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ब्राह्मण की बेटी

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1597
आईएसबीएन :81-85830-97-5

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शरत् जी अत्यंत प्रभावशाली उपन्यास।

Brahman Ki Beti a hindi book by Sharat Chandra Chattopadhyay - ब्राह्मण की बेटी - शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1

मुहल्ले भर घूमकर तीसरे पहर रासमणि घर लौट रही थीं। आगे-आगे उनकी पोती चल रही थी जिसकी उम्र कोई दस बारह साल की थी। गाँव का सँकरा रास्ता-जिसकी बगल की खूँटी में बँधा हुआ बकरी का बच्चा एक किनारे पड़ा हुआ सो रहा था। उस पर नजर पड़ते ही पोती को लक्ष्य कर वे चिल्ला पड़ीं, अरी छोकरी कही रस्सी मत लाँघ जाना ! सामने रस्सी मत...लाँघ गई क्या ? हरामजादी, आसमान में देखती हुई चलती है। आँख से दिखलाई नहीं पड़ा कि सामने बकरी बँधी है ?’’
पोती ने सहज भाव से कहा-‘बकरी तो सो रही है दादी !’
-सो रही है तो क्या दोष नहीं लगा ? आज मंगलवार के दिन तू बेखटके रस्सी लाँघ गई ?’
-‘तो इससे क्या हुआ दादी ?’

-‘इससे क्या होता है ! मुँहजली ब्राह्मण के घर की इतनी बड़ी छोकरी, तुझे इतना भी नहीं मालूम कि बकरी की रस्सी नहीं लाँघनी चाहिए ! और पूछती है, इससे क्या होता है ! इन बदमाश औरत मर्दों के मारे तो रास्ता चलना मुश्किल हो गया है। मंगलवार की अशुभ घड़ी में, लड़की रस्सी लाँघ गई ! मैं पूछती हूँ, क्यों, किस मतलब से यह बकरी रास्ते पर बाँधी गई ? उनके घर क्या लड़के-लड़कियाँ नहीं हैं ? उनका क्या कभी कुछ बुरा भला नहीं हो सकता ?’
सहसा उसकी नजर दुले जातिकी एक लड़की पर पड़ी, जिसकी उम्र बारह तेरह साल की थी। बकरी को हटाने के लिए वह घबराई हुई भागी आ रही थी। अब वे उस पर टूट पड़ीं-कौन है री, बिल्कुल शरीर से सटी जा रही है ! अन्धी है जो देख नहीं सकती ? पूछती हूँ, इस लड़की के शरीर से तूने अपना आँचल क्यों छुआ दिया ?’
दुले लड़की मारे डर के जड़-सी हो गई-‘नहीं महाराजिन मइया, मैं तो इधर से जा रही हूँ।’
रासमणि ने अत्यन्त विकृत मुँह बनाकर कहा-इधर से जा रही हूँ। इधर जाने की तुझे क्या जरूरत है री ? बकरी का बच्चा शायद तेरा ही है ? पूछती हूँ किस जाति की है तू ?’
-‘दुले हैं महाराजिन !’

-‘दुले ? और असमय में तूने लड़की को छू दिया ?’
मुझे तो उसने छुआ नहीं, दादी !’ उसकी पोती ने कहा।
रासमणि ने धमकाकर कहा-‘तू चुप रह मुँहजली ! मैंने देखा कि इसने अपने आँचल का किनारा तेरे शरीर से लगा दिया। जा, अब इस साँझ की बेला पोखरी में डुबकी लगाकर मर। बिना डुबकी लगाए घर में पैर मत रखना’, फिर हाथ चमकाकर कहने लगीं, अब जाति धरम रखना भी मुश्किल हो गया है। इन बदमाशों का दिमाग तो इतना बढ़ गया है कि देवता ब्राह्मण की भी कोई परवा नहीं करतीं, हरामजादी, बकरी बाँधने के लिए दुलों के टोले से आ गई ब्राह्मणों के टोले में ?’
दुले लड़की मारे लज्जा और डर के गड़-सी गई। बकरी के बच्चे को गोद में उठाकर उसने महज इतना ही कहा-‘मैंने तो छुआ नहीं महाराजिन।’

