लोगों की राय

उपन्यास >> खेला

खेला

नीलाक्षी सिंह

प्रकाशक : सेतु प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :398
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15777
आईएसबीएन :9789389830576

Like this Hindi book 0

‘‘कच्चा तेल कभी अकेले नहीं आता। किसी के भी पास अकेले नहीं आता। किसी के पास दौलत लेकर आता है तो किसी के पास सत्ता लेकर। किसी के पास आतंक तो किसी के पास भय लेकर आता है वह।’’

नीलाक्षी सिंह के उपन्यास ‘खेला’ का यह अंश उनकी इस कृति को समझने का एक सूत्र देता है और उसके पाठ से गुजरते हुए हम पाते हैं कि कच्चा तेल अंततः दुनिया की शक्ति संरचना और लिप्सा के रूपक में बदल गया है। इस बिंदु पर यह उपन्यास दिखलाता है कि सत्ताएँ मूलतः अमानवीय, क्रूर तथा बर्बर होती हैं; वे सदैव हिंसा के मूर्त या अमूर्त स्वरूप को अपना हथियार बनाती हैं। सत्ता के ऐसे जाल के बीचोबीच और बगैर किसी शोर-शराबे के उसके खिलाफ भी खड़ी है एक स्त्री-वरा कुलकर्णी।

देश-विदेश के छोरों तक फैले इस आख्यान को नफरत और प्यार के विपर्ययों से रचा गया है। इसीलिए यहाँ भावनात्मक रूप से टूटे-बिखरे लोग हैं और उसके बावजूद जीवन को स्वीकार करके उठ खड़े होने वाले चरित्र भी हैं। युद्ध, आर्थिक होड़, आतंकवाद, धर्म के अंतर्सबंधों की सचेत पड़ताल है ‘खेला’ तो इनका शिकार हुए मामूली, बेक़सूर, निहत्थे मनुष्यों के दुख, बेबसी की कथा भी है यह उपन्यास।

‘खेला’ को आख्यान की सिद्ध वर्णन कला और विरल सृजनात्मक भाषा के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए। उक्त दोनों ही यहाँ जीवन, विचार, कला के सम्मिलित धागों से निर्मित हुए हैं और इनकी एक बेहतर पुनर्रचना तैयार कर सके हैं।

संक्षेप में ‘खेला’ के बारे में कह सकते हैं : एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास जिसमें अभिव्यक्त खुशियाँ, त्रासदियाँ असहा, बेधक और बेचैन करने वाली हैं फिर भी पाठक उनकी गिरफ्त में बने रहना चाहेगा।

– अखिलेश

जब-जब हिंदी कहानी में दोहराव या ठहराव आया है, कोई एक ऐसा रचनाकार उभर कर आगे आ गया है जिसने इस विधा में नयी जान डाल दी है। नीलाक्षी सिंह ऐसा ही नाम है। सन्‌ 1998 से लेखन शुरू कर नीलाक्षी बहुत जल्द 2004 में हमें ‘परिंदे का इंतज़ार सा कुछ’ जैसी यादगार कहानी दे सकीं।

प्रस्तुत उपन्यास ‘खेला’ विश्व बाज़ार की उठापटक और इनसान की जद्दोजहद का जीता-जागता तमाशा पेश करता है। एक नितांत अलग दुनिया की तस्वीर जिसमें कच्चे तेल के करतब, मज़हब और मारकाट के खेले चलते जा रहे हैं। वरा कुलकर्णी दुनिया को अपनी मौलिक नज़र से देखती है और इसी बात से खुश है कि हर ग़लती उसने अपने आप की है। विश्व बाजार की भाग-दौड़, धर्म की धमक भरी अँधेरार्दी और हिंसा की तथाकथित सहिष्णुता, पाठक को झटके से होश में लाती है।

यह सुखद है कि अन्य रचनाकारों की तरह नीलाक्षी सिंह को जल्दी-जल्दी पाँव बढ़ाने को हड़बड़ी नहीं है। शुद्धिपत्र के पश्चात्‌ यह नया उपन्यास ‘खेला’ काफी अंतराल पर आया है लेकिन उनकी यादगार कहानियों जैसा ही, उपन्यास के क्षेत्र में प्रस्थान-बिंदु साबित हो सकता है।

– ममता कालिया

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book