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शिक्षा जगत की कहानियाँ

गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1624
आईएसबीएन :81-7315-041-9

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प्रस्तुत है शिक्षाजगत् की कहानियाँ...

Siksha jagat ki kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जो शिक्षा कभी मानव-मस्तिष्क की धात्री का काम करती थी, जो शिक्षा मानव को असभ्यता के जंगल से निकालकर सभ्यों-शिक्षितों के संसार में प्रतिष्ठित करती थी, जो शिक्षा व्यक्ति की प्रगति का सबसे कारगर और सबल माध्यम हुआ करती थी, जो शिक्षा जोविकोपार्जन के सही रास्ते दिखाती थी वही शिक्षा आज मानव को निर्माण के रास्ते से हटाकर नाश की ओर प्रवृत्त करती-सी दिखती है। इसका प्रमुख कारण है उसका भ्रष्ट और गंदी राजनीति के दलदल में जा फँसना।

आज के भ्रष्ट और धंधबाज राजनीतिज्ञों ने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए हमारे शिक्षकों एवं शिक्षार्थियों दोनों का पूरा दोहन किया है। युवा पीढ़ी को गलत दिशा में भटका दिया गया है। ऐसे में सबसे पहले यह आवश्यक है कि उनमें राष्ट्रीयता की भावना का संचार कर उन्हें सही दिशा प्रदान की जाए। अन्यथा इस युवा पीढ़ी के साथ ही समूचे देश के अधःपतन को रोकना मुश्किल हो जायगा। शिक्षा जगत् की अनेक ज्वलंत समस्यायों का प्रभावशाली चित्रण करना ही इन कहानियों का उद्देश्य है।


कालेज-कैम्पस में



कालेज फिर खुल गया है। मैं घास के मैदान में खड़ा हुआ अपने चारों के वातावरण का जायदा लेता हूँ। अपने इर्द-गिर्द सैकड़ों परिचित-अपरिचित चेहरों की भीड़ देखता हूँ। कुछ मुझे देखकर मुस्कराते हैं और कुछ को देखकर मैं मुस्करा देता हूँ। कुछ ऐसे भी हैं जो इस मुस्कान का अर्थ खोजे बिना आगे बढ़ जाते हैं।
नये चेहरे, नया उत्साह और नया जोश। मैं महसूस करता हूँ कि ये सभी कोलम्बस हैं, जो आशाओं के नवीन संसार के खोजने की जिज्ञासामें अपने-अपने जहाजों पर सवार हैं। इनकी खोज के पहलुओं को समझने के लिए मैं भी इनके साथ हो लेता हूँ।

कालेज खुलने का यह पहला दिन है। सबको नये परिवेश से परिचित होने की चिन्ता है, अनजानों के बीच अपनत्व खोजने की जिज्ञासा है। कैण्टीन में प्लालों की खनक बढ़ गई है, ‘हेलो’ और ‘हाय’ का स्वर तेज़ हो गया है। विश्वास नहीं होता कि मैं कालेज के प्रांगण में हूँ। मुझे लगता हैं कि मैं किसी नुमाइश-मैदान में यै पार्क में खड़ा हूँ। मुझे ऐसा अभास क्यों हो रहा है ? मैं स्वयं भी इस सबको समझ पाने में असमर्थ हूँ। एक बात मुझे अच्छी लग रही है कि आज इनके चेहरों पर ताज़गी है, भूलों जैसी सुकुमारता, कलियों के समान चटकने की सहज कामना। कल क्या होगा, वह इन्हें आज पता नहीं है।
मैं आज फिर कालेज की प्रांगण में खड़ा हूँ। नितान्त अकेला। घण्टा लग गया है, किन्तु छात्र क्लासों में नहीं, सड़क पर खडे़ हैं- नारे लगाते हुए, प्राचार्य के खिलाफ़, व्यवस्था के खिलाफ़। कल तक आँखों में आशा और चेहरों पर मुस्कान लिए इन युवकों को किसने उकसाया है ? वह कौन है, जिसने अपना जाल फैलाकर इन सबको अपनी गिरफ्त में लिया है ? वे भोले चेहरे किसके इशारे पर विद्रोह के लिए उठ खड़े हुए हैं ? क्या है इसका उद्देश्य ? ये क्या कहना चाहते हैं ? क्या करना चाहते हैं ? शायद उनमें से अधिकांश को पता नहीं है, क्योंकि वे मात्र भीड़ हैं, जो नारे तो लगाती है, आन्दोलन और तोड़फोड़ तो करती है, किन्तु उसके परिणाम को नहीं जानती।

