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पतन के पंख

रोशनलाल सुरीरवाला

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1575
आईएसबीएन :81-88266-20-5

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास..

Patan Ke Pankh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कैसी विडंबना है कि आज कॉलेजों में पढ़ाई के अतिरिक्त सभी कुछ होता है। उद्देश्य तो यह है कि छात्र का सर्वांगीण विकास हो, छात्र की सोई या छिपी प्रतिभा जाग्रत हो, किंतु आज शिक्षा संस्थाओं में समय काटा जाता है। न तो छात्र का उद्देश्य अध्ययन करना होता है, न अध्यापक का उद्देश्य अध्यापन। कॉलेज से छात्र का श्रेष्ठ नागरिक बनकर निकलना एक स्वप्न मात्र है।

अपवाद छोड़ दें तो आज कॉलेज में न कवि-सम्मेलन होता है, न संगीत-सम्मेलन, न कोई वाद-विवाद प्रतियोगिता होती है, न कोई अन्य साहित्यिक गतिविधि, न कोई नेता आता है, न अभिनेता; न कोई संत दर्शन देता है, न कोई शीर्ष साहित्यकार पधारता है।...जब तक चरित्र को उत्कर्ष का आधार नहीं बनाया जाएगा, जब तक नियुक्ति और प्रवेश की कसौटी योग्यता नहीं होगी तब तक छात्र जीवन अथवा शिक्षा संस्था का उद्देश्य पूरा नहीं होगा।..

इसी पुस्तक से

वर्तमान की भ्रष्ट राजनीति एवं शैक्षिक व्यवस्था ने आदमी को कितना विवश बना दिया है,यहाँ की हर संस्था अपना मौलिक स्वरूप खोकर कितनी निकृष्ट बन गई है, विशेषकर शिक्षण संस्थान किस तरह पद-लोलुप शिक्षकों और राजनीतिज्ञों की कुटिल योजनाओं के अखाड़े बन गए हैं-यही सब इस उपन्यास में शिक्षा की आंतरिक व्यवस्था पर चोट करते हुए दिखाया गया है।

अपनी बात


मैंने श्री वार्ष्णेय कॉलेज के पन्नालाल एडवोकेट पुस्तकालय में चालीस वर्ष (अगस्त 1951 से जनवरी 1991) तक कार्य किया। अप्रैल 1957 से अंत तक मैं वहाँ पुस्तकालयाध्यक्ष रहा। इस अवधि में मेरे अध्ययन की प्यास कभी अनबुझी नहीं रही। पुस्तकालय मानो मीठे पानी की नहर था और मैं घाट की निचली सीढी़ पर पानी में दोनों पैर डाले बैठा रहता था। कितने ही समाचार पत्र-पत्रिकाएँ और पुस्तकें हस्तामलक थीं। लिखने के लिए अध्ययन भी एक प्रेरणा-स्रोत है और यह प्रेरणा मुझे खूब मिली। मेरे संपर्क में बेहिसाब छात्र तो आते ही थे, शिक्षकों और अभिभावकों का साथ भी निरंतर मिला। गुंडे और दादा भी निकट रहे। जैसे सभी पहलुओं के साथ पूरा जीवन मेरे सामने था। फिर भी छात्र और शिक्षक ही मेरे निकटतर रहे। मैंने इन दोनों पर काफी लिखा है। कॉलेज की गतिविधियों से संबंधित यह उपन्यास भी मेरे मन-आँगन के एक कोने में फूटा अंकुर है। यथासमय मैंने मास-क्रम से बारह लिफाफे बनाए और शिक्षा-संदर्भित कतरनों का संकलन आरंभ किया। इस प्रसंग में मैं डॉ.विपिन चंद्र वार्ष्णेय और प्रो.यज्ञपाल गुप्त का कृतज्ञ हूं, जिन्होंने मुझे अपने पुराने अखबार कई बार सौंपे।

