड़ा था और उसकी बड़ी गहरी तबीयत हो आई थी कि यहां से सीधा लाहौर का टिकट कटावे और अपने माता पिता का एक बार दर्शन कर आवे, पर बड़ी मुश्किल से उसने अपने मन पर काबू किया था और कराची में कुछ दिन ठहर कर आगे के सफर पर रवाना हो गया था। उसके पिता ने कहा था कि साल भर के पहिले घर न लौटना, - वह साल भर पूरा पूरा बिता के ही घर लौटेगा। कराची से ही वह आगे के वास्ते, पूरे संसार की सैर को, निकल पड़ा था।
मगर उसके बाद का सफर उसका कैसा दुःखजनक हुआ था ! जहाज पर ही उसकी भेंट एक स्पेनिश दंपति से हो गई थी और उनके फेर में पड़ के उसने क्या-क्या कष्ट नहीं भोगे या क्या-क्या दुःख नहीं उठाये थे ! आज, इस समय, अपने देश से इतनी दूर, असहाय निरवलंब निराशापूर्ण बैठा हुआ रामलाल बार बार यही सोच रहा था कि उसके पिता की बात कितनी सही थी, उसकी शिक्षा कितनी अधूरी थी, दुनिया के आदमियों का, रुपये का, रुपये की असली कीमत का, उसका ज्ञान कितना अधूरा था ! किस प्रकार उस स्पेनिश दंपति ने उसे अपने जाल में फंसा उसको कहीं का न छोड़ा था इसे वह आज बखूबी समझ रहा था, पर आह ! पर अब इस बात को समझने ही से लाभ क्या !
रामलाल को उस दंपति की एक-एक बात याद आ रही थी। उसे याद आया कि किस तरह उस स्त्री ने अपनी सुन्दरता का जाल उस पर फेंक उसकी मूर्खता और अनुभवहीनता का लाभ उठाया और तब दोनों पति पत्नी ने, रामलाल अब यही सोचा करता था कि वे दोनों पति पत्नी थे भी कि नहीं, उसका सब रुपया झंस लिया था। मुख्तसर यह कि पहिले तो उस दंपति ने उसे जूआ खेलने का चस्का लगाया तब शराब का शौकीन बनाया और इसके बाद उस स्पेनिश पुरुष ने रामलाल पर अपनी पत्नी का प्रेमी होने का दोष लगाया। एक दिन बेमौके गिरफ्तार करके रामलाल की ऐसी फजीहत की थी कि जिसका नाम। अपने पास का बहुत कुछ रुपया दे के किसी तरह उसने उनसे अपना पिंड छुड़ाया था....

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