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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

: 9 :

 

सेठजी का टेलीफोन दिन में तो कार्यालय में रहता था और कार्यालय के समय के उपरान्त सेठजी के कमरे में आ जाता था। वैसे तो चन्द्रावती बम्बई से ही किसी संदेश की प्रतीक्षा कर रही थी, परन्तु संदेश आया बरेली से, लगभग चौबीस घण्टे की प्रतीक्षा के उपरान्त। प्रात: साढ़े पांच बजे टेलीफोन की घण्टी बजी तो सेठानी ने उठकर चोगा उठाया और बात सुन विस्मय करने लगी कि क्या विशेष बात हो सकती है?

सेठजी ने कहा, "मोटर लेकर बरेली स्टेशन पर आ जाओ। मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।''

सेठानीजी ने पूछा, "मैं आऊं अथवा कमला को भेज दूं?"

''नहीं, तुम स्वयं अकेली आओ।"

चंद्रावती समझ गयी कि बदायूं की लड़की के विषय में ही बात हो सकती है। अत: वह उसी समय बाहर जाने योग्य कपड़े पहन अपने कमरे से निकली और बिना कमला को बताये हवेली की ड्यौढ़ी में जा खड़ी हुई। चौकीदार को भेज महावीर ड्राईवर को बुला मोटर निकलवायी और बरेली को चल दी।

कमला को मा के जाने का समाचार उसी समय मिला जब वह अल्पाहार के लिए खाने के कमरे में आयी। शीलवती कमरे के बाहर विचारमग्न खड़ी थी। कमला ने अध्यापिका के मुख पर देखा तो समीप आ पूछ लिया, "बहनजी। अल्पाहार नहीं होगा?"

''माताजी कहीं गयी हैं।"

''कहां गयी हैं?''

"किसी को पता नहीं। साढ़े पांच बजे के लगभग महावीर मोटर ड्राईवर से गाड़ी निकलवा चली गयी हैं। चौकीदार ने इतना सुना है कि वह ड्राईवर को बरेली की ओर चलने के लिए कह रही थीं।"

इस पर कमला ने मुस्कराते हुए कहा, "पिताजी तार देखते ही

चले आए हैं और माँ उनको बरेली स्टेशन से लेने गयी हैं।''

"विचार तो मैं भी कुछ ऐसा ही कर रही थी, परन्तु माताजी बता कर भी नहीं गयीं।''

''बहनजी! वह मेरे विषय में पिताजी से मुझसे पृथक् बात करना चाहती होंगी। यदि मुझे बतातीं तो कदाचित मैं भी साथ जाने का आग्रह करती।"

दोनों खाने के कमरे में चली गयीं। कमला ने घड़ी में समय देख कहा, "आप कह रही हैं कि साढ़े पांच बजे वह यहां से गयी हैं। अत: वह लौटने ही वाली होगी। इस समय साढ़े आठ बज रहे हैं।" "तो उनकी प्रतीक्षा कर ली जाये?''

कमला ने पाचक को कह दिया, "तनिक ठहर जाओ। हम आधा घण्टा माताजी की प्रतीक्षा करना चाहती हैं।"

नौ बजे तक भी मोटर नहीं लौटी तो दोनों ने अल्पाहार ले लिया। अल्पाहार के बाद कमला कार्यालय जाने के लिये नीचे उतर गयी। उस समय ड्योढ़ी पर मोटर के हार्न का शब्द हुआ। कमला कार्यालय की ओर जाने के स्थान हवेली के द्वार की ओर चली गयी।

व्यवसाय का कार्यालय हवेली के बांये कक्ष में था। इसका मुख्य द्वार हवेली से बाहर था। यद्यपि हवेली के भीतर सो भी जाने का मार्ग बना हुआ था। सेठजी तथा घर के अन्य प्राणी कार्यालय के भीतरी मार्ग से जाते थे।

वह चकित रह गयी, जब उसने देखा कि सेठजी, सेठानीजी और उनके साथ एक सुन्दर युवती गोद में एक बच्चा लिये गाड़ी से निकली कमला मुख देखती रह गयी। उसे शील की पिछले दिन की सूचना स्मरण हो आयी। उसके मन में प्रकाश होने लगा। उसे ऐसा स्मरण आने लगा था कि वह युवती कहीं देखी हुई है। वह कौन है, उसे स्मरण नहीं आ रहा था।

सेठजी ने भीतर जाते हुए कमला से पूछ लिया, "कार्यालय जा रही हो?" 

