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नारी विमर्श >> अरुंधती

अरुंधती

ऋता शुक्ल

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1561
आईएसबीएन :81-7721-061-0

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास...

Arundhati

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक ऐसा संस्कारप्रद और ह्रदयस्पर्शी उपन्यास जो ऐसी नारी अरूंधती की जीवन कथा है, जिसका संपूर्ण जीवन विषाद पीड़ा और दुःख भोगते ही बीता,परंतु वह अपने संस्कारों को सुरक्षित रखते हुए न केवल अपना जीवन बल्कि अन्य अनेक जनों के जीवन को भी सुंदर व संस्कारवान् बनाने में लगी रही। यह कृति पठनीय तो है ही,संग्रहणीय भी है।
अपने बाल प्रश्नों की अनहदता से घर-आँगन को मुखरित करती ‘वैष्णवी ऋषिका’ और अपनी पोपली हँसी से दिन भर की क्लांति हर लेनेवाले ‘राजर्षि नीलरुचि’ के लिए ही है वात्सल्यमयी —यह ‘अरुंधती’ !

भूमिका

‘अरुंधती’ और मैं

बचपन में अम्मा की आँखों से अरुंधती को एकटक निहारती थी मैं।
‘‘अम्मा, क्या ये वही अरुंधती हैं, राम के गुरु वसिष्ठ की प्रिया ?’’
‘‘हाँ बचिया, इन्हें देखो तो जी जुड़ा जाता है, अहिवात बढ़ता है।’’
अक्षय सुख-सौभाग्य की कामना से नव-विवाहिताएँ सबसे पहले सप्तर्षि-मंडल के पुच्छ-भाग में बीचोबीच अवस्थित इस नन्ही जुन्हाई को देखा करती हैं। इसका दर्शन शुभद भी है और संकल्पप्रद भी।
संबंधों के अनुदिन क्षरण के इस युग में अरुंधती का स्मरण...। है न एक अजूबा-सी बात।
मेरा वश चले तो कुम्हार के चाक की गति उलट दूँ। गंगा मैया की छाती पर नाव खेते धीरू मल्लाह से विनती करूँ-
धारा के विरुद्ध बहना सीखो, धीरू भाई ! इतनी तेजी भी क्या कि डाँड़ टूट जाए, तुम्हारी छोटी सी डोंगी खर-पतवार में उलझकर दिशाविहीन चक्कर काटती रह जाए और तुम कुछ न कर पाओ।

यही असहायता की दशा क्या हमारी—आपकी, हम सबकी नहीं है ? घर-बाहर का बिखराव, अपने भीतर छिपी अनहदता का सिमटाव, एक बूँद आस्था पर टिकी जिजीविषा को ‘आउटडेटेड’ कहकर नकार देने का भाव....!
जीवन-सुख की खोज में भटकते मनुष्य का ‘अहं’ अपने चरम पर पहुँच चुका हो, भौतिकता के अंध-विवर में प्रवेश करने के लिए आतुर नर-नारियों की देह-यात्रा दुस्तर होती चली जा रही हो, ऐसे समय में सहसा स्मरण आती हैं—अरुंधती ! अयोध्या के राजकुँवरों की गरिमामयी राजमाता...!
त्रेता युग के ज्ञान-गुरु वसिष्ठ ने श्रीराम को आत्मज्ञान की शिक्षा दी थी—रघुनंदन, पौरुष की शुभता को सिद्ध करने का उत्साह ही सबसे बड़ा योग है। अशुभ से विमुख होने के लिए मनोबलपूर्वक प्रयत्न करना होता है। जीवनपर्यंत ‘स्व’ का संधान ही सबसे बड़ा शांतिकारक तत्त्व होता है।

