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ठीक ठीक याद नहीं...

डॉ. सुषमा गजापुरे

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15540
आईएसबीएन :978-1-61301-683-1

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सुषमा जी की हृदयस्पर्शी कवितायें

मेरी बात

अनुभूतियों की मनमानियाँ.....

मैं आज फिर आपके साथ हूँ, अपनी पाँचवीं किताब के साथ किन्तु इस बार संपादिका के रूप में बिलकुल भी नहीं, बल्कि आज मैं आपको अपनी अनुभूतियों की मनमानियों के किस्से सुनाना चाहती हूँ, कुछ अलग अंदाज़ में, कुछ गीतों के रूप में, कुछ छंदमुक्त रचनाओं के साथ।

कागज़ और कलम के बीच बड़ा पुराना रिश्ता है… एक सशक्त बंधन है… भावनाओं का… अनुभवों का... और संवेदनाओं का... जो शब्द-विन्यास के माध्यम से रचनाओं में ढलता है… और अंततः रचनाएँ अपने पाठकों के हृदय में उतरने का मार्ग खोज ही लेती हैं। बड़ी कलाकारी होती है शब्दों में… जो हृदय में अंकुरित कुछ विशेष भावों को शब्दों में पिरोकर... एक हृदयस्पर्शी रचना को साकार कर देते हैं और रचनाकार और पाठकों के बीच कब सेतु बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता।

भावनाएँ या संवेदनाएँ सदैव मुक्त रहना चाहती हैं... जब भी हम उन्हें बाँधने का प्रयास करते हैं तो वे उकता कर अपनी स्वाभाविकता की पोशाक का त्याग कर देती हैं... और फिर एक निर्जीव रचना हमारे समक्ष एक बेजान और भावहीन आवरण धारण किए हुए... एक अपरिचिता के रूप में खड़ी रह जाती है... अर्थहीन, शून्य-सी रचना... पढ़ते तो हैं सब उसे... किन्तु पाठकों की उनसे अंतरंगता स्थापित नहीं हो पाती।

मेरी कविताएँ मेरे जीवन का अभिन्न अनुभव है... जैसा देखा, वैसा सोचा... और जैसा सोचा, बस वैसे ही लिख दिया। आडंबर से परहेज है उन्हें... उन्मुक्त रहना चाहती हैं मेरी रचनाएँ और शायद इसीलिए आपको मेरी रचनाओं में एक आवारापन... एक बंजारापन स्पष्ट रूप में दिखाई देगा तो आश्चर्यचकित मत होइएगा क्योंकि मेरी रचनाओं की स्वाभाविकता को छेड़ने का दुस्साहस मुझमें तो है ही नहीं इसलिए आलोचनाओं की समस्त संभावनाओं को मैंने स्वयं ही सहर्ष स्थापित किया है।

मेरी रचनाएँ सहज, सरल प्रवाह में बहना चाहती हैं। शब्द-विन्यास के गणितीय पहरे, व्याकरण की कठोर परिधियाँ एवं तुकांत शाब्दिक छंद की वर्जनाएँ मेरी अनुभूतियों को बाँधने में अक्षम हैं... मुझे प्रयोग करना अच्छा लगता है लेकिन प्रयोग ऐसे कि जो भाव से जुड़े हुए हों... भाव या अनुभूतियों के साथ ईमानदार रहना एक रचनाकार के लिए नितांत आवश्यक है... जो अन्तर्मन कहे… वही करो… वही लिखो...। शब्दों को आडंबर और जटिलता के कैद से मुक्त रखना मेरा स्वभाव है।

कुछ बहकी-बहकी-सी हैं मेरी रचनाएँ... कभी पद्य बनने को आतुर तो कभी गद्य को टटोलती... कभी मितभाषी तो कभी खूब बतियाती। मूलतः मैं स्वभाव से बेहद अनुशासित हूँ किन्तु मेरी रचनाएँ थोड़ी जिद्दी, थोड़ी हठीली हैं... इन रचनाओं की अनुशासनहीनता ही मेरी अनुभूतियों का प्राण है... उनकी सजीवता है। जब हृदय के सागर में हलचल होती है, भावनाएँ और संवेदनाएँ उमड़-घुमड़ कर बरसना चाहती हैं...