"जी।"

''अल्पाहार हो गया?''

''जी।" कमला एक-एक शबद में ही उत्तर दे रही थी।

"तो चलो। मैं भी पेट में कुछ डाल वहां आ रहा हूं।''

कमला बिना उत्तर दिये, कार्यालय की ओर घूम गयी और सेठजी तथा उनके पीछे सेठानी और गोद में लिये बच्चे के साथ भूमि? ओर देखती हुई वह युवती ऊपर की मञ्जिल पर चढ़ गये।

नौकर-चाकर जो प्राय: सेठजी तथा प्रकाश बाबू के बाहर से आने के समय नमस्कार करने सामने आ जाया करते थे, सेठजी को नमस्कार कर विस्मय कर रहे थे कि यह कौन हो सकती है?

जब सेठजी ऊपर की मंजिल पर चढ़ गये तो महावीर मोटर ड्राईवर ने, जानने के लिए उत्सुक नौकरों को बता दिया, "यह विमला है पुरोहितायिन सुनन्दा की लड़की।"

''यह तोबहुत बदल गयी है।" रामाधार चौकीदार ने कह दिया। 

"इसे कब देखा था तुमने?" महावीर ने पूछ लिया।

रामाधार ने कुछ विचार कर कहा, "बाबू के विवाह पर पुरोहितायिन भी आयी थी। उसके उपरांत वह यहां नहीं आयी।''

इस प्रकार की बात हो रही थी और सेठजी अपने कमरे में बैठे हुए अपनी पत्नी को विमला की कथा बता पे थे। सेठजी ने बताया, "एक मास के लगभग हुआ है, मैं बम्बई गया था तो वहां के मैनेजर ने मुझे एक कागज के टुकड़े पर लिखे टेलीफोन का नम्बर बताया और कहा, 'यहां से दो-तीन बार टेलीफोन आ चुका है कि प्रकाशचंद्र अग्रवाल आयें तो इस टेलीफोन पर सूचना दी जाये। प्रकाशजी तो आये नहीं।"

''मैंने इसे एक साधारण घटना मान कह दिया, 'प्रकाश आयेगा तो नम्बर दे देना। पंद्रह दिन हुए, मैं पुनः गया था। मैनेजर ने कहा, 'उसी टेलीफोन से पुन: आग्रह हुआ है कि प्रकाशजी को जहां भी हों, सूचना भेज दें कि उन्होंने अपना वचन पूरा नहीं किया। साथ ही टेलीफोन का नम्बर दे दें।"

''मुझे कुछ संदेह हुआ था, परंतु मैंने अभी भी इसे गम्भीर बात नहीं मानी। इस बार मैं गया तो मेरी उपस्थिति में टेलीफोन

आया। मैंने पूछ लिया, 'कौन साहब हैं?'

''इस पर आवाज आयी, 'एक औरत है जो ऊपर की मन्जिल पर रहती है। वह प्रकाशचंद्र से मिलना चाहती है।'

"मैंने कहा, प्रकाशचंद्र तो बम्बई आया नहीं और कदाचित् अभी शीघ आयेगा भी नहीं। मेरे योग्य काम हो तो बताया जाए।

''इस पर टेलीफोन पर बात करने वाले ने पूछ लिया, 'आपका शुभ नाम क्या है?' मैन नाम बताया तो वह स्त्री स्वयं बात करने लगी। उसने बताया, 'मैविमला हूं। पुरोहितायित सुनंदा र्को लड़की। "मैंने पूछा तुम यहां क्या कर रही हो? तुम्हारी मां तो तुम्हारे लिये पागल हो रही है।'

''यह मैं टेलीफोन पर बता नहीं सकती। उसने कहा--'परन्तु यदि आप कहें तो मैं आपके कार्यालय चली आऊँ?"

