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कविता संग्रह >> पतझर में कोंपल

पतझर में कोंपल

डॉ. मंजु लता श्रीवास्तव

प्रकाशक : ज्ञानोदय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16033
आईएसबीएन :9789385812866

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कवितायें

पतझर में कोंपल : एक विशिष्ट गीत संग्रह

-  डॉ. कुँअर बेचैन

 

गीत युग-युगों से अपनी अनवरत बहने वाली परम्परा की नदी के रूप में अनेक घाटों से होता हुआ मानव-हृदय में बहता रहा है, किन्तु उसका मूल उदगम तो विरह ही है. यदि कही विरह है तो उससे पहले साक्षात अथवा भाव-रूप में मिलन भी रहा होगा. इसीलिए साक्षात विरह के क्षणों में भी उस विरह का भोक्ता भाव-रूप में और अपनी कल्पना में उन मिलन के क्षणों को बार-बार अपने सामने लाता रहता है या फिर उन क्षणों को सामने लाता रहना चाहता है. अमेरीकन कवि एवं दार्शनिक सान्तायेनाने ने कहा है जो अतीत का स्मरण नहीं करते उन्हें अतीत में ही रहने का दंड मिलता है'.... डा. मंजु श्रीवास्तव के इस गीत-संग्रह 'पतझर में कोपल.' में प्रेम और गीत दोनों की ही नदियों को बहते रहने की उदात्त आकांक्षा निहित है. प्रेम है तो प्रेम के अनगिन क्षणों की यादें भी होगी इसलिए वे यह कहती हैं किये याद ने फिर पगफेरे / आओ प्रिये बैठ बतियाएँ।'..

बैठने-बतियाने में वे सब स्थितियां जो विरह से पहले की थी उनको पुर्नस्थापित करने की ललक इस संग्रह के कई गीतों में है. वे तन-मन के मधुर स्पर्श, वे अधरों पर उतरने वाली मीठी मीठी बातें, वे एक दूसरे के लिए प्यारे-प्यारे और न्यारे संबोधन, वे कसमें-वादे, वे दो छायाओं के अलावा दुनिया को भूल जाने की बात, वह भावुक क्षणों का नशा, वह जीवन भर साथ निभाने का संकल्प, वे सब रोमांस के दिन, हाँ, ये सब फिर फिर सामने लाने की कामना प्रेमी-जनों में होती ही है. वे नन्हीं खुशियों के नन्हे-नन्हे अंकुर , वे छुईमुई छुअनें, वे चंदनी साँसों की सुगंध, इन सबका पुनरावलोकन चाहती हैं दे. मंजु अपने प्रिय से यह भी चाहती है चाह है प्रिय ! रूप की पतवार लेकर आज आओ, बाँध की, हम रज्जु खींचें।... आओ प्रिय! हम शुष्क जीवन में तनिक भाव-सरिताएं उलीचें।... इन भाव-सरिताओं को उलीचने से जीवन की मरुथली भूमि पर रस प्रवाहित होने लगता है. डा, मंजु के गीत भी जीवन में आई मधुऋतु की याद दिलाते हैं और खुशियों के मादक पलों की छलकन से भीग जाना तथा हमें भी भिगोना चाहते हैं. इस कार्य में मंजु जी पूरी तरह सफल हुई हैं. वे जानती हैं कि अगर उनके साथ ये गीत न होते तो इन विरह के पलों में उनका साथ निभाने के लिए फिर कौन होता'..वे कहती हैं' गीत जो तुम भी ना होते . कौन होता साथ मेरे?...' सचमुच कवि-मन अपने दुःख-सुख को गीतों में कहकर अपरिमित संतोष का अनुभव करता है.

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    अनुक्रम

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