वस्तुत: आज कॉलेज पटपरी पगडंडियों की भाँति हैं, जहां कुछ पैदा नहीं होता। बस, इधर से उधर जाया जा सकता है। कैसी विडंबना है कि आज कॉलेजों में पढ़ाई के अतिरिक्त सभी कुछ होता है। उद्देश्य तो यह है कि छात्र का सर्वांगीण विकास हो, छात्र की सोई या छिपी प्रतिभा जाग्रत हो; किंतु आज शिक्षा-संस्थाओं में समय काटा जाता है। न तो छात्र का उद्देश्य अध्ययन करना होता न अध्यापक का उद्देश्य अध्यापन। कॉलेज से छात्र का श्रेष्ठ नागरिक बनकर निकलना एक स्वप्न मात्र है। विद्यार्थी विद्या की अरथी निकालता है और कफन डालने का कार्य अध्यापक करता है।
अपवाद छोड़ दें तो आज कॉलेज में न कवि-सम्मेलन होता है, न संगीत-सम्मेलन, न कोई वाद-विवाद प्रतियोगिता होती है, न कोई अन्य साहित्यिक गतिविधि, न कोई नेता आता  है, न अभिनेता; न कोई संत दर्शन देता है, न कोई शीर्ष साहित्यकार पधारता है। जब पलायन ही (या तटस्थता) समस्या का समाधान माना जाता हो तब संघर्ष-साधना कैसे जन्म ले, विकास-भाव कैसे पनपे ? चरित्र को उत्कर्ष का आधार नहीं बनाया जाएगा, जब तक नियुक्ति और प्रवेश की कसौटी योग्यता नहीं होगी तब तक छात्र जीवन अथवा शिक्षा-संस्था का उद्देश्य पूरा नहीं होगा। आज न गुरु के प्रति श्रद्धा है और न शिष्य के प्रति स्नेह।

सामान्यता आज प्रवेश और परीक्षा ही अधिकारियों का सबसे बड़ा सिरदर्द सिद्ध होता है। या जो भी थोड़ा-बहुत होता है, वही सत्र के बारह महीनों में विभाजित है। उपन्यास में कथाविहीन कथानक है। जो भी पाठक यह समझे कि अमुक माह में अमुक घटना और होनी चाहिए थी वह उस घटना को उसी माह में जोड़कर पढ़ ले। मैंने छात्रसंघ का चुनाव इसलिए नहीं लिया, क्योंकि आज आम कॉलेज में छात्रसंघ का चुनाव नहीं होता, जबकि अनेक कमियां होने पर भी देश की भाँति कॉलेजों में भी छात्रसंघ का चुनाव होना चाहिए।

एक बात और। इस उपन्यास के सभी पात्र और घटनाएँ शत-प्रतिशत काल्पनिक एवं मनगढंत हैं। उनका किसी मृत या जीवित व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है। फिर भी, यदि किसी को कहीं वास्तविकता का आभास होता है तो यह संयोग मात्र है। प्राध्यापकों के पारस्परिक विवादों को मैंने जान-बूझकर छोड़ा है, क्योंकि उन विवादों और विवादों की किस्मों का कोई अंत नहीं है।

मुझे लगा कि आज कॉलेजों में पतन पनप रहा है और आकाश में मुक्त रूप से पंख पसारे उड़ रहा है। यदि ये पंख कतर दिए जाएँ तो पतन गिर जाएगा, मर जाएगा। इसका सीधा अर्थ शिक्षा-संबंधी सुधार से है, अर्थात् कॉलेजों की ओर गंभीर दिलचस्पी ली जानी चाहिए।
कुछ प्राध्यापकों ने मुझे वांछित तथ्य देने की कृपा की है। मैं उन प्राध्यापक मित्रों-डॉ.हरिशचंद्र गुप्त, प्रो.शैलेंद्र भूषण, प्रो.यज्ञपाल गुप्त, कैप्टेन जे.पी.गुप्त प्रो.खानचंद्र गुप्त एवं डॉ.हरिओम मित्तल का हृदय से आभारी हूं, जिनके दीक्षांत भाषण के अंश मैंने अक्षरश: प्रयोग किए हैं।