''नहीं, तुम बताओ कि कहा रहती हो? मैं स्वयं आना चाहूँगा।"

"इस पर उसने झिझकते हुए अपना पता बताया। वह जवेरी बाजार मे, रहती थी। मैंने उसे बताया, 'मैं सायंकाल पाच बजे आऊंगा।

''उसने कहा, जी नहीं,'अभी आइये। अन्यथा देर हो जायेगी।'

"मैं उसी समय टैक्सी पकड़ उसके निवास स्थान पर जा पहुंचा। वह एक बड़ी सी इमारत की तीसरी मन्जिल पर एक फ्लैट में रहती थी। मैं गया तो वह अपने फ्लैट के बाहर ही खड़ी एक पठान से बातें कर रही थी। मुझे आते देख उसने कहा, 'लो ये आ गये है। यह आपसे बात करेंगे।' मैंने विमला की ओर प्रश्न भरी दृष्टि में देखा तो वह बोली, 'आप इससे बात कर ले। यह मुझे कह रहा पैं कि इससे लिये ऋण पर ब्याज मुझे आज ही देना चाहिये, नहीं तो यह मेरे बच्चे को छीनकर ले जायेगा।'

''मैं इसकी कठिनाई जिसके लिये यह तुरन्त बुला रही थी, समझ गया। मैंने इसे भीतर भेज दिया और उस पठान से पूछने लगा, 'कितना बनता है तुम्हारा?'

''उसने बताया, 'एक सौ रुपया मूल है और पिछले तीन महीने से ब्याज नहीं दिया। ब्याज के पचहत्तर रुपये बनते हैं।'

''कुछ लिखत-पढ़त है?" मैंने पूछा।

"इस पर वह मेरा मुख देखने लगा। उसने कुछ विचार कर कहा, 'हम लोग लिखत-पढ़त नहीं रखते। हम कभी अदालत में नहीं जाते। हमारी अदालत तो हमारे डण्डे में ही है। आप इस बीबी से पता कर लें कि मैं सत्य कहता हूँ या झूठ कहता हूँ? झूठ बोलना हमारा ईमान नहीं।'

''तो ठीक है। मैं पूछ कर तुम्हारा रुपया अभी दे देता हूं।''

''इतना कह मैंने इसे आवाज दे दी। यह द्वार के पर्दे के पीछे खडी बात सुन रही थी। यह वहां खड़ी-खड़ी ही बोली, 'यह खान ठीक कहता हैँ।"

''मैंने उसी समय एक सौ पचहत्तर रुपये उसे दिये और उसे कहा, "अब तुम जा सकते हो और देखो, फिर कभी यहां देखा तो पुलिस के हवाले कर द्गा। मेरी यहाँ जान-पहचान सब बड़े-बड़े अफ़सरों से है।''

"उसने सलाम की और कहा, 'सेठ! हम बेईमान नहीं है।' इतना कह वह चल दिया।"

सेठानी ने बात बीच में काट कर पूछ लिया, "आपने उसे पुलिस के हवाले क्यों नहीं किया?"

''मैंने उसमें कोई खराबी नहीं समझी। वह जब से रुपये लेकर गया है कई बार इसे मिला है, झुक कर सलाम करता है और कहता है, बीबी! कभी फिर रुपये की आवश्यकता पड़े तो मैं खिदमत् के लिये हाज़िर हूं।''

''परन्तु वह बहुत बड़ा ब्याज लेता है।"

''यह ब्याज नहीं, चन्द्र! यह उसके व्यापार का लाभ है और आज तो कारखानेदार इससे भी अधिक लाभ उठा रहे हैं।"

''परन्तु उसमें हानि होने की सम्भावना है और फिर मालिक की सूझ-बूझ का भी मूल्य होता है।"

''मैं समझता हूँ कि एक पठान का बिना बहीखाते तथा रसीद- के धन बांटना कमं पर्चे हानि की सम्भावना वाला व्यापार नहीं।

''खैर, छोड़ो इस बात को! मैंनै विमला से पूछा, "तुम्हारा प्रकाश से क्या सम्बन्ध है?"

