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स्वर्ग-पुरी

दुर्गा प्रसाद खत्री

प्रकाशक : लहरी बुक डिपो प्रकाशित वर्ष : 1984
पृष्ठ :184
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15398
आईएसबीएन :0

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उस अर्ध विक्षिप्त वैज्ञानिक ने इस धरती पर एक स्वर्ग-पुरी बनाई जिसमें सोने के फाटक, चाँदी के पुल, और शीशे के मकान थे। चुन-चुन कर विद्वान और गुणी जनों को इकट्ठा किया और सचमुच ही इसे स्वर्ग-पुरी बना दिया होता, यदि यहाँ नर्क के कीड़े न पहुंच जाते।

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वैज्ञानिक उपन्यास

॥ श्रीः॥
स्वर्ग पुरी
[१] लोहे का आदमी

"अरे अरे, उधर देखो उधर, उस फुहारे के पीछे। वह भादमी देख रहे हो ? किस तरह चल रहा है, ऐंठ ऐंठ के।"
"आदमी हो कि पैजामा। आँखों के नाखून कटवा डालो। दिन में भी दिखाई नहीं पड़ता क्या तुम्हें।"
"क्यों, मेरी आँखों को क्या हो गया है ?" "वह आदमी है जिसे दिखा रहे हो तुम ?" "आदमी नहीं तो क्या हैवान है?"
"हां, बल्कि हैवान से भी बदतर। वह है लोहे का पुतला, बिल्कुल कल पुों के जोर से चलने वाला।"
"चलो हटो, मजाक मत करो मुझसे। भले चंगे आदमी को लोहे का पुतला बना रहे हो। क्या अन्धा समझा है मुझको।"
"नहीं नहीं, न मजाक कर रहा हूं न अन्धा बना रहा हूं तुमको। जरा गौर से देखो न, खुद ही समझ जाओगे कि मैं सही कह रहा हूं या गलत। उसकी चाल तो देख ही रहे हो, जरा हाथों पर भी गौर करो, किस तरह पर हिल रहे हैं और गर्दन देखो, जब कभी किसी तरफ को घुमाता है तो कैसा झटके के साथ घूमती है।"
"हाँ अब तुमने कहा तो कुछ कुछ शक मुझको भी होने लगा, मयर नहीं यार, वह देखो, उस गोरे आदमी से हाथ मिलाया उसने और कैसा हँस हँस के बातें कर रहा है। नहीं नहीं, यह पुतला पुतली नहीं बेशक आदमी ही है।"
"अन्धे हो गये हो तुम, अच्छा चलो पास चल कर देखो।"
यह बातचीत कराची के म्युनिसिपल गार्डेन्स की एक वेन्च पर बैठे दो आदमियों के बीच हो रही थी। संध्या का समय था और बाग में टहलने और हवा खाने के लिए पाने वालों की भीड़ पल पल पर बढ़ती जा रही थी। घास के खुशनुमा रमनों पर सुन्दर हँसमुख लालक खेलते हुए दौड़ धूप मचा रहे थे, बीच की बनावटी नहर में दो तीन किश्तियों पर रंग बिरंगी साड़ियाँ पहने कुछ युवतियां ठंढक का आनन्द ले रही थी, और कितने ही जोड़े पानी से छिड़काव की हुई सड़कों पर हाय में हाथ मिलाए चेहलकदमी के थे। जिन दो पादमियों में उपरोक्त बातचीत हो रही थी वे दोनों ही पढ़े लिखे, सून्दर, और कपड़े लत्त से अच्छी स्थिति के जान पड़ने वाले नवयुवा थे जिनमें से एक की उम्र कोई अट्ठाईस या उनतीस वर्ष को और दूसरे की इससे कुछ कम ही होगी। कम उम्र वाले का नाम साहिवदास या और अधिक उम्र वाले का श्रीधर । ये दोनों ही बचपन के दोस्त और साथी थे और आज कल भी एक साथ ही, एक ही सरकारी दफ्तर में, ऊँचे पोहदों पर काम करते थे, घर के भी समृद्ध और भरे परे थे। विशेष हाल इनका अगर जरूरत पड़ी तो मागे बयान किया जायगा।
श्रीधर की बात सुन साहिबदास ने कहा, "चलो पास चल के भी देख लू, पर मुझे तो विश्वास नहीं होता कि वह लोहे का पुतला होगा और हाड़ मांस का हम लोगों ही जैसा हट्टाकट्टा जवान नहीं।"