-‘छुआ नहीं ! पूछती हूँ, इस टोले में मरने के लिए आई ही क्यों ?’
लड़की ने हाथ उठाकर पास ही में किसी एकान्त को दिखलाकर कहा, गाय बैलों के उस सार के पीछे ही महाराज जी ने हमें रहने की जगह दे दी है। दादा ने मुझे और माँ को निकाल दिया है न ?’
चाहे जिसकी भी हो, जिस वजह से भी हो, मगर एक आदमी की दुर्गति की कहानी सुनकर रासमणि का कुद्र हृदय कुछ कुछ खुश हुआ और इस रुचिकर खबर को विस्तारपूर्वक जानने के लिए उन्होंने पूछा-मैं पूछती हूँ, तुझे कब निकाल दिया है री ?’

‘परसों ही रात को महाराजिन !’ लड़की ने डरते-डरते कहा।
ओ’ ! तू शायद एक कौड़ी दुले की लड़की है ? और एक-कौड़ी के मरते ही बुड्ढे ने तुम्हें निकाल बाहर किया ? आग लगे इन नीच जातियों के मुँह में। क्यों जी, उसने निकाल बाहर किया तो तुम क्या ब्राह्मणों के मुहल्ले में रहने लगोगी ? तुम लोगों की भी आजादी कम नहीं है ! किसने बुलाया है तेरी माँ को शायद रामतनु बनर्जी के दामाद ने ! उसके अलावा ऐसी विद्या और किसमें है। दामाद है तो दामाद की तरह रहे ! ससुर की जमीन जायदाद पा गया है तो क्या इस मुहल्ले में डोम-चमार और दुले इकट्ठा करके बसा देगा ?’

इतना कहकर रासमणि ने जोरों से आवाज दी-सन्ध्या अरी ओ सन्ध्या।’
एक छोटे-से मैदान के उस पार रामतनु बनर्जी के मकान के जनानखाने की खिड़की की थी। उनकी आवाज को सुनकर पास ही खिड़की खोलकर कोई अट्ठारह-उन्नीस साल की एक सुन्दर बाला ने मुँह निकालकर कहा-अरी माँ ये तो नानी हैं ?’ कहते-कहते वह बाहर निकल आई।

रासमणि ने कहा-‘तेरे बाप की अक्ल कैसी है बिटिया ! तेरे नाना रामतनु बनर्जी एक नामी-गरामी आदमी थे और उन्हीं के बाप-दादों के घर में आज बागदी और दुले बस रहे हैं। कितनी बुरी बात है बिटिया।’
फिर गाल पर हाथ रखकर कहने लगीं-‘जरा अपनी माँ को एक बार बुला तो बेटी ! इसका कोई उपाय करना होगा-चाहे तो तू कह दे या मैं ही जाकर चटर्जी दादा से कहती हूँ ! वे तो जमींदार हैं, मशहूर आदमी हैं, जरा सुनूँ तो कि आखिर वे क्या कहते हैं ?’

सन्ध्या ने आश्चर्यचकित होकर पूछा-‘नानी आपको हो क्या गया है ?’
तू अपनी माँ को एक बार बुला तो सही। उसको बताऊँगी- क्या हो गया है मुझे।’
फिर उसने अपनी पोती की ओर इशारा करके कहा-‘मंगलवार की अशुभ घड़ी में यह लड़की बकरी की रस्सी लाँघ गयी है और उस दुले छोकरी ने अपने आँचल से बच्ची को छू दिया....’
सन्ध्या ने दुले लड़की से पूछा क्यों री तूने छू दिया ?’’
अभी तक वह बेचारी बकरी के बच्चे को गोद में लेकर एक ओर खड़ी थी। रोती सी आवाज में उसने कहा-‘ना, दीदी, मैंने नहीं छुआ।’

और रासमणि की पोती भी साथ ही साथ कह पड़ी-ना सन्ध्या दीदी, उसने मुझे नहीं छुआ...’’
मगर उसकी यह बात दादी की हुंकार में खत्म हो गयी।
-‘फिर ना कह रही है हरामजादी ! पहले तू घर तो चल। वहीं चलकर बताऊँगी कि तू छू चुकी है या नहीं।’
सन्ध्या ने हँसकर कहा-‘जबर्दस्ती करने से वह कर ही क्या सकती है नानी।’
रासमणि जल-मुन गईं-जबर्दस्ती करें या न करें, यह तो मैं समझबूझ लूंगी, मगर तेरे बाप का यह व्यवहार कैसा है ? जरा सुनूं तो कि कौन भला आदमी अपने बाप-दादों के मकान में नीच जातियों को बसाता है ? बात बात में लोग कहते हैं कि दुले हैं तभी तो दुलों को ब्राह्मणों के मुहल्ले में बसाता है ! मैं कहती हूँ कि घर जमाई का घर जमाई की तरह ही रहना अच्छा लगता है।’