''इसने बताया, 'वह इस लड़के कें पिता हैं और मै इसकी मां हूं।" उसने समीप एक दो वर्ष कें बच्चे को खिलौने से खेलते हुए दिखा दिया।

"और प्रकाश तुम्हें कहां मिला था?" मैंने पूछा।

''बदायूं में ही। उन्होंने मुझे यह वचन दिया था कि वह मेरी सब प्रकार की आवश्यकतायें पूर्ण करेंगे। हमारा संयोग तो बदायूं में ही हो गया था। उन्होंने एक मकान भाड़े पर ले रखा था और मैं, उनसे उस मकान पर मिला करती थी। जब यह बच्चा पेट में आया तो मां ने घर से निकाल दिया और यह मुझे बम्बई ले आये। ढाई वर्ष से मैं यहां हूं। मकान का भाड़ा और पांच सौ रुपया महीना दिया करते थे। पिछले चार मास से उन्होंने कुछ नहीं भेजा। मेरे पास खर्चा चुक गया तो इसके लिये दूध का प्रबन्ध भी कठिन हो गया। एक ऐसा अवसर आया कि मै इस बच्चे के दूध का बिल देने के लिये आतुर हो गयी और इस रहमानखां से ऋण लेने पर उद्यत हो गयी। तब आपके सुपुत्र कह गये थे कि वह शीघ्र ही लौटकर आएंगे, परन्तु आये नहीं।"

"अब निर्वाह कैसे होता है?"

"एक अन्य दयालु व्यक्ति मिल गये है और वह अपनी शक्ति अनुसार सहायक हो रहे हैं, परन्तु जब इस खान ने तंग किया और वह एक साथ एक सौ रुपया नहीं दे सका। तो मैं विवश हो प्रकाशजी को टेलीफोन करने लगी थी।"

"आप इसे यहां किसलिये ले आये हैं?'' सेठानी ने पूछा।

"इसकी दो समस्यायें हैं। एकतो इससे मेरा सम्बन्ध है, वह तुम भी जानती हो और दूसरा मैं चोरी-चोरी कुछ पसन्द नहीं करता। मैं इसे इसकी मां के पास लाया था, जिससे यह इसका विधिवत् विवाह कर सके। इसकी मां ने तो इसे घर पर रखा नहीं? इसी कारण इसे अपने घर ले आया हूँ।"

"इसे अपना सम्बन्ध बताया हे?"

"नहीं। यह जानती भी नहीं। प्रकाश को भी विदित नहीं है।"

"इसे वहीं रहने देते तो ठीक नहीं था क्या?''

''यह वहाँ वेश्या बन जाती। अभी भी इसने पिछले तीन मास तक कैसे निर्वाह किया है पता नहीं। मुझे सन्देह है कि यह अपने को बेचती रही है। यह तो भाग्य की बात प्रतीत होती है कि जो इसे मिला है वह कुछ अधिक धनी प्रतीत नहीं होता। यह तो उसे अपना भाई कहती है, परन्तु मुझे विश्वास नहीं आया। इसकी मां की बात स्मरण आ गयी है। वह भी तो अब अपने बने भाई के पास रहती है।''

सेठानी चुप कर रही। उसे कमला की समस्या का ही सुझाव समझ नहीं आ रहा था। अब यह एक नयी बात सामने आ गयी थी। अत: उसने अपनी लड़की की बात कर दी, "सूरदास का क्या करियेगा?"

''मैं मुन्शी कर्तानारायण को उसे ढूंढ निकालने पर लगा दूंगा।" 

"तो शोघ्र करिये। मुझे भय है कि वह तो वेश्या का काम नहीं कर सकता। कहीं वह आतुर हुआ तो आत्महत्या कर लेगा।''

''एक ईश्वर भक्त से मैं यह आशा नहीं करता। आत्महत्या सदा वे लोग करते हैं जो परमात्मा की सामझर्ध्य पर विश्वास नहीं रखते।"

"इस पर भी शीघ्र करना चाहिये। कमला की मी बात है। वह घर से भाग जायेगी।"

"क्यों?"

''वह स्वयं उसे ढूँढने निकल जायेगी।"

सेठ मुख देखता रह गया।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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