शब्दों में ढलना चाहती हैं तो ऐसे में कहाँ रहती है सुध इन गणितीय समीकरणों की... हृदय के सहज-सरल प्रवाह को उस समय रोकना मेरे वश में नहीं होता... चाहे इस प्रवाह में चोटिल क्यों न हो जाऊँ किन्तु मौलिकता मेरा साथ नहीं छोड़ती।

विषय प्रतिपादन और अभिव्यंजना यही तो मेरी रचनाओं की पूंजी है... आसपास का जीवन हो अथवा जीवन के कटु एवं आनंदित अनुभवों का विस्तार हो... सृष्टि का शृंगार हो या निसर्ग का नियमन हो… मौसम की करवटें हो या स्वप्नों की उड़ान हो… दुनियादारी का खोखलापन हो… या अपने अपनों का दोहरापन… प्रेम का दीवानापन हो या वेदनाओं का हाहाकार... यह सब मुझे भीतर से आंदोलित करता है लिखने के लिए इसलिए मेरी हर एक रचनाओं में आप स्वयं को पाएंगे। ये रचनाएँ मेरी नहीं, आपकी ही तो हैं।

कोई भी रचना हो, चाहे कविता हो, नज़्म हो, शेर हो, गीत हो, कहानी हो, उपन्यास हो, या छंद हो, इन सभी को हम परिभाषाओं में नहीं बाँध सकते क्योंकि हर रचना और रचनाकार की अपनी-अपनी स्थितियाँ और परिस्थितियाँ, अनुभव, आसपास का वातावरण, व्यक्तिगत रुचियाँ, व्यक्तिगत दृष्टिकोण एवं सभी के अपने-अपने भिन्न स्वभाव होने के कारण उनके लेखन में भी विविधता परिलक्षित होना स्वाभाविक है। इसलिए किसी भी रचना को अपने दृष्टिकोण मात्र से ही न देख कर, उसके रचनाकार की दृष्टि का भी ध्यान रखना आवश्यक है।

मेरी रचनाओं की प्रसव-पीड़ा मेरी व्यक्तिगत है... उसे कोई अन्य नहीं भोगता इसलिए आलोचनाओं की संभावना शत-प्रतिशत बनी ही रहती है।

मेरी रचनाएँ मेरे जीवन की यथार्थ-शाला है... जो भोगा, जो जिया, जो सहा, जो देखा, वह सब आपके सामने है। मैं छंद-युक्त कविताओं और गीतों की विरोधी नहीं हूँ, इसलिए आपको मेरी कुछ रचनाएँ छंद-युक्त भी मिलेगी।

मित्रो ! शब्द केवल शब्द नहीं होते, वे हमारे जीवन को अर्थ देते हैं, शब्दों की जादूगरी इतनी मोहक, आकर्षक और वास्तविक होती है कि वह अपने माध्यम से पाठकों से मित्रता स्थापित कर लेती है, याराना कर लेती है।

प्रेम में डूबी हुई बहकी-बहकी, दर्द में पिघली-पिघली, मौसम के तराने सुनाती, अनुभवों से बतियाती, पीड़ा के सघन वन में विचरती, जीवन के मानवीय पक्षों के विभिन्न आयामों को छूती, सृष्टि के अपरिमित साम्राज्य को निहारती, संवेदनाओं को टटोलती, आत्मिक प्रणय-संगीत में उन्मुक्त थिरकती... जी हाँ, मेरी कुछ रचनाएँ जो मेरी नहीं, आपकी अपनी हैं इसलिए आपको सस्नेह, सप्रेम और ससम्मान समर्पित कर रही हूँ... इस आशा के साथ कि यह आपको भी अपनी-सी लगें....।

- डॉ. सुषमा गजापुरे ‘सुदिव’

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