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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

: 2 :

 

प्रकाशचन्द्र के साथ मां की वार्ता के समय विमला भी वहां थी। श्रीमती तो सदा की भांति अपने कमरे में विश्वम्भर के साथ भोजन कर रही थी। प्रकाशचन्द्र के भोजन समाप्त करने के उपरान्त विमला ने कहा, "मांजी! यह तो ठीक नहीं हो रहा।"

''क्या ठीक नहीं हो रहा?''

' भैया नाराज हो घर छोड़ रहे हैं।"

''देखो विमला! घर का द्वार उसके लिए कभी बन्द नही होगा। भले ही वह हमारे इष्टदेव को गालियां देता रहे। यह बात व्यक्तिगत है। इसमें हम कैसे आपति कर सकते हैं, परन्तु घर में परस्पर एक; दूसरे की आवश्यकताओं की अवहेलना करना और जान-बूझकर घर वालों को कष्ट पहुँचाना परिवार में सहन नहीं किया जा सकता। सत्य व्यवहार रखना सनातन धर्मों में है। जब इसमे ही परिवार वालों से अधर्माचरण होने लगा तो फिर परिवार रहा ही नहीं, ऐसा मानना पड़ेगा।

''जिस समाज में सनातन धर्मों का विरोध होता है, वह समाज विनष्ट हो जाता है। ऐसे समाज को अधर्माचरण करने वाले घटक को अपने में से निकाल ही देना चाहिए। समाज बचाने का यह ही उपाय है।"

चन्द्रावती विमला को अपने व्यवहार की सफाई देकर अपने कमरे में चली गयी थी और विमला 'विश्राम करने अपने कमरे में जा पहुँचा।

श्रीमती के कमरे में एक अन्य विस्मयजनक घटना घट रही थी। प्रकाशचन्द्र वहां पहुँचा तो श्रीमती विश्वम्भर को अपने कमरे में एक पृथक खटोला डलवा भोजनोपरान्त सोने के लिये कह रही थी। लड़का कह रहा था, "मौसी। नींद नही आयी।"

''इस पर भी भोजन किया है न। आधा घण्टा लेटना चाहिए।"

"इससे क्या होगा?"

"खायी रोटी पच जायेगी और तुम जल्दी-जल्दी अपने पिता जितने बड़े हो जाओगे।'

"रोटी खाने से?''

''हां, और उसको पचाने से। रोटी खाने के उपरान्त आधा घण्टा लेटा जाये तो रोटी पच जाती है और फिर बच्चे बड़े होने लगते हैं।"

"यह बात प्रकाश श्रीमती के कमरे में प्रवेश कर सुन रहा था। उसने पूछ लिया, "इसे बड़ाकर क्या करोगी?"

"जब लल्ला बड़ो हो जायगा तो इसका विवाह करूंगी और आपका वश चलेगा।

''यह तुम्हारे बिना किए भी चलेगा। देखो, श्रीमती! मैं घर छोड़ रहा हूं।" 

"और कहा जा रहे हैं?

"अभी तो दिल्ली में एक क्वार्टर मिला हैं। वहा चलकिर रहूँगा। वहीं अपना कार्यालय बताऊंगा। तदनन्तर पिताजी से पृथक होने पर अपना एक मकान बना वहां ही रहूँगा।"

''पर मैं तो यह घर अब नहीं छोडूँगी।"

''क्यों?"

''अब इस लड़के को गोद लूंगी। इसका पालन-पोषण करूंगी और इसको आपके पिताजी की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनाऊंगी।" 

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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