राम को ‘स्थितप्रज्ञता’ का मूल मंत्र देनेवाले आचार्य की भार्या अरुंधती ने पति की योग-मुद्राओं के साथ कितना सहज सामरस्य स्थापित किया होगा ! विदुषी ऋषिकाओं में अग्रगण्य मानी जानेवाली अरुंधती ने पति की कठिन योग-चर्या के साथ अनुपमेय एकरूपता कायम की, उसे अतिरेकवादी भले ही ‘बुर्जुआ’ पुरातनपंथी या फिर स्त्रियों की दासता का एक उदाहरण बताकर परे हटा दें, पर ‘अरुंधती’ का सोच इन सभी मनःस्थितियों से बहुत आगे है।
संसार के कर्मों से मुक्त हो जाने की लालसा उसकी नहीं, वह अपने भीतर छिपी बीजरूपा शक्ति का आवाहन करना जानती है। जाति-धर्म और सामाजिक रुढ़ियों का परिहार करती हुई वह एक नए ‘शांति-तीर्थ’ की परिकल्पना करती है, जहाँ माता-पिता के प्रेम से वंचित एक अभिनव शिशु-संसार उसके अकूत ममत्व की प्रतीक्षा में है।

अपने दुस्सह अतीत से उबरकर नए शुभ कर्मों में प्रवृत्त हो जाना ही सबसे बड़ी जिजीविषा है। अरुंधती शिंजिनी, मयंक, सुरम्या, स्वराज जैसे बालक-बालिकाओं की गुरुमाता है। वह धारा के विरुद्ध अपनी जीवन-नौका संतरित करती जा रही है। वैसे भी हर अरुंधती को अपनी शिरोवेदना का उपचारक स्वयं बनना होता है।
अपनी भावी पीढ़ी की उँगली थाम मेरी अरुंधती भी समस्त कर्मों के बंधन में बँधी तपस्यारत है।
अपनी इस अभिनव कृति को मैं ऋषिका, राजर्षि के नाम करती हूँ। ये दोनों संसार की शिशुता का प्रतीक बनें और हर शिशु की मुसकान इतनी ही प्रिय हो-अरुंधती का काया-तप तभी सफल होगा।
-ऋता शुक्ल

अरुंधती

मुक्ति किसे कहते हैं ?
क्या संसार के समस्त कर्मों से छूट जाना ही मुक्ति है ?
क्या अपने चारों तरफ के परिवेश से उबर जाना ही मुक्ति है ?
जीवन के अनुभव जब अनहदता की परिभाषा करने लगें, मन-प्राणों का उद्वेलन भौतिकता की समस्त सीमाओं का अतिक्रमण करने लगे तब मुक्ति-द्वार निकट आता हुए प्रतीत होता है।
राघवानंद गुरुजी ने कैसी सहज युक्ति बताई थी-अनंत आशाएँ अनंत चिंताओं के जन्म का कारण बन जाती हैं। लोक-वैभव की उत्कंठा मृगतृष्णा का प्रतिरूप बनकर आती है। अरुंधती, मन को आडंबर का संकोच देनेवाला कोई भी लौकिक अनुमान अधिक दूर तक साथ नहीं निभाता। भोर के ठीक पहले देख गए स्वप्न दिन भर उनींदापन बेशक छोड़ जाएँ, लेकिन जीवन-सत्य उनके अनुकूल होना चाहकर भी नहीं हो पाता ! तुम अपने आपको सँभालो, अपनी अतिशय भाव-प्रवणता को संवृत्त करो। तुम्हारे भीतर जो बीज-रूपा शक्ति है उसका आवाहन यदि कर पाओ तो...

मन के किसी पुरातन गह्वर में वह अतीत अब तक जीवित था—एक-एक क्षण अपनी ओर खींचता, अपने सर्वशक्तिमान अस्तित्व के प्रमाण देता।
शांति तीर्थ के प्रांगण में शिला-पट्टिका पर बैठी अरुंधती की मुँदी हुए पलकों पर दो-नन्ही हथेलियाँ रुई का फाहा बनकर टिक गई थीं-
‘‘शिंजिनी, क्या बात है, बिटिया ?’’
‘‘बड़ी माताजी, संध्या-प्रार्थना का समय हो गया, गुरु दादाजी आपको...’’ अरे, सच ! स्मृतियों की भँवर ने ऐसे अपने पाश में बाँध लिया था कि वे...नौ वर्षीया शिंजिनी उस क्षण उनकी अभिभाविका बन बैठी थी। गुरु-गंभीर कंठ-ध्वनि—
‘‘बड़ी माताजी, एक बात पूछें—आपको कोई कष्ट है क्या ?’’
‘‘कष्ट...?’’
‘‘नहीं तो...।’’

