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कलम जिन्दा रहेगा

आलोक यादव

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16242
आईएसबीएन :9789390659050

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शायरी की नहीं जाती, हो जाती है। करने और होने में ज़मीन और आसमान का फ़र्क़ है। आलोक यादव की शायरी ज़मीन से जुड़ी है पर इसमें आसमान छूने की कोशिश पायी जाती है। यह सच्चाई के सुर भरे लम्हे हैं जो अपनी कैफ़ियत में महव रहते हैं। वो मस्त हैं और कोई भारी रूहानी जामा भी नहीं है। वो हुस्न को उस माशूक़ के इन्तज़ार में महव पाते हैं जिसका मीज़ान रूह की उन मंज़िलों में पाया जाता है जो क़ायम भी हैं और फ़ानी भी हैं। यह मीज़ान इनकी आदमीयत और इन्सानियत की दलील है। इस सन्तुलन के बिगड़ने में इन्हें प्रलय के आसार नज़र आते हैं। वो अपने नाज़ुक और सादा-लौह अन्दाज़ से लम्हों के तसलसुल को वज्ह और नतीजे के ज़ेरो-बम से जोड़े रहते हैं। एक आईने की सूरत जिसमें बयक-वक़्त अच्छा और बुरा दोनों बख़ूबी अयाँ हो। वो इत्मीनान के साथ एक मासूम कृष्ण की उँगली थामे बयाबानों में गश्त लगाते पाये जाते हैं, जैसे कोई मस्तानी नदी अपने अनंत सफ़र में खोयी हुई रहती है। वे कहते हैं ज़माने को चारों धामों से देखो। नदी के इस तरफ़ होते हुए उस तरफ़ से देखो और जो नज़र आये दुनिया को पेश कर दो इससे पहले कि वह जम जाये। जैसे नदी के पानी को हम नदी को लौटाते हैं और इसी नदी में इसी पानी में अपनी अना को विसर्जित कर दो और ख़ुद के आईने में देखो अपने दिल की बरहमी।

उनकी शायरी दर्द के साथ जीना सिखाती है। दर्द को सराहना सिखाती है। आलोक ने अपनी शायरी के पसे-पर्दा इक जीने की अदा इख़्तियार की है जो बहुत सादा और बहुत रोचक है।

— मुज़फ़्फ़र अली

फ़िल्म निर्माता-निर्देशक-लेखक

 

क़लम जिंदा रहेगा

आलोक यादव ने बड़ी सुरअत से अदबी और शेअरी हलक़ों में अपनी शनाख़्त बनाई है। इस का एक सबब शायरी के तईं उनकी हमा-वक्ती वाबस्तगी और मश्के-सुखन है। उनके कलाम को देखकर दो बातें जेह्न में आती हैं। पहले तो ये कि वो अपने कलाम को मंजरे-आम पर लाते वक़्त बड़े एहतियात से काम लेते हैं और दूसरे ये कि वो शेअर को वजूद में लाने से पहले जेह्नो-एहसास की भट्ठी में पकाने की सई करते हैं। उनकी शेअरी कायनात रोजमर्रा अलफ़ाज़ो-तराकीब के साँचे में आम इन्सानी एहसासातो-अफ़्कार के साथ मसाइले-हयात और मुआशरती ना-हमवारियों को ब-हुस्नो-ख़ूबी ढाल देना है। रिवायती तर्ज से जुदा, मुआसिर ग़ज़ल गमे-हयात और मुआसिर हालातो-वाक़ियात का आईना भी है, और इस मजमुए की गज़लों में भी असरी हिस्सियत का इजहार फ़नकाराना अंदाज में जा-बजा मिल जाता है। उम्मीद है मौसूफ़ का शेअरी सफ़र इसी जोशो-जौक़ के साथ रवाँ-दवाँ रहेगा और इस की इशाअत के बाद अहले-जौक़ इस की पजीराई करेंगे।

– प्रो. अख़लाक़ ‘आहन’

जे.एन.यू., दिल्ली

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