मैं सोचता हूँ कि विद्यालय तो विद्या के मन्दिर होते हैं और विद्या वह है, जो जीवन को सुसंस्कृत बनाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। किन्तु, जब शिक्षा स्वयं को युग की आवश्यकताओं और तेवरों के अनुरूप नहीं बना पाती तो वह जीर्ण एवं जर्जर होकर अनुपयोगी हो जाती है, अपने मूलभूत उद्देश्य की पूर्ति में अक्षम। शिक्षा तो किसी भी देश के विकास की रीढ़ है। जब यह रीढ़ कमजोर पड़ जाती है, जर्जर हो जाती है तो शरीर के बोझ का साध पाना इसके लिए असम्भव हो जाता है और आज की शिक्षा ठीक ऐसे ही युवा पीढ़ी के भविष्य को साध पाने में असमर्थ प्रतीत हो रही है।

शिक्षा और शिक्षालयों का वर्तमान स्वरूप लार्ड मेकाले ने निश्चित किया था, जो भारत में क्लर्कों की एक ऐसी फौज खड़ी करना चाहता था, जो तन से भारतीय होने पर भी मन से अंग्रेजियत पसन्द हों। हमारे दुर्भाग्य से मेकाले अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल रहा, किन्तु देश की स्वतंत्रता के इतने वर्ष बाद भी हम उसी सड़क पर खड़े हैं, जहाँ से हमने चलना आरम्भ किया था। यह हमारे लिए और भी बड़ा दुर्भाग्य है।

बड़े-बड़े आयोगों के गठन हुए, उनकी मोटी-मोटी सिफारिशें आईं, कितने ही शिक्षाविदों और राजनेताओं ने अपने बहुमूल्य सुझाव दिए, विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में शिक्षा के विकास की रूपरेखाएँ बनाई गई, इस दिशा में विषद प्रयास भी हुए, किन्तु आज भी शिक्षा और शिक्षालयों का स्वरूप उभर कर सामने नहीं आया, जो वर्तमान पीढ़ी की आशा और आकांक्षाओं के अनुरूप हो।

शिक्षा के प्रति अपना लक्ष्य निर्धारित करते हुए हमने निश्चित किया कि देश का प्रत्येक बालक साक्षर हो जाए। निरक्षरता को अभिशाप घोषित करते हुए बालकों की शिक्षा में व्यवधान बननेवाले अभिभावकों तक को अपराधी माना गया, परिमाणत: विद्यालयों में छात्रों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई। बेसिक शिक्षा को अपना लक्ष्य बनाते हुए हमने व्यावहारिक शिक्षा को सिद्धान्त रूप में स्वीकार कर लिया, किन्तु विद्यालयों को शिक्षा के वे उपकरण उपलब्ध नहीं कराए गए, जिसके कारण हम सिद्धांतों का ही ढोल पीटते रहे और प्रकारान्तर से लार्ड मेकाले की आत्मा को प्रसन्न करते हुए।

विद्यालयों में छात्रों की संख्यात्मक वृद्धि तो हुई, किन्तु उसमें गुणात्मक सुधार नहीं हुए, शिक्षा का जो व्यावहारिक स्वरूप खड़ा किया जाना चाहिए था, वह नहीं हुआ, किसानों और शिल्पकारों के बच्चों ने इस विद्यालयी शिक्षा में साँस लेते हुए हल और औजारों को त्याग दिया और छात्रों का यह दल नगरों के सौन्दर्य की ओर आकर्षित हुआ, शहरी रोजगार की खोज में भटकने लगा, किन्तु रोजगार के इतने व्यापक अवसर न पाकर अपने रास्ते से भटक गया। अब उसके पैर खेतों की ओर बढ़ने से डरते थे, किन्तु शहर उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।

इस प्रकार बेरोजगारी से त्रस्त तथा अपने भविष्य के प्रति शंकित विद्यार्थी राजनेताओं के चंगुल में फँस गया।
उसे लगा कि इसी मार्ग से उसकी प्रगति संभावित अथवा राजनीतिज्ञों की झूठी आशाओं के बल पर उसने विभिन्न राजनीतिक संगठनों को अपनी प्रगति या अपनी बात कहने का मंच बनाया। उधर चुनावी राजनीति में नेताओं को युवाशक्ति की आवश्यकता थी, जो उनके इशारों पर चलकर उनके मन्तव्यों की पूर्ति में सहयोग दे सके, परिणाम यह हुआ कि विभिन्न राजनीतिक दलों में युवा-दलों का गठन हुआ और अध्ययनरत विद्यार्थी भी उनके व्यापक जाल में फँसने लगे। आए दिन की हड़ताल और आन्दोलन उनकी जीवन-पद्धति का अंग बन गए।