पिता के बारे में ऐसी अपमानजनक बातें सुनकर सन्ध्या का मुँह मारे गुस्से के लाल हो गया। उसने भी कड़े स्वर में जवाब दिया-‘दूसरे की डीह पर तो छोटी जाति बसाने के लिए बाबूजी नहीं गए नानी ! उन्हों तो अपनी जगह में आश्रय दिया है, फिर तुम्हें क्यों इतनी जलन हो रही है ?’
-‘मेरी जलन तू देखेगी ? जाकर कह दूँ चटर्जी दा से ? दिखला दूँ अपनी जलन ?’
-‘कहने से तुम्हें कौन रोकता है नानी ! बड़ी खुशी से जाकर कह दो।’
-‘बड़ी अच्छी बात ! वह कोई ऐरा गैरा नहीं-गोलक चटर्जी है ! तेरे बार ने अभी उसे पहचाना नहीं है ! अच्छा...’
शोरगुल सुनकर जगद्धात्री बाहर चली आई। उन्हें देखते ही राममणि के बदन में जैसे आग लग गई। चीख-चीखकर मुहल्ले भर को उसने सर पर उठा लिया-सुन लो जग्गो, अपनी लाड़ली की बातें जरा सुन लो। तू उसे पढ़ना-लिखना सिखला रही है न ! कहती है, कहना गोलक चटर्जी से वे क्या बाबूजी का सिर काट लेंगे। कहती है, अपनी डीह परदुले डोम बसाया है, किसी के बाप-दादे की जमीन में नहीं बसाया है ! बड़े आदमियों को बहुत देखा है, जिसका जो जी चाहे कर ले। सुन लो अपनी लाड़ली की बातें जरा सुन लो...’’

जगद्धात्री ने विस्मित और क्रोधित होकर पूछा-‘कहीं हैं तूने ये बातें।’
सन्ध्या ने सिर हिलाकर कहा-‘मैंने ऐसा कुछ तो नहीं कहा !’
रासमणि उसके मुँह पर हाथ हिलाकर फट पड़ीं-नहीं कहा तुमने ? ये सभी गवाह हैं।’

मगर, दूसरे ही क्षण उन्होंने अपने कंठ स्वर को अनिर्वचनीय कौशल से आसमान से बिलकुल खाई में उतार दिया और जगद्धात्री को सम्बोधित करके कहने लगीं-मैंने अच्छी ही बात कही थी बेटी ! मंगलवार की अशुभ घड़ी में लड़की बकरी की रस्सी लाँघ गई इसीलिए मैंने कह दिया, किसने रास्ते में यह बाँध दी। तभी यह दुली छोकरी दौड़ी हुई आयी और अपना आँचल घुमाकर बच्ची के मुँह पर मार ही तो दिया ! और उस पर ये कहने लगी कि महाराज जी की जमीन में मैंने बकरी बाँधी है, तुम कौन होती हो बोलने वाली ! इसीलिए बेटी, तुम्हारी लड़की को बुलाकर मैं कह रही थी कि बिटिया, असमय में लड़की को नहाना पड़ेगा, मंगल के दिन...। तुम्हारे बाबूजी ने अगर इन्हें मुहल्ले में बसा ही दिया बिटिया, तो बकरी टकरी जरा देख भालकर रास्ते से हटाकर बाँधा करें। नीच जाति वालों को आचार-विचार का कुछ ज्ञान तो रहता नहीं ! और चटर्जी दा ठहरे बूढ़े आदमी-उसी रास्ते से आया-जाया करते हैं, बिगड़कर कभी मार-पीट ही कर बैठें। बस इतना ही कहा था बेटी, कि तेरी लड़की जैसे मारने के लिए टूट पडी ! कहती है, बुला लाओ अपने चटर्जी दा को बड़े-बड़े आदमियों को बहुत देखा है। अब तुम्हीं बताओ बेटी कि ऐसी बातें क्या लड़कियों के मुँह से शोभा देती हैं ?’
जगद्वात्री ने गुस्से से लाल होकर अपनी लड़की से पूछा-कहीं है तुमने यह सब ?’