काशी के अस्सी घाट की सीढ़ियों पर अकेली पड़ी कुलबुलाती मानव-संतान को अरुंधती की ममतामयी गोद मिली थी—
‘कौन छोड़ गया ? किसकी बच्ची है यह ?’
गंगा का शांत तट निरुत्तरित था—लहरों की कानाफूसी साफ सुन पा रही थीं वे—
‘ले जा, अरूंधती ! इसे तेरे अमृतोपम स्नेह की आवश्यकता है। किस ऊहापोह में पड़ी है ? शांति-तीर्थ में इतने बाल-गोपाल हैं, उनके बीच यह भी...’
सुरम्या, शुभदा, स्वराज, मंदाकिनी, मृणाल—सारे बच्चे उनके कक्ष में बिटुरा आए थे—
‘बड़ी माताजी, कौन है यह, क्या नाम है इसका ? यह तो इतनी नन्ही सी है, अकेली कैसे सोएगी ? इसे डर लगेगा तो ?’
सयानी सुमंगला ने उसे अपनी गोद में ले लिया था—
‘इसे मैं पालूँगी ! बड़ी दीदी, क्या सोच रही हैं आप ? ‘हाँ’ कह दीजिए न।’

अकाल वैधव्य से पथराए हुए चेहरे पर मोह की तरल उजास देखती वे अनायास गंभीर हो उठी थीं, ‘लेकिन गुरुजी, उनसे पूछे बिना...’
गुरुजी के उन्नत ललाट पर पहली बार नन्ही-नन्ही सिकुड़नों का जाल था—‘हम संन्यस्त देह-मनधारी हैं बच्ची ! इस गुरुकुल के प्रति सबके मन में सहज पावन भाव है। कल यदि किसी की उँगली उठे—इस अज्ञात, अनाम शिशु को देखकर किसी के मन में संशय जगे तो...’
बड़े गुरुजी को उनके पुराने शिष्य नगर आरक्षी अधीक्षक राकेश चतुर्वेदी ने आश्वस्त किया था, ‘यह दायित्व मेरा है। पंद्रह दिन हो गए, इस बच्ची के विषय में कोई भी पूछताछ नहीं हुई, कोई सूचना कहीं से नहीं मिली। मानवाधिकार के नाते सुमंगला-दीदी को पूरी छूट है—वे इसका पालन-पोषण का दायित्व सँभालें।’
बड़े गुरु स्वामी राघवानंदजी ने नामकरण किया था, ‘भागीरथी की शुभ हिलोर-सी कंठ-ध्वनि है इसकी, इसे ‘शिंजिनी’ कहूँगा मैं !’

अरुंधती की उँगली थामे शिंजिनी प्रार्थना-कक्ष की ओर बढ़ रही थी—निर्भय-आश्वस्त—
‘ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं...’
उस सच्चिदानंद पर ब्रह्म की पूर्णता में कहीं कोई शंका नहीं। गुणन-अवगुणन-चाहे जिस विधि से ‘उस’ के परिमापन का प्रयत्न किया जाए, वह सर्वतोभावेन पूर्ण ही होगा।
‘असुर्या नाम ते लोका....’
वे न जाने कितने ही आसुरी लोक अज्ञान और पीड़ा के गहन अंध-गह्वर की ओर ले जानेवाले-उनसे मुक्त होने का यत्न परमेश्वर का ध्यान मात्र ही है।
अरुंधती जप की मुद्रा में थीं। उनका अतीत भाव-मुद्राओं में प्रतिक्षण विविध आकृतियाँ धारण करता उनके समझ था—जगदीशपुर की कोठी का विशाल परिसर...। लाल चमकीले फर्शवाला शानदार दालान। व्याघ्रमुखी छह जोड़े प्रस्तर-स्तंभों पर टिका हुआ लंबा-चौड़ा बरामदा। बेशकीमती गलीचों, चाँदी के पायोंवाले नक्काशीदार ऊँचे पलंगों से सजे बड़े-बड़े कमरे...।
घर के पिछवाड़े फैला हुआ खूब बड़ा सा बगीचा। आम, अमरूद, लीची, कटहल, जामुन, इमली—घने ऊँचे पेड़ों की बेतरतीब कतारें। बचपन की उफनती हुई यादों का कभी खत्म न होनेवाला सिलसिला।