रोशनलाल सुरीरवाला

मार्च

एक


छह फीट दो इंच ऊँचे प्रो.प्राणनाथ वर्मा का चेहरा रोबीला है और व्यक्तित्व प्रभावशाली। मामूली आदमी तो उनकी सीप-सी बड़ी-बड़ी आँखें देखकर ही डर जाता है। गोरा रंग, लंबी किंतु संतुलित नाक और सटे हुए साफ मोती से चमकदार दाँत। बात में दम और लंबे-लंबे ठहर-ठहरकर रखते डगों में विश्वास। हमेशा प्रेस किए हुए ड्रेस ही पहनते हैं। सूट के साथ टाई अवश्य होती है और साफ साबुत मोजों के साथ पॉलिश किए हुए जूते। घर में कुरता-पाजामा पहनते हैं तो पैरों में नई कीमती चप्पलें अवश्य होती हैं। वाग्देवी सरस्वती कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष हैं। वे प्रिंसिपल नहीं है, किंतु स्वयं को प्राध्यापकों से अलग समझते हैं। वे हर विवाद से दूर रहते हैं और किसी भी विषय में स्पष्ट राय नहीं देते।

उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में सेकंड क्लास एम.ए. किया है और इसका उन्हें बड़ा गर्व है। वे उस इलाहाबाद से एम.ए. हैं, जिसने देश को अनेक साहित्यकार कवि, वैज्ञानिक और विश्व स्तरीय नेता दिए हैं। यह गर्व तब और बढ़ जाता है, जब वे यह देखते हैं कि उनके विभाग में एक भी प्राध्यापक फर्स्ट क्लास एम.ए.या पी.एच.डी.नहीं है, तो वे गा-गाकर बताते हैं कि उन्होंने इस पद के लिए कभी अप्लाई नहीं किया था, बल्कि कॉलेज प्रेसीडेंट ने स्वयं एस.डी.कॉलेज में उनकी कक्षा में जाकर यह पोस्ट उन्हें ऑफर की थी। वे तो एकाग्रचित्त हो शेक्सपियर का ‘हैमलेट’ पढ़ा रहे थे। वे देख ही नहीं पाए कि दरवाजे पर एक ओर खड़े-खड़े वाग्देवी सरस्वती कॉलेज के प्रेसीडेंट उनका पढ़ाना परख रहे हैं।

प्रो.प्राणनाथ वर्मा छोटों पर अपनी रुचि, इच्छा और राय जबरदस्ती लाद देते हैं। वे उनका काम करने का आश्वासन देकर भूल जाते हैं; किंतु जब काम किसी प्रकार हो जाता है तो उसका श्रेय लेना नहीं भूलते। वे बड़ों की बात कभी नहीं काटते, चाहे बड़े़ लोग जवाहरलाल नेहरू की जन्मतिथि ही क्यों न गलत बता रहे हों। उनके संबंध अपने से ऊंचे लोगों से हैं या प्रतिष्ठित पैसे वालों से। अथवा उन पद-स्थितों के यहाँ आना-जाना है, जिनसे उनका काम पड़ सकता है। ऐसे सज्जनों की सूची उनके पास होती है, शेष लोगों की वे कतई चिंता नहीं करते। उनसे वे केवल होली पर मिलते हैं। वे अपने रिश्तेदारों को भी इसी कसौटी पर कसते हैं। उन्होंने अपने सगे भानजों को छात्र-जीवन में हमेशा ‘डॉ.कृपाशंकर वर्मा, एम.डी.के लड़के’ कहा। किंतु जब भानजे इंजीनियर, डॉक्टर और प्रवत्ता हो गए तब ‘प्रो.प्राणनाथ वर्मा के भानजे’ कहलाए। होली पर भी प्राणनाथ वर्मा छोटे लोगों से सार्वजनिक स्थल पर मिलते हैं, अपने घर नहीं। उनके घर कोई टाइम लेकर ही मिल सकता है। टाइम देकर भी आगंतुक को आधा घंटे से कम घर से बाहर नहीं बैठाते। स्वयं भी घर के अंदर बेकार बैठे रहेंगे। किंतु तुरंत नहीं मिलेंगे।