सन्ध्या अब तक अवाक् हो, रासमणि की ओर देख रही थी। माँ की आवाज से चौंककर उसने महज इतना ही कहा-‘‘नहीं।’
-‘तुमने कहा नहीं तो मौसी क्या झूठ कह रही हैं ?’
-‘जरा पूछो तो सही ! रासमणि ने कहा।

क्षण-भर चुप रहकर सन्ध्या ने माँ के सवाल का जवाब दिया, ‘मैं नहीं कहती माँ कि कौन झूठा है। मगर अपनी लड़की की बनिस्बत अगर इस बनावटी मौसी को ही तुम ज्यादा पहचान सकी हो तो उन्हीं की बात को सच मान लो।’
इतना कहकर दूसरे सवाल की अपेक्षा किये बिना ही वह तेज कदमों से अन्दर चली गई। दोनों की ही आँखें उसकी ओर देखती रह गईं। और तभी मौका पाकर दुले लड़की भी गोद में बकरी का बच्चा लेकर वहाँ से खिसक गई।
रासमणि ने कहा-‘देख लिया न जग्गो, सुन लिया न इसकी बातें ! कहती है बनावटी मौसी ! कुलीन के घर की लड़की है न, शादी हुई होती तो अब तक पाँच-छः बच्चे की माँ बनी होती ! बनावटी मौसी ! सुन लिया न !’
जगद्धात्री चुप हो रही। रासमणि कहने लगीं-सुनती हूँ जग्गो कि अमर्त चकवर्ती के लड़के को अभी भी तुम लोग अपने घर में आने देती हो ! मैं पूछती हूँ, यह क्या कोई अच्छी बात है।’

जगद्वात्री मन-ही-मन शंकित हो गई। रासमणि कहने लगीं-मैंने तो उस दिन पुलिन की माँ से झगड़ा ही कर दिया ! मैंने कहा कि रामतनु बनर्जी की पुत्री। जो कायस्थों के घर पाँव तक नहीं धरते थे। वे भला उस म्लेच्छ छोकरे को आँगन में पैर रखने देंगे। तुम लोग कह क्या रही हो।’

इस हित चिन्तन की ममता के शर्मिन्दा होकर जगद्धात्री ने जरा सूखी हँसी हँसकर कहा-‘बात तो तुम ठीक ही कहती हो मौसी, मगर बचपन से ही वह इस घर में आता जाता रहा है। मुझे काकी कहते-कहते जब तब चला आता है, इसी से मुँह खोलकर कुछ कहते नहीं बनता। माँ बाप नहीं है इसलिए बच्चे को देखकर बड़ी माया लगती है।’
रासमणि पहले तो अवाक् हो गईं, फिर कुद्र स्वर में बोलीं-भाड़ में जाय ऐसी माया।’

अचानक वे फिर फट पड़ी थीं और चीख-चीखकर कहने लगीं-वह घाघ छोकरा क्या मामूली बदमाश है। ऐसा नालायक छोकरा खोजने पर भी गाँव में नहीं मिलेगा। चर्टजी दा जमींदार हैं, उन्होंने खुद ही लड़के को बुलाकर कहा था, ‘अरुण, वजीफे के लालच को तिलांजलि देकर चुपचाप भले लड़के की तरह बैठ जाओ।’ मगर, उसने क्या कहा, कुछ सुना ? इतने बड़े इज्जतदार की इज्जत उसने नहीं रक्खी ! उलटे कहता गया, ‘विलायत जाने से जाति चली जाय तो वह अच्छा है मगर गोलक चर्टजी की तरह बकरी-भेड़ विलायत भेजकर रुपया कमाना अच्छा नहीं। समाज के माथे पर सवार होकर और लोगों को जान मारते हुए मैं घूम नहीं सकूँगा।’ मैं अगर वहाँ होती जग्गो तो मारे झाड़ू के छोकरे का मुँह सीधा कर देती। जो गोलक चटर्जी भात भी खाता है तो गोबर से मुँह धोता है, उसे ही उसने...’
जगद्धात्री ने विनयपूर्वक कहा-मगर अरुण तो कभी किसी की शिकायत नहीं करता मौसी !’
-‘तो मैं क्या झूठ कह रही हूँ तो चटर्जी दा ने.....’

