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एक कहानी लगातार

रामदरश मिश्र

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1628
आईएसबीएन :9789352660766

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इसमें आसपास के जीवन में घटित कुछ छोटी-छोटी घटनाओं और अनुभवों को कुछ लोक-कथाओं एवं प्रसंगों को समकालीन जीवन-संदर्भ में रचने का प्रयत्न किया है।

Ek Kahani Lagatar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ये कहानियाँ

इधर मैंने एक निरंतरता में कुछ छोटी-छोटी कहानियाँ लिखीं, जिनमें अपने और आसपास के जीवन में घटित कुछ छोटी-छोटी घटनाओं और अनुभवों को, कुछ लोक-कथाओं एवं प्रसंगों को समकालीन जीवन-संदर्भ में रचने का प्रयत्न किया है। इन कहानियों में कोई बात कहना ही मेरा उद्देश्य रहा है—वही यहाँ मुख्य है। अतः कुछ कहानियाँ (‘भाषा’, ‘पुरस्कार’, ‘सम्मान’, ‘जहर’, ‘पटाखे’) ऐसी हैं, जो कहानी के रूप का हलका-सा ही आधार लेती हैं और विचार में बदल जाती हैं या विचार चलते-चलते कहानी के रूप का सहारा ले लेता है। इस प्रकार इन चार-पाँच कहानियों में कथा और निबंध की सहयात्रा चलती रहती है। बाकी कहानियों में ‘बात’ कहानी के फॉर्म का पूरा-पूरा आधार ग्रहण करती है। यानी ये कहानियाँ कहानियाँ हैं—भले ही अपने लघु आकार के कारण ये चरित्रों और स्थितियों का वैसा व्यापक और जटिल विधान नहीं करतीं जैसा लंबी कहानियों में संभव होता है।
एहसान

 


नागपंचमी का दिन था। उस दिन हम बच्चे खेत में चिक्का कबड्डी खेलते थे, कुश्ती लड़ते थे। खेल-कूद का कार्यक्रम तब तक चलता था जब तक गाँव की लड़कियाँ पानी में पुतरी बहाने और घुघुरी बाँटने के लिए नाले के किनारे नहीं आ जाती थीं। उनके आते ही हम अपने-अपने रँगे हुए डंडे लिए हुए नाले के किनारे पहुँच जाते थे और पुतरी पीटने लगते थे।
हाँ, तो हम चिक्का खेल रहे थे। हमारे साथ हरिजन युवक संतू भी था। वह हमसे कुछ बड़ा था और ताकतवर भी। वह हमारे पट्टीदार का हलवाहा था; वह जिस टीम में था, वह जीत रही थी। हम हार रहे थे। हमारी खीज बढ़ती जा रही थी। फिर भी संतू ने मुझे आउट करने के लिए पाँव फेंका और पाँव मेरे पेट पर लगा। मैं खेलना छोड़कर गाली बकता हुआ उसे पीटने लगा। वह समर्थ होकर भी पिटता रहा।
‘‘अरे क्या हुआ, क्या हुआ ?’’ कहते हुए लोग एकत्र हो गए।
‘‘हार रहे हो तो इसे मारना शुरू कर दिया !’’ दो-एक ने कहा।
‘‘मारूँ नहीं तो क्या करूँ ! इस चमार को आप लोगों ने शामिल कर लिया है, अब मैं इसका पाँव पकड़ने से तो रहा। मैं इससे बचकर भागता फिरता रहा कि इसका पाँव मेरे ऊपर न लग जाए, लेकिन पेट में लग ही गया। पाँव पर लगता रहा तो सहता रहा; अब सिर, पेट, पीठ पर चमार-सियार की लात तो खाने से रहा !’’
संतू कुछ बोला नहीं, उदास होकर खेल से अलग हो गया और धीरे-धीरे वहाँ से चला गया। लेकिन विरोधी पक्ष के कुछ लोग कहते रहे—‘यह तो खेल खेलना नहीं हुआ। खेल में जात-पाँत कहाँ देखते हैं ! हारने लगे तो जाति याद आने लगी। हुँह !’