इसमें शक नहीं कि प्रो. वर्मा अपना पक्ष तर्क सहित सबलता के साथ रखते हैं। टेबुल मैनर्स में उनका जवाब नहीं है। इसीलिए ये प्राय: कॉलेज के प्रतिनिधि बनकर उपकुलपति और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मिलने जाते हैं और काम बनाकर लाते हैं। उन्हें अपने सलीके, शिक्षा और संतानों पर अभिमान है। यदि अनजान व्यक्ति भी उनसे मिलने आता है तो वे अवसर निकालकर अवश्य कहते हैं, क्या तुम मेरे लड़कों को जानते हो ?’
‘नहीं,।’ आगंतुक सत्य कह देता।

‘तो सुनो।’ प्रो.वर्मा उसे बैठा लेते और शुरू हो जाते, ‘मेरा बड़ा लड़का सी.ए.है, पंद्रह हजार रुपए मासिक की प्रैक्टिस करता है, बडा़ प्रतिभाशाली दुनिया बी.कॉम, करने के बाद सी.ए. करती है, किंतु मेरा लड़का बी.एस.सी. करने के बाद इस लाइन में आया। कठिन परिश्रम करना पड़ा, समय भी दूना लगा, किंतु आखिर कर ही लिया।’
‘जी।’
‘दूसरा इसी कॉलेज में प्रोफेसर है। वह भी बड़ा जहीन है। फिजिक्स में फर्स्ट क्लास एम.एस.सी. और पी.एच.डी है। दुश्मनों ने बाधा डालने में घोड़े खोल लिये, कितु मैंने भी घाट-घाट का पीना पिया है। इलाहाबाद से एम.ए.किया और पच्चीस साल से शेक्ससियर पढ़ा रहा हूँ। अधिकारियों को तब तक चैन से नहीं बैठने दिया जब तक उसकी नियुक्ति नहीं की। जहाँ चाह है वहाँ राह निकलते कितनी देर लगती है।’’
‘आप भाग्यशाली हैं।’’

‘इसमें क्या संदेह है !’ प्रो.वर्मा समझते कि सामनेवाला रामकथा की भाँति मुग्धमन सुन रहा है। ‘मैं कभी उसकी क्लास में छात्रों को यह बताने नहीं गया कि उनका प्रोफेसर मेरा बेटा है। यह काम मैंने फिजिक्स के हो पर छोड़ दिया। तीसरा लड़का इंजीनियर है। समय पर ऑफिस जाना और समय पर घर आना। डटकर मेहनत करना और किसी के काम में टाँग न अड़ाना। नजीता यह कि ऊपरवाले भी खुश हैं और नीचेवाले भी।’
‘जी, अब मैं चलूँ।’ आगंतुक खड़ा हो जाता।

प्रो.वर्मा भी खड़े़ हो जाते, ‘कभी हमारी कोठी देखने आओ। पूरे मुह्लले में ऐसी कोठी नहीं है। पाँच सौ वर्ग गज जमीन में दो सौ वर्ग गज कवर्ड एरिया है। आधे में लॉन है। चाहे कुछ बनवाओ या बेच दो। फॉर्रन रिटर्न से नक्शा बनवाया था।’
‘जी, एक प्रति मैं ले जाऊँगा।’
‘अरे भाई अब प्रति कहाँ है ! जो भी कोठी देखने आया, वही नक्शा ले गया।’
यदि कभी किसी छात्र का अभिभावक आता तो उसे काम पूरा हो जाने का विश्वास दिलाते और दस अड़चनें गिनाकर अंत में कहते, ‘मेरी बात का बुरा मत मानिएगा, आपके बराबर तो मेरे बेटे हैं।’
अभिभावक कतई बुरा नहीं मानता, किंतु कभी-कभी कोई अभिभावक विदा होने से पूर्व मुसकराता, ‘वर्माजी, आपको मेरी उम्र का पता नहीं है। मैं आपसे भी दो वर्ष बड़ा हूँ और यह बात मैं पहले भी आपको बता चुका हूँ।’