-‘ना ना, वे झूठ क्यों कहने लगे ? मगर लोग बहुत सी बातें बना कर....’
-‘तेरी भी बस एक ही रही जग्गो। लोगों को क्या कोई काम-धन्धा नहीं जो बात गढ़ने लगें।’ मैं पूछती हूँ कि आखिर विलायत जाकर ही वह कौन डिप्टी कलक्टर हो गया ? सीख आया है बस हलवाहों और खेतिहारों की विद्या। सुनकर मारे हँसी के जान निकल जाती है। चक्रवर्ती हो चाहे कुछ भी हो मगर है तो आखिर ब्राह्मण का ही लड़का। देश-गाँव में क्या ? हलवाहे नहीं थे। जरा पूछे कोई उससे कि अब हल-बैल लेकर खेत-खेत में जोतता फिरेगा ? मरना है मरना।’
उनकी आवाज क्रमशः तेज हुई जा रही थी। कहीं मुहल्ला भर न टूट पड़े इस डर से जगद्धात्री ने धीरे से कहा-खड़ी क्यों हो मौसी, अन्दर चल कर जरा बैठ जाओ न।’
ना बिटिया साँझ हो गई, अब नहीं बैठूँगी। लड़की को भी तो नहला धुलाकर घर ले जाना है। दुली छोकरी शायद भाग गई ?’

‘हाँ, दादी, वह तो कभी भी भाग गई ! मगर उसने मुझे छुआ नहीं....’
-‘फिर ना कहती है हरामजादी !-मगर बिटिया मुहल्ले में फिर दुले डोम मत घुसने देना ? जमाई बाबू से भी कह देना।’
-‘जरूर ही कहूँगी मौसी कल ही मैं उन्हें निकाल बाहर करूँगी। उनके रहने से हम लोगों का ही पोखरा घाट खराब होगा और सबसे यह झगड़ा कौन मोल लेगा ?’
-‘भला तुम्हीं बताओ कि इनके मारे क्या किसी का जाति धरम रह सकेगा ? यही तो मैंने कहा था, मगर आजकल की लड़कियाँ क्या किसी की कुछ सुनती हैं ? तभी तो चटर्जी दा ने उस दिन अवाक् होकर कहा था-रासू सुनता हूँ कि हम लोगों की जगद्धात्री की लड़की को उसका बाप पढ़ा लिखा रहा है ? उन्हें मना कर दे न, पढ़ना-लिखना सीखने से लड़कियाँ एकदम रसातल में चली आती हैं।’

जगद्धात्री के डर की कोई सीमा न रही। बोली-चटर्जी दादा ने शायद कहा था ?’
-‘भला कहेगा क्यों नहीं ? वह है समाज का माथा, गाँव का जमींदार। उसके कान में कौन सी बात नहीं पहुँचती, बतलाओ ? मैं बूढ़ी हो गई, पढ़ने-लिखने का नाम तक नहीं जानती, मगर कौन शास्तर ऐसा है जो मैं नहीं जानती, बतलाओ ? किसके बाप में इतनी ताकत है जो कह सके कि रासू बाम्भनी ने एक भी काम आशाश्तरी किया है ? यही जो लड़की बकरी की...तो मैं देखते ही काँप गई कि छोकरी, यह तुमने क्या किया ? आज तो मंगलवार की अशुभ घड़ी है ! यहाँ कौन पण्डित ऐसा है जो यह कह सके कि इसमें दोष नहीं ? बिटिया, मुझे माँ-बाप से शिक्षा मिली थी। बुला तो अपनी लड़की को देखूँ, कैसे बता पाती है।’
जगद्धात्री ने चुपचाप सब कुछ मान लिया और कहा-जरा बैठोगी नहीं मौसी ?’
-‘ना बिटिया शाम हो गई-फिर किसी दिन आऊँगी-चल री खेंदी, घर चल।’
कहकर पोती को आगे कर कई कदम चलने के बाद सहसा वे लौटकर खड़ी हो गईं और पूछने लगीं-‘जग्गो ऐसे अच्छे पात्र को हाथ से क्यों जाने दिया, बतला तो सही ?’