देश के स्वतंत्रता-आंदोलन में अध्ययनरत युवा-पीढ़ी को आगे लाने का आह्वान किया गया था, उनकी शक्ति का भरपूर उपयोग भी हुआ किन्तु इस उपयोग ने नयी समस्याओं को भी जन्म दिया। आन्दोलन और हड़ताल के जिस हथियार को युवाओं ने विदेशी शासन के विरुद्ध प्रयोग किया था, उसी का प्रयोग वे अपने व्यक्तियों पर भी करने लगे और शासक वर्ग अथवा शिक्षालयों में बैठे वरिष्ठ अधिकारी भी इन आन्दोलनों के ‘इम्यून’ हो गए। अभी तक जो आन्दोलन मौखिक स्तर पर हुआ करते थे, वे क्रियात्मक रूप में सामने आए और विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों की सम्पत्ति के व्यापक विनाश के कारण बने। मेरा अपना विचार है कि इनके पीछे कोई व्यापक उद्देश्य अथवा सुधार का महत् लक्ष्य नहीं था, केवल आत्मतुष्टि, अहम् को पूरा करने की भावना और समाज में अनुपयोगी हो जाने वाले युवा वर्ग का वह मनोविज्ञान था, जिसके आधार पर वे स्वयं को महत्त्वपूर्ण और उच्च सिद्ध करना चाहते थे।

स्वयं शिक्षकों की निहित राजनीति ने भी शिक्षा-संस्थानों के निर्मल वातावरण को दूषित किया है। अपने हितों की रक्षा के लिए उन्होंने विद्यार्थियों का उपयोग करते समय इस बात की चिन्ता नहीं कि ये विद्यार्थी अपना भविष्य बनाने के लिए शिक्षा-संस्थानों की चारदीवारी में आए हैं। विभिन्न प्रकार के आकर्षक प्रलोभनों से विमोहित करके उन्होंने छात्रों को अपने विरोधी के विरुद्ध खड़ा करने में संकोच का अनुभव नहीं किया। परिमाणत: शिक्षा-संस्थानों में विरोधी-वर्गों का निर्माण हुआ, अपने-अपने अधिकारी का लाभ अपने पक्ष के छात्रों को देकर, दूसरे वर्ग को उन सुविधाओं से वंचित करने की स्वाभाविक प्रक्रिया ने भी छात्रों में रोष और झल्लाहट को जन्म दिया। प्राय: वे छात्र, जो किसी भी वर्ग से संबंधित नहीं थे और अपने भविष्य के निर्माण का निश्चय करके इन संस्थानों में आए थे, अधिक त्रस्त हुए। अन्तत: सर्वत्र अन्धकार और निराशा की स्थिति को पाकर वे भी उसी दलदल में फंसने को विवश हो गए अथवा सारी व्यवस्था के विरोध में ही उठ खडे़ हुए। निश्चय ही दोनों स्थितियों में उन्हीं की हानि हुई। उन्हीं की आशाओं और आकांक्षाओं पर तुषारापात हुआ, पीड़ा और संत्रास का सर्वाधिक अनुभव भी उन्हें ही हुआ।

जब एक छात्र यह देखता है कि पूरे वर्ष कठिन परिश्रम करने के बाद भी वह उतने अंक नहीं प्राप्त कर सका, जितने उसके दूसरे ‘विशिष्ट’ साथियों को प्राप्त हुए हैं, तो एक बार उसका मनोबल भी टूटने लगता है। वह भी कई बार सोचता है कि मुझमें ऐसा कौन-सा दोष है, मेरे अध्ययन में ऐसी कौन-सी कमी है कि मैं आगे नहीं बढ़ पाया ? उसका सोच और चिन्तन अनचाहे उसे उन्हीं द्वारों पर पहुँचा देता है, जहाँ की चरणरज अपने माथे पर लगाकर उसके साथी परीक्षा की तीव्रधारा को सहज ही पार कर चुके हैं। आप कह सकते हैं कि इस ‘सर्किल’ में सम्मिलित नहीं होना चाहिए था, दृढ़ निश्चय और पक्के इरादे के साथ उसे दुविधाओं के इस जंगल को साफ करना चाहिए था, किन्तु जब रोजगार और प्रगति के रास्ते में उपाधियों तथा अंकों का वाहन महत्त्वपूर्ण हो, तो येन-केन-प्रकारेण उसे अपने अधिकार में करने की इच्छा और प्रेरणा से इनकार नहीं किया जा सकता। परिमाणत: परीक्षाओं में अनुचित साधनों के प्रयोग और ‘धर्म-यात्राओं’ का सिलसिला आरम्भ हो जाता है, टीनिया (फीताकृमि) की भाँति यह उतने ही अधिक विस्तार में फैल जाता है।