कल वाग्देवी सरस्वती कॉलेज में दीक्षांत समारोह है और प्रो.वर्मा स्वागत-समिति के अध्यक्ष बनाए गए हैं। ठीक इसी स्थान पर कल सुबह वे नगर के प्रशासनिक अधिकारियों एवं प्रतिष्ठित नागरिकों का स्वागत करेंगे। उनका ध्यान कुतुबनुमा सुई की भाँति इस ओर लगा था कि शराफत अली टेलर मास्टर समय पर उनका नया सूट सी कर दे पाएगा या नहीं। वे अपनी आँखों के सामने नगरपालिका के कर्मचारियों से सफाई करा रहे थे। तभी कॉलेज के मेन गेट के सामने सड़क से गुजर रहे शवयात्रियों ने उनके कार्य में बाधा डाल दी।

बी.ए. फेल दयाराम वर्मा पिछले बीस साल से क्लर्क है। उसके ऊपर ऑफिस के किसी भी काम की जिम्मेदारी नहीं है। अनेक असामाजिक तत्वों से उसके गहरे संबंध हैं और दादा-छात्र उसे ‘बड़े भाई’ कहकर आदर देते हैं। कई पुलिस अफसरों और सी.आई.डी.अधिकारियों से उसका अच्छा-खासा परिचय है। कुछ के साथ तो उसका रोज का उठना-बैठना और खाना-पीना है। छात्रों की ‘आउट ऑफ वे’ सहायता करना उसका दैनिक धर्म है। किसी को चरित्र प्रमाणपत्र चाहिए तो दयाराम वर्मा काम आता है, खेल प्रतियोगिता का कोई बखेड़ा है तो उसे भी वही सुलझाता है। किसी की फीस माफ होनी है तो वर्मा उसे माफ करा देता है। वह पूअर बॉयज-फंड से रुपए दिलवा देता है और बी.एड.के लिए अनिवार्य पाठ-योजना की पिछली कॉपियाँ निकलवा देता है। प्रयोगात्मक परीक्षाओं में तो उसकी तूती बोलती है। गरज यह है कि पाठ्येतर गतिविधियों में दयाराम वर्मा का प्रभावशाली दखल है। पुस्तकालय से कोई पुस्तक या सेट कितनी भी अवधि के लिए ला देता है। ऑफिस के गुप्त रिकॉर्डों तक उसकी सीधी पहुँच है।

