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कोणार्क

त्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी

प्रकाशक : विजयिनी पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16006
आईएसबीएन :9789382360803

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कोणार्क सूर्य मन्दिर की कहानी पर काव्य नाटक

दो शब्द

कोणार्क के विषय में ओडिशा में कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, पर किसी को सही तौर पर यह पता नहीं है कि चंन्द्रभागा नदी पर जहाँ वह समुद्र के साथ मिलती है, कोणार्क मंदिर का निर्माण क्यों किया गया था? जो पहली किंवदंती हैं, उसके अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र शांब को अपनी सुंदरता पर अत्यंत गर्व था। उनका गर्व इतना अधिक बढ़ गया था कि उन्होंने महर्षि नारद जैसे महान ऋषि की भी हँसी उड़ाई, क्यों कि महर्षि देखने में कुरूप थे। इस हंसी से नारद काफी नाराज हुये। अत: उन्होंने निश्चय किया कि इस घमण्डी लड़के से वे अपनी हंसी का बदला अवश्य लेंगे। वे किसी तरह शांब को बहला-फुसला कर, ताकि उसे किसी प्रकार का संदेह ना हो, उस जगह पर ले गये जहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण की प्रेमिका पत्नियाँ, जो शांब की सौतेली मातायें थीं, नंगे बदन तालाब में स्नान का आनंद ले रही थीं। जब भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का पता चला कि उनका पुत्र औरतों की ताक-झाँक करता है तो काफी नाराज हुये और शांब को कुष्ठ रोग हो जाने का शाप दे दिया। बाद में उनको असलियत का पता लगा कि इस निरीह को देवर्षि नारद ने अपनी चालाकी से धोखा दे कर वहाँ बुला लिया था तो वे काफी दुखी हुये, किन्तु अपने शाप से शांब को मुक्त न कर सके। फलत: उन्होंने शांब को यह सुझाव दिया कि वह भगवान सूर्यदेव की पूजा करे, जो सभी चर्मरोगों से मुक्त करने वाले देवता हैं। बारह वर्षों के कठिन प्रायश्चित और पूजा के बाद सूर्यदेव ने शांब को चंद्रभागा के पास जा कर समुद्र में स्नान करने का परामर्श दिया। शांब ने सूर्यदेव की आज्ञा का पालन किया और भयंकर शाप से मुक्ति पाई। निरोग होने के बाद शांब इतने प्रसन्न हुये कि तुरंत ही उस स्थान पर सूर्यदेव का एक मंदिर बनवाने का निश्चय कर डाला जो “कोणार्क” के नाम से प्रचलित हुआ। कोणार्क- अर्थात सूर्यदेव का मंदिर। ऐसी भी किंवदंती है कि शांब को समुद्र स्नान के समय एक मूर्ति प्राप्त हुई, जिसका आकार सूर्यदेव जैसा था और शांब ने मंदिर बनवा कर उस मूर्ति को वहाँ पर स्थापित किया और तभी से चंद्रभागा नदी का वह स्थान पवित्र माना जाने लगा।

