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निदान चिकित्सा हस्तामलक-3

वैद्य रणजितराय देसाई

प्रकाशक : वैद्यनाथ प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :584
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15789
आईएसबीएन :0

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आमुख

सौन्दरनन्द महाकाव्य में भदन्‍त अश्वघोष ने कहा है –

यो व्याधितो व्याधिमवैति सम्य-ग्व्याधेनिंदानं च तदौषधं च।

आरोग्यमाप्नोति हि सोऽचिरेण मित्रैरभिज्ञैरुपचर्यमाणः।। -25/40

-तात्पर्य, रोगाक्रान्त जिस पुरुष को अपने रोग का समीचीन (उभ्यता-ज्ञानकर्मात्मक उभयविध) परिज्ञान है, अन्य शब्दों में जिसके लिए उस राग का पंच निदान एवं चिकित्सा हस्तामलकवत्‌ है वह, इसी प्रकार रोगविषयक ज्ञान से संपन्न सुहृदोंद्वारा विहित परिचर्या और उपचार द्वारा शीघ्र ही रोग से मुक्ति पाता है।

इस पद्य में न केवल रोगी के लिए, किन्तु उसके परिकर्मियों के लिए भी रोग-संबंधी ज्ञान आवश्यक कहा गया है। जहाँ तक मुझे विदित है, आयुर्वेद के किसी ग्रन्थ में न केवल रुग्ण के लिए, उसके परिचारकों के लिए भी रोगों के निदान-चिकित्सा के परिज्ञान की उपादेयता का उल्लेख नहीं है। यह अश्वघोष का अपना ही दर्शन है।

यह सत्य है कि, आयुर्वेद में प्रज्ञापराध के लक्षण के रूप में अपने हित-अहित आहार-विहार, औषध, देश (जलवायु) और काल (विशेषतः ऋतु) के ज्ञान, यथाकाल स्मृति तथा हित-अहित आहार-द्रव्यादि का संयोग होने पर अरुचिकर भी हित के सेवन एवं रुचिकर भी अहित के परित्याग के लिए उचित धृति (संयम) का जो उपदेश पूर्वाचार्यों द्वारा किया गया है तथा पञ्च-निदान के प्रकरण में उपशय-अनुपशय के ज्ञान का जो सूचन किया गया है वह, कुछ कुछ भदन्त अवघोष के वक्तव्य को स्पर्श करता है। तथापि, उसके उपर्युक्त वचन के समान स्पष्ट निर्देश आयुर्वेद के उक्त प्रकरणों में है नहीं। संभव है आयुर्वेद के चूड़ान्त ज्ञाता अश्वघोष को अपने समय में उपलब्ध किसी आयुर्वेदीय ग्रन्थ में यह विधान देखने में आया होगा। आज से एक-दो पीढ़ी पूर्व के वृद्ध स्त्री-पुरुषों में रोग के लक्षण और चिकित्सा-संबंधी जो ज्ञान पाया जाता था वह इस दिशा में प्रमाण है। यह परंपरा आयुर्वेद के लिए अतीव हितकारक थी।

आज स्थिति यह है कि, आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से शुद्ध आयुर्वेद का पाठ्यक्रम प्रवर्तित किया गया है, तथापि उसका भी अभीप्सित परिणाम देखा नहीं गया। उसके स्नातक प्रायः शुद्ध एलोपेथी का ही व्यवहार अपने व्यवसाय में करते हैं। उसके कारण स्पष्ट हैं, जिन्हें देखते इन स्नातकों को दोषपात्र नहीं समझा जा सकता।

परन्तु इस स्थिति के विपरीत एक सुखद स्थिति भी आयुर्वेद के पक्ष में है। पाश्चात्य चिकित्सा शास्त्रोक्त औषध भले त्वरित कार्य करते हों, तथापि एक तो वे रोग को मूलोच्छिन्न नहीं करते, दूसरे उनमें असात्यता (रीएक्शन, एलर्जी) भी उतनी ही देखी जाती है। समाज भी बहुधा इन औषधों के भयस्थानों से सुपरिचित होता जा रहा है। स्वयं एलोपेथी के चिकित्सक भी इस दृष्टि से आतंकित हो चले हैं। न केवल स्वदेश में पाश्चात्य चिकित्साशास्त्र पढ़कर स्नातक हुए तथा स्नातकोत्तर पदवी प्राप्त चिकित्सक, प्रत्युत विदेशों में चूडान्त शिक्षा प्राप्त व्यवसायी तथा परामर्शदाता चिकित्सक भी आयुर्वेद के अनुयायी औषधों के व्यवहार के प्रति आकृष्ट हुए हैं। अभी तो उनकी दृष्टि आयुर्वेद के कल्पित पाठों के अनुसार निर्मित, आकर्षक परिवेश वाले तथा सुबहु विज्ञापित औषधों तक ही मर्यादित है। पूर्वाचार्योक्त पाठों के अनुसार निर्मित औषधों के प्रति उनका लक्ष्य उतना गया नहीं है। तदपि, औषध-निर्माता संस्थाएँ अब परिस्थिति से बाधित होकर अपनी औषधों को युगानुरूप स्वरूप देती जा रही होने से उनके प्रयोग के लिए भी परिस्थिति अनुकूल होती जा रही है।

कठिनाई एक ही है और वह यह कि, पाश्चात्य चिकित्साशास्त्र में जैसे बड़ी संस्था में स्नातकोत्तर पदवी प्राप्त विशारदों की उपलब्धि होती है, वैसी स्थिति आयुर्वेद के पक्ष में है नहीं। उधर, विश्व के कोने-कोने से पाश्चात्य चिकित्साशास्त्र-संबंधी साहित्य असाधारण मात्रा में ग्रामवासी चिकित्सक तक को सुलभ है। स्थिति यह होने से चिकित्सक का पाश्चात्य चिकित्सा के प्रति दृढ़ विश्वास तथा आकर्षण नैसर्गिक होता है।

तो यह स्थिति है, जिसको ओझल न करते हुए आयुर्वेदानुरागियों को कार्य करना है। भगवान्‌ ने फल की आकांक्षा रखे बिना निष्काम कर्म करने का जो उपदेश दिया है, उसे दृष्टि में रखें तो बह निराशा की परिस्थिति में भी विचलित होने से हमारी रक्षा करेगा। जिस भी व्यक्ति को आयुर्वेद के लिए जो कुछ भी करने की अन्तःस्फुरणा हो वह अन्य आयुर्वेदानुरागियों द्वारा स्वीकृत कर्तव्य की टीका किए बिना, अपने को स्फुरित कार्य पूर्ण करने में तल्लीन हो जाए।

एष एवं पन्‍था विद्यतेऽयनाय।

लेखक ने स्वाध्याय, आयुर्वेद को समझने में उपयोगी हो सके इतना व्यवसाय और इन दोनों के आधार पर लेखन का मार्ग अपनाया है। ग्रन्थमाला के द्वितीय खण्ड के आमुख में महेश्वर कवि (वैद्य और काव्यकर्ता दोनों) का वचन उद्धत कर विद्वज्जनों से ग्रन्थ को वत्सल्तापूर्वक अनुकम्पामयी दृष्टि से निहारने की जो अभ्यर्थना की है, उसे यहाँ भी दुहराता हुआ यह आमुख समाप्त करता हूँ। बैद्यनाथ-प्रतिष्ठान, नागपुर के प्रकाशन, प्रचार व मुद्रण विभागों का भी पूर्ववत्‌ आभार मानता हूँ।

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