अरुंधती को अच्छी तरह स्मरण है—बालिका विद्यालय से छुट्टी होते ही बाड़े में बंद गाय की नन्ही सी बछिया कोमली की नकल में कुलाँचे भरती घर की ओर भागने लगतीं। पीछे से रमला और सावित्री कैसी गजब की छेड़छाड़ किया करती थीं, ‘यहाँ क्या भूत बैठा है जो धर लेगा ! छुट्टी की घंटी बजते ही तू ऐसी बगटुट क्यों भागती है री, अरुंधती ?’
सावित्री ने एक बार उसे पीछे से पकड़ लिया था, ‘धीरे-धीरे चल न, हमें भी तो घर ही जाना है न ! और तेरा यह इतना भारी-भरकम नाम। जोर से पुकारो तो जीभ लटपटाने लगती है। इसे बदल डाल न !’
उसने अम्मा के सामने हठ पसार दिया था, ‘बताओ तो, मेरा इतना पुराना नाम किसने रखा ? एकदम पुरखिनों जैसा !’
अम्मा ने हँसते हुए उस रात सप्तर्षिमंडल के तारों में से अरुंधती की पहचान करवाई थी, ‘वह देख, पूँछ के बीचोंबीच जो तारा है न वही वसिष्ठ ऋषि हैं और उनके संग लगी वह जो नन्ही सी जुन्हाई है, ऋषि-पत्नी अरुंधती है वह। तेरा नाम तो पुराण-प्रसिद्ध है बचिया। जो इस नाम का अर्थ नहीं बूझतीं, वे बेशक हँसा करें।’
अपने नाम का अर्थ स्वयं वे समझ पाई थीं क्या ? समझ भी लेतीं तो जिंदगी क्या कुछ दूसरी हो जाती ?
आठवीं कक्षा में थीं वे। त्रिदंडी महाराज के यज्ञ की हव्य-सामग्री लेने हरिद्वार से अम्मा के गुरुभाई शुभंकरजी महाराज पधारे थे।

पंचामृत का कटोरा लेने के लिए हाथ बढ़ाया था किशोरी अरुंधती ने।
‘बिटिया, जरा इधर आना !’
हाथ की रेखाएँ बाँचते तनिक और गंभीर हो गए थे गुरुजी महाराज।
‘किस सोच में पड़ गए, गुरुभाई ?’
अरुंधती को कुछ भी बताने की आवश्यकता नहीं समझी थी अम्मा ने ! बड़ी-बड़ी आँखों में हर क्षण खिंची रहनेवाली विकलता की पीर की स्वयं उन्होंने भी कहाँ थाह पाई थी—‘क्यों अम्माऽ, हमें देखकर अचानक उदास हो जाती हो ! कोई कष्ट है तुम्हें ?’
अब समझ में आता है—क्या पढ़ा करती थीं अम्मा ! उनके चेहरे की ओर एकटक निहारती किस गोपन व्यथा का उपचार अपने मानस जप में ढूँढ़ती रहती थीं वे—‘निरंतर संघर्ष से भरा जीवन होगा तुम्हारी इस धिया का। प्रतिकूलता के शिलाखंडों से हर क्षण जूझती रहेगी यह।’