विद्यालय राजनीति का एक पक्ष और भी है- प्रभाव और सिफारिश के बल पर अनुभवहीन और अयोग्य अध्यापकों की नियुक्ति। ऐसे प्राध्यापक अपने विद्यार्थियों के भविष्य को कितनी रोशनी दे पाएँगे, उनमें कितनी प्रेरणा जाग्रत कर पाएँगे, कितनी मात्रा में परिस्थितयों से संघर्ष करते हुए स्वयं को टूटने से बचाएंगे, इस विषय में कुछ भी कहना व्यर्थ है।

जो कुछ भी हो, विद्यालय और विश्वविद्यालय संघर्ष के व्यापक क्षेत्र बन गए हैं। छात्रों का पारस्परिक संघर्ष, छात्र और प्राध्यापकों का मनमुटाव, छात्र और प्राचार्य के बीच द्वन्द्व, प्राध्यापकों के पारस्परिक झगड़े, प्राचार्य के साथ प्राध्यापकों की व्यापक तकरार शिक्षा-संस्थानों को रणक्षेत्र का रूप दिए हुए है। हर पल साधनों को अपने हित में भोगने की इच्छा शिक्षा-संस्थानों के शरीर पर जोंक की तरह चिपटी हुई है। ऐसी स्थिति में सारे वातावरण से स्वयं को मुक्त रख पाना और विषाक्त गैस के प्रभाव से बच पाना कठिन ही नहीं, असंभव हो गया है।

इनकी बातों को सोचते-सोचते मुझे लगता है कि मैं भी तो इसी व्यवस्था का एक टूटा-फूटा अंग हूँ, मैं भी तो इस मशीन का एक जड़ पुरजा हूँ, मैं भी तो विशाक्त गैस का स्रोत्र हूँ। मेरी यह सोच मुझे चिन्ताहीनता की स्थिति में ले आती है और मैं नितान्त अकेला घास के उसी मैदान में बैठ जाता हूँ, जहाँ पर इतनी देर से खड़ा हुआ मानसिक विश्लेषण कर रहा था।
आइए, प्रस्तुत है विद्यालय परिवेश से संबंधित ये कहानियाँ जो आपको सही परिप्रेक्ष्य में सोचने पर विवश करेंगी।

-डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल

पुस्तकालय-प्रसंग


-अशोक शुक्ल

धर्मधुरीण सन्तो !
अब मैं तुम्हें प्रोफेसर मंगतूराम के पुस्तकालय-प्रवेश का परम रोचक वृत्तान्त सुना रही हूँ, इसे श्रद्धा पूर्वक मन लगाकर सुनो।

एक दिन धर्मतत्त्ववेत्ता निगम साबह ने मंगतूराम से पूछा- ‘‘वत्स, पुस्तकालय से प्राप्त कर मोटी-मोटी पुस्तकों का कितना संचय कर लिया है ?’’

तब तक, सज्जनों, मंगतूराम ने कॉलेज का पुस्तकालय देखा भी न था, अत: वे विस्मित हो बोले- ‘‘नाथ, मैं इस कॉलेज भवन के प्रत्येक कोने में विचर चुका हूँ एवं यहाँ के कण-कण की पवित्रता को मन में रमा चुका हूं, किन्तु अभी तक पुस्तकालय के दर्शन पाने से उसी प्रकार वंचित हूँ, जिस प्रकार रिश्वत पाया दरोगा सबूत पाने से वंचित रहता है। कृपया पुस्कालय से संबंधित ज्ञान देकर मेरे मन के मोह को दूर कीजिए।’’

तब परम कारुणिक निगम साहब इस प्रकार बोले- ‘‘तात, धर्मग्रन्थ कहते हैं, कि जिस प्रकार तम्बाकू के बिना पान अपूर्ण रहता है, टाई के बिना कोट अपूर्ण रहता है, उसी प्रकार पुस्कालय के बिना कॉलेज अपूर्ण रहता है। सत्य कहा जाए, तो पुस्तकालय ही कॉलेज की शोभा है। इस कॉलेज में भी एक पुस्तकालय-सा है, किन्तु उसमें प्रवेश पाना देवताओं तक के लिए दुर्लभ है। एक सुपुष्ट चपरासी उसकी रक्षा करता है। धर्मात्मा ही वहाँ तक पहुँच पाते हैं। तुम वहाँ पहुँचो।

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