मेरा भी मन उखड़ गया था। संतू तो चला गया, किंतु मैं वहाँ होकर भी वहाँ नहीं था। लड़कियाँ आईं, पुतरी पीटी गई, घुघुरी बँटी और लोग खाने-पीने के लिए घरों को लौटने लगे। मैं भी धीरे-धीरे घर की ओर चल पड़ा; किंतु अकेला।
गाँव के पास पहुँचा तो उससे सटे हुए उस छोटे से नाले को देखा, जिससे हहराता हुआ बाढ़ का पानी गुजरता था और बड़ी पोखारी में मिल जाता था। फिर चारों ओर के खेत-खलिहान, बाग-बगीचे जल में डूब जाते थे। इस साल बाढ़ नहीं आई थी, इसलिए यह नाला उफना नहीं था। उसमें थोड़ा-सा पानी था। हलकर (घुसकर) पार तो हो गया, लेकिन उसे पार करते हुए मेरे अतीत का एक टुकड़ा तेजी से कौंध उठा।
‘हाय, मैंने यह क्या किया !’
हाँ, उस साल मैंने तैरना सीखा था। तैरना आते ही उत्साह मन में भर गया था और इच्छा होती थी कि तैरता रहूँ, तैरता ही रहूँ। उस दिन इस छोटे से नाले में तैर रहा था। इस पार से उस पार और उस पार से इस पार हो रहा था। बहुत उल्लास था। तैरते-तैरते मैं प्रवाह के साथ गहरी पोखरी के जल में जा पड़ा। अब तो मेरे होश उड़ गए। यहाँ तो प्रवाह चौड़ा और तेज हो गया था और चारों ओर जल ही जल था। यदि मैं बह गया तो न जाने कहाँ जाकर समाप्त हूँगा। मैं प्रवाह के विपरीत तैरने लगा और ज्यों-ज्यों तैरता था, लहरों द्वारा पीछे ठेल दिया जाता था। उस हड़बड़ाहट में यह बात अकल में नहीं आई कि प्रवाह से छिटककर शांत पानी में आ जाऊँ और फिर तैरकर किनारे लग लूँ।

संतू अपने गोसयाँ के दरवाजे पर रस्सी बट रहा था। उसने मुझे इस हालत में देख लिया और आव देखा न ताव, छपाक से पोखरी में कूद पड़ा। तेजी से तैरता हुआ मेरे पास आया और मुझे पकड़कर प्रवाह से छुड़ाया; फिर मुझे ठेलता हुआ किनारे तक ले आया।
और सबसे बड़ी बात यह थी कि यह बात वहीं दब गई। उसने किसीसे इसका जिक्र तक नहीं किया और मैं भी डाँट खाने से बच गया। आज इस घटना के याद आते ही मुझे अपने पर धिक्कार होने लगा। उसकी जिस ताकत से मुझे उस दिन जिंदगी मिली थी, उसीसे आज मैं अपमानित हो गया ! चाहा, संतू को खोजकर उससे माफी माँग लूँ। लेकिन वह इस समय कहाँ होगा ?
तब तक देखा कि संतू लोटा-थाली लिये अपने गोसयाँ के यहाँ खाना लेने जा रहा था। उसे देखकर मैं ठमक गया।
‘‘संतू !’’ मैंने पुकारा।
‘‘क्या है, महराज ?’’ उसने ठंडे स्वर में कहा।

‘‘अरे, यार बुरा मान गए क्या ? मैं अपनी गलती महसूस कर रहा हूँ। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। माफ़ करना यार !’’
संतू थोड़ा चौंका। फिर बोला—‘‘आप यह कैसी नई बात कह रहे हैं, महराज। अरे, इस गाँव में बाबा लोग हम लोगों की क्या-क्या दुर्गति नहीं करते, लेकिन आज तक मैंने किसीके मुँह से यह बोली नहीं सुनी।’’
‘‘संतू, तुम्हें याद है, एक बार मैं इसी नाले में बहकर सामनेवाली पोखरी में आ गया था ?’’
‘‘मुझे याद नहीं।’’
‘‘और तुमने इस पोखरी में कूदकर मुझे डूबने से बचाया था ?’’
‘‘नहीं, मुझे कुछ याद नहीं है। अरे बाबा, हम लोग तो जिस दिन जीते हैं उसी को याद रखते हैं—कहाँ काम करना है, कहाँ से मजूरी मिलनी है, कहाँ से खाना मिलना है; कल क्या हुआ, यह याद नहीं रखते। उसमें याद रखने लायक कोई चीज होती ही नहीं। सब जहर-ही-जहर तो है, फिर क्यों जहर को याद में ढोया जाए !’’
‘‘अरे भाई...’’
‘‘छोड़िये महाराज, मुझे भूख लगी है।’’ कहकर वह गोसयाँ के दरवाजे की ओर सरक गया और मैं आवाक्-सा जहाँ-का-तहाँ खड़ा था—कमाल है, मुझपर इतना बड़ा एहसान करके भी वह भूल चुका है। बड़े लोग तो ऐसी घटनाओं को तमगे की तरह अपने माथे पर लटकाकर घूमते हैं और उसे भुनाते रहते हैं।