 अधिकतर प्राध्यापकों से उसकी दोस्ती है और प्राचार्य चंद्रशेखर वर्मा का तो वह अंगरक्षक ही है। जहाँ प्राचार्य जाता है, दयाराम वर्मा प्रमाणपत्र सा नत्थी रहता है, विशेषतया तब जब प्राचार्य राउंड लेते हैं या छात्रों को संबोधित करते हैं गेहुँए वर्ण, गठीले बदन और तलवार कट मूछोंवाला दयाराम वर्मा हर वक्त मुँह में 120 नंबर के तंबाकू वाला पान दबाए रहता है, मगर मजाल है जो वाणी जरा भी अस्पष्ट  निकले और पीक की एक बूँद भी अनिच्छापूर्वक होंठों से वाक आउट कर जाए। दयाराम वर्मा कभी भी सीट पर नहीं पाया जाता। जिसे भी उससे काम होता है, वह रेलवे फाटक के चौराहे पर पहुँच जाता है और वहाँ उसे तलाश लेता है। चौराहे पर वह मूँगफली ककड़ी या अमरूद के ठेले पर, पान की दुकान या टी-स्टाल पर अथवा कचौड़ी-समोसा की दुकान पर खाते या खिलाते मिल जाता है। प्राचार्य भी उसे वहीं तलाश करा लेते हैं।
कॉलेज का कोई भी समारोह बिना उसकी मदद के संपन्न नहीं हो सकता। चपरासी दे या न दे, या कितने दे यह सब उसकी मरजी पर निर्भर है। इसलिए दयाराम की पूँछ बजरंग बली से भी बड़ी है। प्राय: सभी समारोह-उत्सवों में मतभेद और विवाद के समान दयाराम अवश्य ही उपस्थित रहता है। दयाराम डर से सर्वथा अपरिचित है और खासा मुँहफट है। वह कब, किससे, क्या कह दे, कोई नहीं जानता। दयाराम को एक कमाल और हासिल है। किसी को राशन की चीनी चाहिए या मिटटी का तेल या फिर गैस, दयाराम वर्मा की परची से सभी कुछ उपलब्ध हो जाता है। देर-सबेर सभी के काम आनेवाली चीज का नाम है-दयाराम वर्मा।

शाम के पाँच बजकर तीस मिनट हुए थे। प्रो.प्राणनाथ वर्मा की लंबी नाक के चौड़े नथुने इस खुशी से फूल-पिचक रहे थे कि शराफत अली टेलर मास्टर के यहां से उनका नया सूट अभी-अभी सिलकर आ गया है, जिसे पहनकर वे कल के दीक्षांत समारोह में भाग ले सकेंगे। वे मन-ही-मन फूले नहीं समा रहे थे कि नगर के टॉप के टेलर मास्टर ने तीन दिनों के अंदर उनका सूट सी दिया था। यह वही टेलर मास्टर है, जो तीन सप्ताह से पूर्व मोस्ट अर्जेंट सिलाई भी नहीं करता। प्रो.वर्मा को भी शराफत अली से स्पष्ट ना कर दी थी, किंतु प्रो.वर्मा ने अपना समस्त बुद्धि-कौशल शराफत अली को यह समझाने में लगा दिया था कि यदि वे इस सूट को पहनकर दीक्षांत समारोह में शामिल नहीं हुए तो किस-किसकी क्या-क्या हानि हो सकती है। स्वयं प्रो.वर्मा तो आत्महत्या ही कर लेंगे। उन्होंने शेक्सपियर की पंक्तियां निरंतर दुहराई और कीट्स को कई बार उद्धृत किया, जिसका अर्थ अँगूठा छाप शराफत अली कतई नहीं समझा और ना में सिर हिलाता रहा।

अंत में प्रो.वर्मा ने शराफत अली को खूबसूरत निमंत्रण-पत्र दिया और दीक्षांत समारोह में आने की प्रार्थना की। उन्होंने शराफत अली को विश्वास दिलाया कि उनके शानदार व्यक्तित्व पर शोभायमान भव्य सूट पर अनेक आभिजात्य नागरिकों की निगाह पडे़गी। स्वाभाविक ही वे सूट की सिलाई की प्रशंसा करेंगे और प्रो.वर्मा शराफत अली की तारीफों के पुल बाँध देंगे। अंतत: शराफत अली राजी हो गया और प्रो.प्राणनाथ वर्मा की शब्द साधना सफल हुई। अब वे सिर्फ यह चाहते थे कि सड़क के उस पार कॉलेज की कोठी में रहनेवाले प्राचार्य चंद्रशेखर वर्मा स्वयं देख लें कि अंग्रेजी विभाग के नजाकत पसंद अध्यक्ष प्रो.प्राणनाथ वर्मा स्वयं कष्ट उठाकर सफाई कार्य संपन्न करा रहे हैं।