एक दूसरी किंवदंती कोणार्क मंदिर के बारे में यह भी प्रचलित है कि गंग राजवंश के उत्कल सम्राट नरसिंह देव-१ (तेरहवीं शताब्दी1238-64) ने कोणार्क मंदिर की रचना करवाई थी। इस विषय में ओडिशा के इतिहासकारों, साहित्यकारों के मुताबिक महाराज नरसिंह देव जब अपने यौवन काल में थे, पड़ोसी राज्य शिशुपाल गढ़ के अतिथि हुये थे। वहाँ के प्रवास काल में राजकन्या महामाया देवी से युवक राजकुमार नरसिंह देव का प्रेम धीरे-धीरे परवान चढ़ने लगा। आखिर में राजकुमार नरसिंहदेव ने शिशुपालगढ़ महाराजा से उनकी कन्या महामाया देवी का हाथ मांगा, पर महाराजा ने इस प्रस्ताव को अग्राह्य करदिया। कहते हैं कि राजकुमारी को यह सदमा सहन नहीं हुआ और उन्होंने आत्महत्या करली। राजकुमार नरसिंह देव को इस घटना से बहुत आघात पहुँचा और वे स्वय अपने हाथों से उठा कर राजकुमारी महामाया देवी का शव, वहाँ से हो कर बहने वाली दया नदी में बहा दिया। शव बहते-बहते उस स्थान पर गहरे जल में पहुँच गया जिसे चंद्रभागा नाम से जाना जाता है। जब लोगों को वहाँ पर एक लाश पानी में तिरती दिखाई दी तो लोग शोर मचाने लगे। होते-होते यह खबर राजकुमार नरसिंह देव तक, जो इस घटना के बाद अपनी राजधानी पुरी लौट आये थे, पहुंची और वे भी उस लाश को देखने गये। वहाँ जा कर देखा कि लाश महामाया देवी की ही थी। इसके उपरांत जब वे महाराजा बने, एक बार अपनी महारानी के साथ चंद्रभागा पर्यटन के लिये गये हुये थे। रात के विश्राम के बाद सुवह जब महारानी उठी और चंद्रभागा का सूर्योदय का दृश्य देखा तो महाराजा से वहाँ पर सर्य-मंदिर बनवाने का अनरोध किया। महाराज ने महारानी का अनरोध स्वीकार करते हुये चंद्रभागा में सूर्य-मंदिर स्थापना की प्रतिश्रुति दी। और उसी समय उन्होंने यह भी मन ही मन निश्चय किया कि सूर्य-मंदिर बनने के पश्चात यहाँ सूर्य देव की प्रतिमा स्थापना होगी साथ ही उनकी प्रेमिका राजकुमारी महामाया देवी की प्रतिमा भी स्थापित की जायगी।

राजधानी पुरी वापस आकर नरसिंह देव ने विश्वनाथ महारणा की अगुवाई में बारह सौ शिल्पियों, कलाकारों का एक दल चंद्रभागा भेजा और अपने राज्य का बारह वर्षों का राजस्व भी उस मंदिर के निर्माण में खर्च कर दिया। बारह वर्षों तक चलने वाले मंदिर के इस काम में असुविधा तब हुई, जब प्रधान शिल्पी विश्वनाथ द्वारा शिखर पर बार-बार कलश बैठाने पर भी कलश स्थिर न रह सका। महाराज ने क्रुद्ध हो कर यह आदेश पारित किया कि यदि सात दिनों के अंदर शिखर पर कलश नहीं बैठता तो सभी बारह सौ शिल्पियों का शिर काट कर उन्हें मृत्यु की सजा दी जायगी। बारह सौ शिल्पी यह आदेश सुन कर स्तब्ध थे कि उसी समय उन शिल्पियों को- विश्वनाथ महारणा के पुत्र धर्मपद द्वारा आशा की एक किरण दिखाई दी।
किंवदंती के अनुसार प्रधान शिल्पी विश्वनाथ का पुत्र धर्मपद जो उस समय बारह वर्षों का था अपने पिता से मिलने चंद्रभागा आया हुआ था और जब उसे वहाँ की समस्या का पता चला तो उसने पिता से कह कर मंदिर का कलश बैठा दिया। प्रधान मंत्री शिव सामन्तरा को जब इस बात का पता चला तो उन्हें भय हुआ कि यदि महाराज को इस बात का पता चलेगा कि इस मंदिर का कलश एक बालक ने बैठाया है, जो इस शिल्पी दल का नहीं है, तो भी वे इन शिल्पियों का शिर कटवा देंगे। बालक धर्मपद ने जब यह सुना तो उसने समुद्र में छलांग लगा कर अपने को तिरोधान कर लेने का निश्चय कर लिया और उन बारह सौ शिल्पियों के जीवन की रक्षा की।

मैंने जिस किंवदंती का अनुसरण किया है वह, यह दूसरी कथा ही है और इस काव्य की रचना का आधार भी यही है। कथा तो पूर्ण हो गयी है। इस कथा के माध्यम से इस काव्य के सृजन के लिये मैं पिछले काफी वर्षों से छटपटाहट में रहा हूँ। माँ सरस्वती के सामने शिर नमा कर प्रार्थना की है। कह नहीं सकता, कथा सचमुच ही पूर्ण हो गयी है, अथवा कुछ अलिखा भी रह गया।

- त्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी   

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  1. दो शब्द

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