एक खेल

 


चुनाव का शोर उमड़ा हुआ था। कारें, जीपें, टैंपो, ताँगे—सभी तमाम पार्टियों के पोस्टर पहने हुए, अनेक झंडे लहराते हुए दौड़ रहे थे और सभी के ऊपर से माइक गरज रहे थे, ‘अमुक पार्टी को वोट दो, अमुक पार्टी को वोट दो’। सारे दल एक-दूसरे की बखिया उधेड़ते हुए देश और समाज के प्रति अपने वायदे छींट रहे थे। एक पोस्टर दूसरे पोस्टर को मुँह चिढ़ाता हुआ उसके पास ही अपनी विगत उपलब्धियों और भावी क्रिया-कलापों का डंका बजा रहा था।
लोग आपस में बहस कर रहे थे और भिन्न-भिन्न दलों के बारे में भिन्न-भिन्न राय उछाल रहे थे। भिन्न-भिन्न उम्मीदवारों के चरित्रों की फेहरिस्त खोले हुए थे। अरे, यह तो डाकू था; अरे, इसने तो कई खून किए हैं; अरे, यह तो चोर-बजारिया है; अरे, यह तो तमाम गुंडे पाले हुए है।
‘‘हाँ, लेकिन यह भी तो देखो कि इतने पर भी वह लोगों का कितना काम करता है। भले लोग लेकर क्या करोगे, जो काम ही नहीं करते हों ?’’

‘‘क्यों, भले लोग काम नहीं करते ? क्या पहले के वे नेता भले नहीं थे, जिन्होंने देश के लिए कुर्बानियाँ दीं और जिन्होंने देश के निर्माण में अहम भूमिका निभाई है...अरे भाई, इतनी पार्टियों को तो देख लिया गया, अब अगर यह पार्टी आती है तो निश्चय ही अच्छा होगा।...’’
‘‘क्या खाक अच्छा होगा, सबको देख लिया है !’’
यह सब सुनता-सुनता मैं कचहरी में पहुँच गया। देखा, एक जगह मजमा लगा हुआ है। मैं भी उधर सरक गया।
देखा, एक मदारीनुमा आदमी अपना ताम-झाम फैलाए वहाँ बैठा था—‘‘हाँ तो मेहरबान, कदरदान ! आइए, एक राष्ट्रीय खेल देखिए। मेरे पास तीन पंक्षी हैं। आइए, इनका कमाल देखिए !’’ अब मेरा ध्यान उन पंक्षियों की ओर गया। देखा, तीनों पिंजड़ों में तीन तोते थे। तीनों अलग-अलग जाति के लग रहे थे।
‘‘हाँ तो प्यारे पेटू राम ! मेहरबानों, कदरदानों से तुम क्या कहना चाहते हो ?’’
लोग उत्सुक हो उठे।
‘‘एक पैसा कोई मुझे दे देता।’’ पेटू राम बोले।

लोग हँसने लगे, ‘‘अरे वाह रे पेटू राम !’’
‘‘देद हो, देखीं का करे लें !’’ (दे दो न, देखो ये क्या करते हैं !)
बेटू राम की बोली सुनकर लोग खुशी से तालियाँ बजाने लगे। ‘‘अरे वाह रे बेटू राम !’’
‘‘बेटू राम की आवाज फिर आई, ‘‘देद हो, देखीं का करें लें ! देद हो, देखीं का करें लें !’’
लोग खुशी से तालियाँ बजा रहे थे। मदारी ने कहा, ‘‘मेहरबानों, कदरदानों, बेटू राम की बात पर आप खुश तो हो रहे हैं, लेकिन वह जो कह रहा है, वह कर नहीं रहे हैं।’’
तब लोगों को ध्यान आया, ‘‘अरे हाँ, यह तो पैसा देने को कह रहा है।’’ फिर क्या था, पैसे गिरने लगे। जब पैसे गिर चुके तो लोग उत्सुकता से देखने लगे कि देखें तो अब पेटू राम इन पैसों का क्या करता है। और यह तीसरा पंक्षी क्या करता है !
‘‘धर गोलक्क में, धर गोलक्क में, धर गोलक्क में।’’ (यानी सारे पैसे बटोकर गोलक में रख ले) समेटू राम बके जा रहा था।
फिर जोर की ताली बजी और मदारी ने सारे पैसे बटोरकर अपने झोले में डाल लिये।
लोग सोच रहे थे कि देखें, अब इसके बाद क्या होता है कि सारे पंक्षी एक स्वर में बोले, ‘‘अलविदा, अलविदा, हमारे मेहरबानों, कदरदानों !’’
मदारी वहाँ से सरक गया और भीड़ शायद सोचती रही, ‘यह कौन-सा खेल है भैया, कि बिना कुछ किए-दिए मदारी पंक्षियों से खाली कुछ शब्द सुनवाकर हमारे पैसे बटोरकर चला गया। यह तो अद्भुत धोखा है।’
मैं वहाँ से आगे बढ़ा तो देखा, फिर वही बड़े-बड़े वायदोंवाले चुनावी-पोस्टर और नेताओं के चित्र यहाँ-वहाँ रंग-बिरंगे अदा में चमक रहे थे और एक-दूसरे के विरुद्ध होने के बावजूद पास-पास सटे थे।