‘नहीं, केवल कपाल-दोषों की ही गणना नहीं कर रहा मैं ! बुद्धिमती, शीलमती, प्रखर आत्मिक सामर्थ्यवाली यह बालिका तुम्हारी कोख का गौरव बनेगी; लेकिन आनंदिनी बहन...! सुख के क्षण धुनी हुई रुई की तरह इसके भीतर कभी चिर स्थायी नहीं हो सकते। अपनी ही नहीं, दूसरों के हिस्से की भी पीड़ा इसे ही सहन करनी होगी।’
गुरु काका की हर बात को मन की निभृत गहराई में सहेज लिया था उन्होंने।
‘अम्मा, एक बात पूछूँ।’
‘हाँ, कह बचियाऽ ! राजदुलारी अरुंधती हमारी बोल, क्या कहना चाहती है ?’
‘हमें खूब पढ़ना है। कहीं ऐसा न हो कि शिवांगी दीदी की तरह आप लोग हमें भी...’
उनसे दो वर्ष बड़ी चचेरी बहन शिवांगी का ब्याह पंद्रहवें वर्ष में कर दिया गया था। तीन वर्ष के भीतर तीन संतानें—हर साल गर्भ-भार से अलसाई, नैहर की चौखट पर पाँव धरती पाले की मारी फसल-सी बड़की अम्मा की गोद में बिखर जातीं—‘माई री, अब देह की और अधिक फजीहत हमसे बरदाश्त नहीं होती। बाबूजी ने जाने क्या सोचकर...’ भूगर्भवेत्ता थे शिवांगी दीदी के पति। पड़ोस की सुदर्शना भाभी तीखी चुटकी लिया करती थीं, ‘इतने पढ़े-लिखे शहरी बाबू बने फिरते हैं हमारे ननदोईजी और इतनी भी अक्ल नहीं। कौरवों की फौज खड़ी करने का इरादा है किया ? खुद धृतराष्ट्र बने फिरते हैं, गांधारी का सत हमारी ननदजी को नहीं चाहिए। शिवांगी जीजी, राम-राम करके देह हलकी होते ही डॉक्टरनी को पूछकर आप स्वयं ही अपना कोई उपाय...’ ऐसी नौबत नहीं आने पाई थी। चौथे अठमासे बच्चे को जन्म देकर दीदी ने चिर विदा ली थी।
इतने वर्षों के बाद भी वह हृदय-विदारक घटना अरुंधती के मन-मस्तिष्क को सुन्न कर देनेवाली थी।

घने काले बालोंवाली दुबली-पतली शिवांगी दीदी..

धुआँधार सिगरेट पीता शोक का अभिनव करनेवाला शिवांगी दीदी का पति उन्हें तनिक नहीं भाता था। जिंदगी की गंभीर-से-गंभीरतम परिस्थितियों को भी मसखरेपन के अंदाज में टाल देना, सिनेमाई अंदाज में रटे-रटाए उद्धरण बोलकर दूसरों पर अपना सिक्का जमाने की बेमतलब कोशिश करना...
शिवांगी दीदी की मृत्यु के दूसरे वर्ष ही उसने अपने मित्र की बहन से दूसरा विवाह रचा लिया था। अरुंधती उसे हमेशा के लिए भुला चुकी थी।
अम्मा ने घर भर से अलग बेशक अरुंधती का पक्ष लिया था, ‘मेरी बेटी आगे पढ़ेगी।’
बड़े काका समक उठे थे, ‘गाँव में सातवीं तक की पढ़ाई कम है क्या ? बक्सर हाई स्कूल में नाम लिखाने का अरथ बूझती हो ? तुम्हारी चौधरानी बेटी के आने-जाने का अलग से पुख्ता इंतजाम करना पड़ेगा।
‘घर-गिरहस्ती की दशा देख रही हो न...छोटकू को राजनीति की सनक चढ़ी है। हम अकेले पुरखों का कारोबार देखें, काश्तकारी सँभालें या..’