-‘सुनती हूँ, उसके घर-द्वार कुछ भी नहीं है और उम्र भी ज्यादा है।–तुम्हारे दामाद की उम्र का होगा।’
राममणि ठिठक गई-जरा सुनो इनकी बातें, कहती हूँ उसके घर द्वार नहीं है, मगर तेरे तो हैं ? तेरे तो बस एक ही लड़की है फिर और चिन्ता किसकी ? बेटी दामाद को लेकर तुम घर सँभालती तो यह क्या कुछ बुरा होता बेटी ? रही उम्र की बात, तो कुलीन घराने के लड़के की चालीस-पैंतालीस की उमर भी क्या कोई उमर है ? लड़का रसिकपुर के जयराम मुखर्जी का नाती है। फिर उसकी उमर कौन पूछता है जग्गो ? इसके अलावा अपनी लड़की की उमर तो देखो। इस तरह टालती जाओगी तो शादी कब करोगी ? अपनी छोटी बुआ की तरह इसे भी आखिर में कुंआरी बुढ़िया बना दोगी ?’
जगद्धात्री ने सलज्जभाव से कहा-‘यही तो मैं भी कहती हूँ मौसी, मगर लड़की का बाप...’
बात पूरी होने के पहले ही रासमणि जल-भुनकर कहने लगी-लड़की का बाप क्यों नहीं कहेगा ? उसके अपने ही कौन सा घर-द्वार और जमींदारी और जमींदारी इलाका था ? नाम हँसा दिया तुम लोगों ने। इसके अलावा उस अरुण के मकान में रात-दिन चलता है ! फिर ऐसी बात कहना और सुनती हूँ कि हुक्का-पानी तक चलता है ! फिर ऐसी बात वह न कहेगा तो कौन कहेगा। चटर्जी दा’। तुमने तो हद कर दिया जग्गो।

मगर कहे देती हूँ बिटिया, जब घर-वर मिल गया है तो और बेकार ही लालच में पड़कर वही पुराना किस्सा मत दुहरा देना। तेरी छोटी बुआ गुलाबी, कुँआरी ही रहकर बुड्ढी हो गई और तेरे बाप की भी बड़ी और मझली बुआओं की शादी नहीं हो सकी थी और तुम्हारे मां-बाप अगर काशी में नहीं रहने लगे होते तो तुम्हारी भी ठीक समय पर शादी न हुई होती। समधिन थीं काशीवसिनी। कोई टंटा बखेड़ा नहीं था। दामाद स्कूल में पढ़ रहा था। घर वर ज्योंही मिली, त्योंही तुम लोगों की शादी हो गई और लड़की दामाद लेकर गाँव के लोग गाँव चले आये। कहीं शादी न कट जाय, इस डर से पहले किसी को खबर तक नहीं की गई थी। यह तो अच्छा ही हुआ, नहीं तो शादी होती या नहीं, यही कौन जानता है ? ना रे खेंदी। अब चल ! जयराम मुखर्जी का नाती घर द्वार उमर काला सफेद कितनी बातें सुनूँगी ? अब देर मत कर री, बढ़ चल। देखती हूँ, कपड़ा लत्ता कचारते-पूजा पाठ करते एक पहर रात बीत जाएगी। मगर यह भी कहे देती हूँ जग्गो, कि किस्तान फ्रिस्तान को घर में आने देना और लड़की के साथ हँसी मजाक करने देना ठीक नहीं। कहीं यह बात चारों ओर फैल गई तो लड़की की शादी हो ना मुश्किल हो जाएगा बेटी ! ....ना-ना खेंदी, अब चल ! दूसरे की बात छिड़ जाने पर तू हिलना भी नहीं चाहती।’

पोती को आगे कर बड़बड़ाती हुई रासमणि चली जा रही थीं। जगद्धात्री कुछ देर तक उसी ओर शंकालु सी देखती रही और सहसा सजग होकर बोली-‘खेदीं जरा खड़ी तो हो जा बिटिया। कल ही खेत से भण्टा-लऊकी लाया था, दो-चार लेती तो जा !’ कहकर तेज कदमों से वे अन्दर चली गईं।


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