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इसीलिए

अशोक कुमार बाजपेयी

प्रकाशक : वी पी पब्लिशर एण्ड डिस्ट्रीव्यूटर प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16015
आईएसबीएन :9789384120306

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कवितायें

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया


उक्त उक्ति का जीवन भर पालन करने वाले बाबू जी चाहते थे कि सभी लोग समाज में प्रसन्न रहें और सम्मान सहित अच्छे ढंग से जीवन जिएं। यथा नाम तथा गुणाः अपने नाम 'प्रेमशंकर' के अनुरूप सदैव हृदय से सभी को प्यार करते रहे। यद्यपि उनका वाह्य व्यक्तित्व शख्त था परन्तु हृदय निर्मल नारियल की तरह। वह प्रकृति प्रेमी थे हमेशा घने, बड़े और फलदार पेड़ों के पोषक रहे। आज भी हम उनके लगाए घने  पेड के नीचे दरवाजे पर बैठते हैं जो उनकी बार-बार याद दिलाता है। भगवान की पूजा के साथ कर्म पर अधिक विश्वास करते थे सिर एवं गिलहारियों को खाना खिलाना उनकी दिनचर्या में शामिल था।

मैंने अपनी पुस्तक 'पिंजड़े से पिंजड़े तक' में उनके व्यक्तित्व कतित्व एवं स्वाभिमान को लेकर 'समानान्तर सेत्' शीर्षक से कर लिखी थी जो बहुत सराही गई। वास्तव में आज मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि कविता के नायक (केन्द्र में) मेरे बाबू ही थे।

कविता के कुछ अंश

पिता
अर्थात् एक स्वाभिमानी पुरुष
जो कभी भी अभाओं में टूटा नहीं
सामाजिक बन्धनों से कभी रूठा नहीं
चलता रहा जो एकदम अकेला
गांव हो या हो कोई मेला
अपनी ही बात को मानवता रहा
दूसरों के गीत तो सुने
पर गीत अपना ही गाता रहा।

आज भी घर की वो आन हैं
दरवाजे पर मिले हरदम
घर की वो शान हैं
डर नहीं है, वो जो है
हैं पिता वो, शान हैं वो
मान हैं वो घर की पहचान हैं
वो वो पिता हैं
वो पिता हैं।

काव्य संग्रह 'हम कविता जीते हैं' में डॉ. सुरेश अवस्थी ने अपनी  भूमिका में समानान्तर सेतु' को रेखांकित करते हुए लिखा है कि कविता में रिश्तों का कोई महाकाव्य अवतरित होना चाहता है।

बाबू जी एक समाज सेवी के रूप में क्षेत्र में अपने समय में कई दशकों तक चर्चित रहे एवं लोगों की समस्याओं का समाधान करते रहे। संयम एवं अनुशासन की एक बोलती हुयी पुस्तक की तरह से बाबू आज भी प्रायः सामने खड़े दिखते हैं। उनकी वही कड़कती हुयी आवाज, वैसा ही स्वाभिमानी व्यक्तित्व, अपनी बात मनवाने की क्षमता, घर परिवार को समेट कर ले चलने की कुशलता, समाज में अपना प्रतिष्ठा पूर्ण प्रभाव, किसी प्रकार के राग-द्वैष से दूर रहते हुए अंत तक अपने जैसा अपना प्रभुत्व बनाए जमाए रखना।

इस सब के बीच जब-जब उनके कहे हुए शब्द याद करता हूँ| तब-तब आस पास एक प्रकाश का घेरा मुझे अंकोर लेता है शायद इसीलिए उनके सामाजिक एवं राजनैतिक सम्बन्धों को मैं भी उसी प्रकार करते रहने का प्रयास करता हूँ जैसा वह चाहते थे।

वैसे भी मैं साहित्य के साथ-साथ सामाजिक सम्बन्धों और मानवीय मूल्यों को प्राथमिकता के साथ मान्यता देता हूँ इसी कारण हर वर्ग से | जुड़ा हूँ। यह बाबू जी को भी अच्छा लगता था और मैं महसूस करता हूँ| कि वह इस पर गर्व भी करते थे। आज वह नहीं है पर उनकी बातें तो | याद आती ही रहेंगी उनकी ताकीद और तासीर भी रही ऐसी ही।

देह त्यागने से एक दिन पहले ही जब मैं उनके पास बैठा था तो वह अचानक हाथ पकड़कर कहने लगे अशोक तुम घर देखे रहना, मैं इसका अर्थ खोज रहा हूँ। घर तो हर दृष्टि से सुरक्षित है परन्तु उनका यह कहना मुझे सोचने समझने को विवश करता है। अर्थ शायद दृष्टतः आज अगुह्य लगता है पर मुझे विश्वास है कि एक दिन मेरी लेखनी इसे शब्द रूप दे सकेगी।

समर्पण के साथ...
उनकी कीर्तिमयी स्मृतियों को प्रणाम।

- अशोक

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