बड़े दालान से उठकर भीतर की कोठरी में आए तो अम्मा ने बाबूजी से फरियाद की थी, ‘अपनी अरुन आगे पढ़ना चाहती है। पच्छिम टोले के बजरंगी बाबू की दोनों बेटियाँ बक्सर जाने वाली हैं। अब तो दुखिया के इनार से बस भी खुलने लगी है—हुकुम हो तो...’
बाबूजी ने लापरवाही से सिर हिला दिया था, ‘घर के मालिक बड़का भइया हैं। वे जो कहें उन्हीं से पूछ लेना। यह ऐसी कौन सी बड़ी बात है कि तुम....’
राघवानंदजी दीये की लौ उकसाते हुए अपनी पोपली हँसी हँसते उनकी उनकी ओर बढ़ आए थे, ‘किन लहरों में डूबने-उतराने लगी, अरुन ? देखो तो, शिंजिनी तुम्हारी गोद में सिर रखकर सो चुकी है। सुमंगला दो-दो बार भोजन के लिए पूछने आ चुकी।’
‘चलो, पाकशाला में सब हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे !’
‘मुझे भूख नहीं है...मेरे सिर में हलकी सी पीड़ा भी है। आप अनुमति दें तो...’

बड़े गुरुदेव का पितृ-वत्सल स्पर्श उनके टपकते हुए मस्तक को शीतल कर गया था, ‘अन्नं न परिचक्षीत्...’
‘अन्न की अवहेलना नहीं करनी चाहिए ! उठो बेटी, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।’
वे जानती थीं, अनुशासनप्रिय गुरुदेव की छद्म कठोरता उनके सामने टिक नहीं पाती। गंगोत्तरी की तरल शीतल धार बनकर उनकी वाणी शास्ति देने लगती है, ‘अरुंधती, ‘स ईक्षते’ उस परम पुरुष ने सृष्टि की रचना के पश्चात् विचार किया—अन्नं सृजे इति...’ मुझे इनके लिए अन्न की सृष्टि करनी चाहिए। इस तरह परमपिताने अपनी संकल्प-शक्ति से पंचमहाभूतों की सुक्ष्मता को साकार किया। अन्न तो देवगणों का भी उपभोग्य है बेटी, उसकी अवमानना कभी नहीं करनी चाहिए। आओ चलें !’
आजकल शिंजिनी उनके साथ कुछ ज्यादा ही बँधती जा रही है।
‘माँ, इस चंपक के नीचे अकेली बैठी क्या सोच रही है ? देखिए तो, बालों में कैसे जटाजूट बन गए हैं। लाइए, सिर से आँचल हटाइए जरा...हम अभी कंघी लेकर आए !’
‘उहू, इतनी मोटी-मोटी पोथियों में क्या ढूँढ़ती रहती हैं आप ? सुमंगला माँ कहती हैं—आप को ढेर सारी कहानियाँ याद हैं। हमें सुनाइए न, बड़ी मौसी।’
वनचंपा के नीचे चबूतरे पर शांति-तीर्थ का सकल बाल-साम्राज्य एकत्र हो जाता। राजरानी बनी शिंजिनी एकदम आगे...
‘हाँ, तो सब लोग चुप बैठो, एकदम शांत, कोई कुछ नहीं बोलेगा। ‘माँ, वही रुनियावाली कहानी...’
...बहुत पहले की बात है, दूर देश के राजा की इकलौती राजकुमारी रुनियाऽ...सात भाइयों की दुलारी बहन...छोटे राजकुमार को जुए की लत पड़ी। डोम राजा से शर्त बदी गई। राजकुमार हार गया। खटवास-पटवास लिये अटारी पर पड़ा रहा। एक-एक करके सब मनाने आए, पर कोई असर नहीं।

सबसे अंत में रुनिया आई, ‘उठो भाई, कुछ खाओ-पियो !’ छोटे राजकुमार ने षड्यंत्र रचा, ‘तू हमें बहुत मानती है बहिनाऽ।’
‘हाँ-हाँ, बहुत ! आसमान के चाँद सितारों से भी अधिक। हाँ-हाँ, दुनिया में सबसे अधिक ! लेकिन तुम कहो तो—तुम्हें क्या चाहिए ?’
‘रुनिया, तुझे मेरे लिए एक काम करना होगा पहले। वादा कर, किसी से कहेगी तो नहीं !’
‘नहीं, छोटे भाई सौगंध ले लो !’
‘किसकी सौगंध ?’
‘तुम्हारी !’
‘नहीं...’
‘फिर किसकी ?’
‘अपने प्राणप्रिय हरियल सुग्गे की।’
‘अच्छा, चलो, सौगंध ली—अब काम बताओ !’
‘आज सूरज डूबने के बाद कालीदह में खिला हुआ सबसे बड़ा लाल कमल का फूल मुझे चाहिए, ला सकोगी ?’
‘बस इतनी सी बात ? उठो छोटे भाई, ‘उपवास तोड़ो...हम यह काम जरूर करेंगे।’
‘लेकिन देखना, किसी को कानोकान खबर नहीं हो, वरना...’

