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अंधकार

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2020
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16148
आईएसबीएन :000000000

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गुरुदत्त का सामाजिक उपन्यास

: 3 :

 

धोबी तालाब क्षेत्र में तारकेश्वरी देवी की सम्पत्ति थी और वह उस सम्पत्ति में एक 'जनरल स्टोर' चलाती थी। जनरल स्टोर का नाम था 'विमेन्स कांर्नर'। यहां सामान बेचने वाली, चौकीदारी करने वाली, हिसाब-किताब रखने वाली सब स्त्रियां ही थीं और खरीदने वाली भी स्त्रियां ही होती थीं।

काम खुब चलता था। तारकेश्वरी के भाई की लड़की प्रियवदना उस 'कार्नर' की व्यवस्थापिका थी और वह स्वयं उसकी मालकिन। इस दुकान में लगभग दस कार्य करने वाली स्त्रियां वहां सदा रहती थीं और मालकिन तथा व्यवस्थापिका पृथक्। विक्रय विभाग से क्रय विभाग पृथक था। इसी विभाग में लेखाकार बैठते थे। तारकेश्वरी देवी का सुप्रगध ही था जिस कारण इतना बड़ा व्यापार केन्द्र बिना किसी गड़बड़ के चल रहा था।

इस व्यवस्था केन्द्र के ऊपर की मन्जिल पर तारकेश्वरी रहती थी। प्रियवदना के माता-पिता का देहान्त हो चुका था और वह माता-पिता के घर में अकेली लड़की होने से तारकेश्वरी के आश्रय ही थी। उसी के साथ ही रहती थी।

जन्म से ही लड़की स्वतन्त्र प्रवृत्ति रखती थी। माता-पिता के देहान्त ने उसके हृदय पर बहुत गहरा आघात पहुंचाया था और वह अपने जीवन को सब प्रकार के बन्धनों से स्वतन्त्र कर बैठी। उसने बी0 ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की तो तारकेश्वरी ने जीवन यापन का मार्ग सुझा दिया। प्रियवदना मान गयी। अत: योजना बनी और काम आरम्भ हो गया। स्त्रियों की इस अपनी दुकान को चलते हुए चार वर्ष से ऊपर हो चुके थे। तारकेश्वरी ने दो लाख रुपया एक साथ लगा दिया था और चार काम करने वाली स्त्रियों ने काम आरम्भ कर दिया। एक मालकिन, एक व्यवस्थापिका और दो वेतनधारी बिक्री, सफ़ाई इत्यादि करने वाली।

परन्तु तारकेश्वरी की कार्य दक्षता तथा साथियों के निर्वाचन में योग्यता ने काम को चमकाया। सस्ता और बढ़िया माल ने ग्राहकों को आकर्षित किया और पूंजी ने माल में विमिन्नता की सुविधा प्राप्त की। काम चल निकला। तारकेश्वरी ने दुकान तो अपने पिता के देहान्त से पूर्व ही खोल ली थी। वास्तव में इसी दुकान के कारण पिता को पुत्री सहित बम्बई में आना पड़ा था और यह तारकेश्वरी का आरम्भ से ही अपना निजी व्यवसाय बना। पिता के देहान्त के समय उत्तराधिकार में मिली सम्पत्ति पृथक थी। इस सम्पत्ति में मकान थे और कुछ मित्रों के हिस्से थे।

तारकेश्वरी ने अपने पिता के देहान्त के उपरान्त प्रियवदना को बिना किसी प्रकार की पूंजी के केवल व्यवस्थापिका होने के नाते लाभ में भागीदार मान लिया। नकद लाभ में दस प्रतिशत उसका भाग नियत कर दिया और यह वेतन के अतिरिक्त था। वेतन पांच सौ रुपया मासिक होता था।

इससे पूर्व दो बार तारकेश्वरी हरिद्वार जा चुकी थी, परन्तु प्रियवदना तो इसे धर्म भावना कार उद्रेक समझी थी, जिससे वह उसके जाने को गंगा स्नानार्थ मानी थी। इस बार तार प्रियवदना के समय में आया। वह समझ नहीं सकी कि यह राम कौन है। उसके परिचितों में राम नाम का कोई प्राणी नहीं था। उसने तार तारकेश्वरी के पास ऊपर की मञ्जिल पर भेज दिया। अभी उसका दुकान पर आने का समय नहीं हुआ था। वह मध्याह्न के अवकाश के उपरान्त दुकान पर आया करती थी।

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    अनुक्रम

  1. प्रथम परिच्छेद
  2. : 2 :
  3. : 3 :
  4. : 4 :
  5. : 5 :
  6. : 6 :
  7. : 7 :
  8. : 8 :
  9. : 9 :
  10. : 10 :
  11. : 11 :
  12. द्वितीय परिच्छेद
  13. : 2 :
  14. : 3 :
  15. : 4 :
  16. : 5 :
  17. : 6 :
  18. : 7 :
  19. : 8 :
  20. : 9 :
  21. : 10 :
  22. तृतीय परिच्छेद
  23. : 2 :
  24. : 3 :
  25. : 4 :
  26. : 5 :
  27. : 6 :
  28. : 7 :
  29. : 8 :
  30. : 9 :
  31. : 10 :
  32. चतुर्थ परिच्छेद
  33. : 2 :
  34. : 3 :
  35. : 4 :
  36. : 5 :
  37. : 6 :
  38. : 7 :
  39. : 8 :
  40. : 9 :
  41. : 10 :

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