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बालकृष्ण भट्ट रचना-संचयन

गंगासहाय मीणा

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 15941
आईएसबीएन :9789387989986

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हिंदी आलोचना जिन लेखकों के साथ न्याय नहीं कर सकी है, उनमें बालकृष्ण भट्ट एक प्रमुख नाम है। रामचंद्र शुक्ल ने अपने साहित्येतिहास में बालकृष्ण भट्ट के निबंधों की तारीफ की है और उन्हें ‘हिंदी गद्य परंपरा का प्रवर्तन’ करने वाले लेखकों में माना है। अपने साहित्येतिहास में रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं, “पं. प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्य साहित्य में वही काम किया जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया था।” रामविलास शर्मा ने बालकृष्ण भट्ट की कई प्रसंगों में प्रशंसा की है, जिनमें प्रमुख हैं-इतने समय तक हिंदी प्रदीप निकालना, आधुनिक हिंदी आलोचना के जन्मदाता, प्रगतिशील आलोचना की नींव डालना आदि। अपना निष्कर्ष देते हुए रामविलास शर्मा लिखते हैं कि “बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी प्रदीप चलाकर देश और समाज के लिए अपूर्व साधना का उदाहरण हमारे सामने रखा…वह अपने युग के सबसे महान विचारक थे।”

बालकृष्ण भट्ट का साहित्यिक संसार पर्याप्त विस्तृत है। उन्होंने नई चेतना से लैस सैकड़ों निबंधों की रचना कर हिंदी समाज को जगाया, दो पूर्ण उपन्यासों और कई अपूर्ण उपन्यासों, दो कहानियों और दर्जनों मौलिक व अनूदित नाटकों की भी रचना की। भट्ट जी के दोनों पूर्ण उपन्यासों, नूतन ब्रह्मचारी और सौ अजान एक सुजान अपने समय की चेतना के साथ खड़े दिखते हैं। दोनों का उद्देश्य समाज-सुधार है। इसलिए इनमें आदर्शवाद और उपदेशात्मकता हावी है। भट्ट जी के नाटकों में अधिकांश संस्कृत ग्रंथों पर आधारित या ऐतिहासिक हैं, जैसा काम वैसा परिणाम प्रहसन नए समय और संदर्भों के साथ रोचक बन पड़ा है।

बालकृष्ण भट्ट हर बात को तर्क की कसौटी पर कसते हैं। उनके विश्लेषण में कहीं-कहीं उनके संस्कार हावी होते हैं, लेकिन अंततः वे ज्यादा देर तक तर्क का साथ नहीं छोड़ पाते। उनके बारे में सत्यप्रकाश मिश्र के इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि “बालकृष्ण भट्ट अपने जीवन काल तक अपने समय के सबसे अधिक सजग, सक्रिय सोद्देश्य प्रधान, भविष्यद्रष्टा लेखक थे…हिंदी नवजागरण के वे ऐसे जाग्रत प्रतीक हैं जिनमें कर्म और वाणी, दोनों स्तरों पर कहीं भी राजभक्ति की गंध नहीं मिलती। वे तिलक के समर्थक थे।”

जब राष्ट्र और राष्ट्रवाद का कोई खाका भी न बना हो, उस दौर में उपनिवेशवाद से लड़ने और उसके ख़िलाफ लोगों को जागरूक करने का सबसे सशक्त तरीका होता है-देश की वर्तमान हालत का जायजा, देश की दुरावस्था के कारणों की पड़ताल और दुरावस्था की जिम्मेदारी तय करना’। भट्ट जी के लेखन में यह कूट-कूटकर भरा है। बालकृष्ण भट्ट से हिंदी आलोचना की शुरुआत भी मानी जाती है। उनके लेखों में सैद्धांतिक आलोचना के तत्त्व तो मिलते ही हैं, साथ ही उन्होंने उस समय प्रकाशित हो रही रचनाओं पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ लिखकर व्यावहारिक आलोचना का मार्ग भी प्रशस्त किया। भट्ट जी की भाषा और उनके विचारों के आधार पर वे कबीर की परंपरा के लेखक प्रतीत होते हैं। जैसे कबीर ने एक समता मूलक समाज का सपना देखा, वैसे ही बालकृष्ण भट्ट भारतीय समाज की भीतरी समस्याओं और बाहरी साम्राज्यवादी शासन के ख़िलाफ अवाम को जगाने और एकजुट करने का संकल्प लेते हैं। इस संकलन में भट्ट जी की भाषा को यथावत्‌ बनाए रखा गया है क्योंकि वही उस समय की भाषा का सौंदर्य है। उम्मीद है कि सुधी साहित्य प्रेमियों को यह संकलन पसंद आएगा।

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