दोनों दोस्त उठे और टहलते हुए एक ऐसी रविश पर चल पड़े जो घूमती हुई आगे जाकर उसी सड़क से मिलती थी जिस पर से वह विचित्र आदमी पा रहा था। इन दोनों ने अपनी चाल तेज रक्खी और इसीलिये उस आदमी के वहां पहुंचने के कुछ पहिले ही उस जगह पर जा पहुंचे जिधर से वह पाने वाला था। उस समय श्रीधर ने उस विचित्र आदमी से पांच छः कदम आगे आगे चलते आने वाले एक दूसरे अधेड़ व्यक्ति की तरफ इशारा करके अपने दोस्त से पूछा, "अच्छा वतानो उस अधेड़ व्यक्ति को पहिचानते हो जो तुम्हारे ऐंठेखों के आगे पागे आ रहा है?"
साहिबदास ने जवाब दिया, "नहीं, मैं तो नहीं जानता। कौन है वह? शकल सूरत से तो कोई डाक्टर या वकील जान पडता है।" श्रीधर बोले, "कैसे . 'प्रादमी हो तुम जो इन प्राफेसर गामट तक को नहीं पहिचानते। क्या इनका कहीं कभी नाम भी नहीं सुना तुमने?"
साहिबदास चौंक कर बोले, "प्राफेसर गामट। अरे वही जिनके लेख साइन्स मैगजीन में निकला करते हैं। जो वलिन युनिवर्सिटी में रेडियोलाजी के अध्यापक हैं। और जिन्होंने कितनी ही तरह की आटोमेटिक मशीनें ईजाद की हैं। ये हिन्दुस्तान कब लौटे?"
श्रीधर ने जवाब दिया, “महीने भर से ऊपर हुआ यहाँ आए इन्हें। पात्रो मैं तुमको इनसे इन्ट्रोड्यूस करा दूं, बड़े सज्जन और विद्वान आदमी हैं, और घमंड तो इन्हें छू तक नहीं गया है।"
वह अधेड़ व्यक्ति अव इनके पास पहंच गया था। श्रीधर साहिबदास को साथ पाने का इशारा कर आगे बढ़े और टोपी उतार प्राफे. सर से साहब सलामत की। उन्होंने बड़े प्रेम से हाथ मिलाया और तब कहा, "वाह जी मिस्टर श्रीघर। तब के गये गये अब हफ्तों बाद नजर आए। मुझे भूल गये थे क्या?"
श्रीधर ने जवाब दिया, "नहीं प्राफेसर, मैं भला नहीं था बल्कि गवर्नमेन्ट के काम से कराची के बाहर चला गया था, इसी से भेंट न कर सका, आज ही लौटा हूं।"
तब अपने दोस्त की तरफ घूम के बोले, "ये मेरे बहुत बड़े दोस्त और लड़कपन के साथी हैं जिन्हें आपसे इन्ट्रोड्यूस कराना चाहता हूं। इनके पिता से और मेरे पिता से बहुत गहरी दोस्ती थी। इनका नाम मिस्टर साहिबदास है । साहिब, आगे बढ़ो! देखो ये ही वे मशहूर प्राफेसर गामट हैं।"
प्राफेसर गामट ने बड़ी प्रसन्नता के साथ साहिबदास से भी हाथ मिलाया। इसके बाद श्रीधर बोले, "प्राफेसर गामट, ये मेरे दोस्त कुछ संशय में पड़ गये हैं, इन्हें ठीक तरह से समझ में नहीं आ रहा है कि यह जो आपके पीछे आपका नौकर चला आ रहा है यह आदमी है या कुछ और।"
वह विचित्र आदमी इन प्राफेसर गामट के पीछे पीछे ही चला पा रहा था और अब उनको रुकते पा उनसे कोई चार पाँच कदम पीछे ही रुक भी गया था। श्रीधर की बात सुन प्राफेसर गामट जोर से हँसे और पीछे घूम के अंगरेजी में बोले, "मिस्टर स्टीलमैन! प्रागे पाइये और इन मिस्टर साहिबदास से परिचित हूजिये। ये मेरे दोस्त के लड़के इन श्रीधर के बहुत पुराने साथी हैं- मिस्टर साहिबदास, मिस्टर स्टीलमैन।"
वह विचित्र प्रादमी प्रोफेसर की बात सुनते ही आगे बढ़ा, बाँए हाथ से उसने अपने सिर की हैट उतारी और दाहिना हाथ आगे बढ़ा साहिवदास के बढ़ते हुए हाथ में दे दिया। साथ ही उसके मुंह से अंग्रेजी में स्पष्ट निकला-"हाऊ डू यू डू। सो ग्लैड टु मीट यू।"
पर हमारे साहिबदास की इस समय विचित्र हालत हो रही थी। यद्यपि इतना वे समझ गये थे कि यह व्यक्ति जिसको 'मिस्टर स्टीलमैन' के नाम से प्राफेसर गामट ने पुकारा था हाड़ मांस का ठीक उनके जैसा मनुष्य नहीं है पर यह समझते भी उनको कठिनता हो रही थी कि यह लोहे का पुतला होगा। ठीक मनुष्य जैसी ही....

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