प्रो.प्राणनाथ वर्मा की बगल में ही दयाराम वर्मा चपरासियों से मेन गेट और चहारदीवारी पर कोयले और गेरू से लिखे गंदे नारे तथा कोचिंग सेंटरों के चिपके विज्ञापन-पोस्टरों को धुलवाकर साफ करा रहा था। दयाराम वर्मा स्वयं भी एक भीगा कपड़ा लेकर पिला हुआ था।
‘राम नाम सत्य है।’ सहसा सामने से एक अरथी निकली।

‘पहले हमारी बात सुनो।’ प्रत्युत्तर में परंपरा से भिन्न, पचास-साठ कंठों का समवेत स्वर आकाश में गूँजा।
दयाराम वर्मा चौंककर सावधान हुआ। उसने हाथ रोके और जमीन पर पीक मार प्रो.प्राणनाथ वर्मा की ओर दृष्टि डाली, ‘पहले हमारी बात सुनो, ‘सत्य बोले मुक्त है’ के स्थान पर यह कैसा प्रतिघोष है सर ? और अब मुरदा क्या सुनेगा ? जो कुछ सुनाना था, बोल बंद होने से पहले सुनाना चाहिए था।’
प्रो.प्राणनाथ वर्मा ने दयाराम वर्मा को घूरा, जैसे निगाहें कह रही हों, ‘यह प्रश्न करने की बदतमीजी मुझसे क्यों की जा रही है ?’
दयाराम वर्मा ने भयाकुल होने का अभिनय किया ‘सर, पहला स्वर शवयात्रियों का है और प्रतिस्वर कॉलेज के अंदर प्रदर्शन कर रहे लोगों का। प्रदर्शनकारी सबके-सब प्राध्यापक हैं, क्योंकि क्लीन शेव्ड हैं। विद्यार्थी होते तो खलनायक सी दाढ़ी-मूँछ होती और प्राध्यापकों से बड़ी उम्र के लगते।’

किंतु प्रो.वर्मा अपनी ही धुन में थे, जैसे श्रोताविहीन हॉल में बोल रहे हों, ‘हिंदुस्तान में यही तो अराजकता है। जिसके मन में जब आता है, मर जाता है और शवयात्री हैं कि व्यवस्थित होकर चल ही नहीं सकते।’
वह तो गनीमत है, सर, कि श्मशान निश्चित स्थान पर हैं, वरना ये मूर्ख होली की तरह बिजली के तार बचाकर चाहे जिस स्थान पर मुरदा जलाने लगते। और इन कामचोरों को देखिए, शवयात्रा में कम-से-कम साठ-सत्तर तो होंगे। सब अपना-अपना काम-धंधा छोड़ आए हैं। राष्ट्र-व्यापार को कितनी हानि पहुँचा रहे हैं !’

शवयात्रा गुजर चुकी थी। सहसा दयाराम वर्मा चीखा, ‘सर, देखिए, वह शवयात्री किशोर क्या कर रहा है ? आपका कतई डर नहीं है। जानता नहीं है कि आप इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी में एम.ए.किए हुए हैं। बताइए, खड़ा होकर प्रिंसिपल साहब की कोठी को भिगो रहा है। अरे, गंगाजल छिड़कता तो कोई बात भी थी। अगर प्रिंसिपल साहब ने यकायक फाटक खोला तो ?
‘कुत्ता कहीं का !’ दयाराम वर्मा उस किशोर की ओर लपका और पीछे से उसकी गरदन नाप ली। बेचारा किशोर अधूरा काम छोड़ फाला बनाता शवयात्रा के पीछे भागा।
प्रो.प्राणनाथ और दयाराम कॉलेज के अंदर पहुंचे तो अलग-अलग ग्रुपों में प्राध्यापक, क्लर्क और चपरासी चर्चाओं में लीन थे। चर्चा का प्रमुख विषय दीक्षांत समारोह और प्राध्यापकों का प्रबंध-समिति के समक्ष प्रदर्शन था। प्रो.प्राणनाथ मौन नहीं थे, किंतु उनके स्वर में जान नहीं थी, ‘कितनी महत्वपूर्ण मींटिग हो रही थी। बिल्डिंग सेक्रेटरी का चुनाव होने जा रहा था, मगर प्राध्यापकों ने सब गुड़-गोबर कर दिया।’
‘क्या कुछ नवनिर्माण होने जा रहा है ?’

