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कविता संग्रह >> पखेरू गंध के

पखेरू गंध के

देवेन्द्र सफल

प्रकाशक : दीक्षा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16022
आईएसबीएन :000000000

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गीत संग्रह

भूमिका

हम कम्प्यूटर युग में आ पहुँच है आर अव कविता की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाये जाने लगे हैं। पूछा जाने लगा है, कि इक्कीसवीं सदी में कविता की जरूरत ही क्या होगी? 'देश आर स्मृति' विषय पर बोलते हुए साहित्य अकादमी की व्याख्यानमाला में इसका सटीक उत्तर देत हुए अज्ञेय ने कहा था, 'अगर हम तब अपनी ही काई ज़रूरत होगी, ता जीवन में काव्य के रचना-कर्म की भी ज़रूरत होगी। जब, आर अगर, हमने अपने को ही ग़ैरज़रूरी बना दिया होगा, तब की बात आर है। आर वह बात दूसरों के करने की है, न कवि के, न सहृदय के।'

कविता दूरागत काल की स्मृति रही है, लेकिन आज वह मात्र समकालीनता में जी रही है। आधुनिक कवि सम-सामयिकता और वर्तमानबाध से आक्रान्त है। उसमें अतीत हुए समय को तत्काल' में भाग लेने का सामर्थ्य नहीं रह गया है, यहाँ तक कि आदि से अनन्तताकामी गीत भी समग्र-समय से विमुख होकर समसामयिकता के व्यामोह में अटक गया।

सभी मानते हैं, कि काव्य की सर्वोत्तम उपलब्धि गीत हे आर गीत का कवि कालातीत, अनन्तता का कवि होता है। समयातीत होकर भी, गीत समय-शून्य नहीं होता। वह समय में रह कर, समय का अतिक्रमण करता है। पिछले पचास वर्षों में गीत के विरुद्ध अनेक प्रकार के आम्दालन चले, यहाँ तक कि गीत को अप्रासंगिक करार देने की कोशिश भी की गयी, लेकिन उसकी संजीवनी-शक्ति उसे आज भी जीवित रखे हुए है और वह कल भी जीवित रहेगा। सर्वमान्य आलोचक डॉ० नन्ददुलारे बाजपेयी ने भी स्वीकार किया है, कि 'युगीन जीवन में जितनी ही बोद्धिकता और भातिकता बढ़ेगी, हृदय की पुकार की, गीतों के प्रणयन की, उतनी ही अधिक आवश्यकता होगी।'

- देवेन्द्र सफल

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    अनुक्रम

  1. भूमिका
  2. अनुक्रम

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