‘तुम घबड़ाते क्यों हो छोटे भाई, कोई नहीं जान पाएगा—मेरा प्यारा हरियल भी नहीं !’
और रुनिया साँझ ढले चुपके से बीहड़ वन की ओर निकल पड़ी। कालीदह की सुनसान सीढ़ियों पर खड़ी होकर उसने देखा—तालाब के ठीक बीचोबीच एक रक्त कमल खिला हुआ था। उसे क्या पता था—उसका छोटा भाई चुपके से उसके पीछे-पीछे आ रहा था। उसे डोमराज की शर्त जो पूरी करनी थी।
रुनिया बेखटके पीनी में उतरती चली गई थी।
वनपाखी की आवाज में छोटा राजकुमार पेड़ पर बैठा इंगित कर रहा था।
रुनिया भयभीत थी—‘ठेहुन भर पनिया में अइलीं हो भइया, तबहूँ ना पवलीं कमल के फूल।’
-ओ मेरे छोटे भाई, घुटने भर पानी में उतर आई हूँ, लाल कमल का फूल पकड़ में नहीं आया।
‘बहिनी, आगे जा, संगी घुसकल जा।’
—बहन, तुम आगे बढ़ो तो और संगी डोमराज, तुम पीछे खिसकते चले जाओ।
रुनिया आगे बढ़ती गई—
‘छाती भर पनिया में अइलीं हो, भइया।’
—छोटे, भाई, पानी मेरे सीने से ऊपर हो गया है।...
निष्पलक बैठी शिंजिनी की पूरी शक्ति श्रवण-रंध्रों में सिमट आई है।
आश्रम की बाल-बिरादरी निस्तब्ध है।
अम्मा के मुँह से सैकड़ों बार सुनी रुनिया की कहानी का यह संदर्भ अरुंधती को हर बार करुणार्द्र कर जाता था।
स्वर के भीगेपन को थाहती संतुलन पाने की चेष्टा में अल्पविरमित होना चाहतीं, लेकिन शिंजिनी को चैन कहाँ ? बड़ी-बड़ी डबडबाई आँखों में भावभीनी मनुहार लिये वह अशांत हो उठती, ‘ओहो, माँ, फिर न जाने कहाँ खो गईं आप ! पहले कहानी तो पूरी कीजिए।’

रुनिया कालीदह में समा चुकी है। जुए की शर्त के अनुसार अब वह डोमराज की जनम-बंदिनी है। छोटा भाई चुपचाप महल में लौट आता है।
फिर...? रुनिया को कोई नहीं खोजता, कोई भी नहीं ?
सयाना हो चला मयंक बराबर एक ही सवाल पूछता है—
‘अच्छा बड़ी माँ, रुनिया का भाई इतना जालिम क्यों था ? वह सौतेला था क्या ?’
बड़े गुरुदेव ने मयंक को सात वर्ष की आयु में प्रयाग स्टेशन पर भीख माँगते हुए पाया था। अधमैले खूब गोरे चेहरे से टपकती करुणा ने उन्हें अनायास द्रवित कर दिया था, ‘घर में कौन-कौन हैं, बचवाऽ ?’
पितृ-वत्सल स्नेह की पहली छुअन उस नन्हे बालक को परत-दर-परत हिला गई थी, ‘मेरे भाई-बाबू कोई नहीं ! सौतेला बड़ा भाई है—मुझसे बहुत ही बड़ा, भावज भरपेट खाने को नहीं देती...इसीलिए तो...’
‘हमारे साथ चलोगे ?’
‘कहाँ ?’

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