‘क्या मालूम कि नया बनेगा या पुरानी इमारतों की मरम्मत होगी ! लाखों की ग्रांट आई है, महाभारत तो मचेगा ही।’
‘गहरे में हाथ तो सुधाकर विष्णु के होंगे। पनवाड़ी भी उसके मुकाबले क्या सफाई से चूना लगाएगा। जो भी हो, कल दीक्षांत समारोह है, अत: बिल्डिंग सेक्रेटरी का चुनाव फिर हो जाएगा, पहले प्राध्यापकों की बात सुननी चाहिए, बात अवश्य ही महत्वपूर्ण होगी।’
‘अजी, खाक महत्वपूर्ण होगी। औरों को सीख विद्या दे, अपनी खाट भीतरी ले। जब से हड़ताल पर थे ! हड़ताल समाप्त हुई तो कितनों ने क्लास ली ! परीक्षा सिर पर और कोर्स की चिंता नहीं।’
‘विषय टूथपेस्ट सा प्रसंग से बाहर जा रहा है। छात्रों को क्लास न लेने की शिकायत प्राचार्य से करनी चाहिए, हमें क्या ?’
नारे गूँज रहे थे, ‘शिक्षक एकता जिंदाबाद!’ ‘पहले हमारी बात सुनो।’

कुछ तृतीय और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी प्राध्यापकों के साथ खड़े थे और ‘शिक्षणेतर कर्मचारी संघ जिंदाबाद !’ के नारे लगा रहे थे। कौन है ? क्यों और कैसे खड़ा है ? कोई नहीं पूछ रहा था। प्रो.वर्मा अब कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे।
अचानक प्रबंध समिति कक्ष से दो मूर्तियां निकलीं। एक सावन के बादलों जैसी सलोनी और दूसरी मफतलाल ग्रुप की टेरीकॉट-सी सफेद। छोटी गरदन वाली रमानाथ वर्मा सेक्रेटरी की सलोनी मूर्ति करबद्ध हो मुखरित हुई, ‘आप हमारी मीटिंग चलने दें, हम अपना एजेंडा छोड़कर पहले आपके विषय पर आपके प्रतिनिधियों से बात करेंगे।’

‘ऐसा नहीं हो सकता।’ कई प्राध्यापक एक साथ चीख उठे, ‘शिक्षक संघ का निर्णय है कि हमारे प्रतिनिधि प्रबंध समिति की मीटिंग में तब तक भाग नहीं लेंगे, जब तक आप हमारी माँगों पर निर्णय घोषित नहीं करते। और यह आप जानते ही हैं कि हमारे प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति में प्रबंध समिति के सभी निर्णय अवैध होंगे।’
थोड़ी देर की गरमागरमी और बूँदाबाँदी के बाद शिक्षक संघ के नए-पुराने सचिव और अध्यक्ष तथा छह प्रतिनिधि कक्ष के अंदर चले गए। मगर दरवाजे पर चिक के सहारे अब भी कई खुर्राट प्रोफेसर खड़े थे, जो अंदर बैठे अपने प्रतिनिधियों को नाम से पुकार-पुकारकर प्रोम्ट कर रहे थे।
तभी प्रबंध समिति कक्ष से वरिष्ठ एवं वृद्ध सदस्य किशोरी रमण बाहर निकले और प्राध्यापकों से सहज भाव से पूछा, ‘आप लोगों की क्या माँगे हैं ?’









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