मैया मैनूँ लाल बख्शी दे

 


आज माता का जागरण हो रहा था। कई दिनों से एक छोटे पांडाल में एक मेज पर उनकी फोटो रख दी गई थी। उनके गले में और आसपास फूलों की छटा बिखर रही थी। सामने थाल था, जिसमें रोली, चंदन रखा हुआ था। माइक पर माता-गीत लगातार बज रहा था। एक व्यक्ति माता के पुजारी का बाना धारण किए हुए बैठा था। लोग आते थे तथा सिर झुकाकर माता को प्रणाम करते और थाल में कुछ पैसे डाल देते थे। भक्त बना व्यक्ति उसे टीका लगाता था। जो अंदर नहीं जाते थे, वे बाहर से सिर झुकाकर आगे बढ़ जाते थे।
हाँ, इतने दिनों की भूमिका के बाद विशाल देवी-माँ जागरण हो रहा था। कुछ युवक मुझसे भी चंदा माँगने आए थे। मैंने पूछा था—‘‘माइक पर रात-भर चिल्ला-चिल्लाकर क्यों लोगों की नींद हराम करते हो ?’’
‘‘अरे ! कैसे नास्तिक आदमी हैं आप, जो माताजी के विरुद्ध ऐसी बात कर रहे हैं !’’
‘‘नहीं, आप गलत समझ रहे हैं। मैं नास्तिक हूँ या आस्तिक, यह सोचना आप लोगों का काम नहीं है। हाँ, मैं दूसरी की आस्था का अपमान नहीं करता। माँ के विरुद्ध भी कुछ नहीं कह रहा हूँ।’’
‘‘आस्था का अपमान भी कर रहे हैं और माँ के खिलाफ भी बोल रहे हैं।’’
‘‘अच्छा बताइए, माँ में आपकी क्या आस्था है ?’’

‘‘हाँ, है क्यों नहीं ? आस्था नहीं होती तो इतना बड़ा देवी-जागरण क्यों कराते ?’’
‘‘देखिए, आस्था लाउडस्पीकर पर नहीं बोलती, वह मौन होती है; और माँ भी सर्वज्ञा हैं, वे बहरी नहीं हैं कि इतने लोग मिलकर माइक पर चिल्लाते हैं। और सुनिए, भगवान् या देवी-देवता में सही आस्था आत्मा की शुद्धि के लिए होती है, लेन-देन के लिए नहीं। माँ रुपये-पैसे और खुशामद की भेंट नहीं चाहती हैं; वे तो माँ हैं, प्यार चाहती हैं, समर्पण चाहती हैं। आप यदि सच्चे भक्त हैं तो चुपचाप उन्हें अपने भीतर देख सकते हैं। लेकिन लोग तो उन्हें भी दुनिया की अफसर समझ बैठे हैं—चढ़ावा देकर बेटा, पैसा, मकान, नौकरी, तरक्की माँगते रहते हैं।’’
‘‘आप झूठ कह रहे हैं।’’
‘‘मैं मुसकराया। बोला—‘‘अपने पंडाल से उठता हुआ यह गाना सुन रहे हैं।’’
उन्होंने गाने पर कान लगाया।
गाना बज रहा था—‘मैया मैनूँ लाल बख्शी दे।’
‘‘चलो जी, यह नास्तिक आदमी चंदा तो नहीं दे रहा है, ऊपर से बक-बक कर रहा है।’’

वे चले गए। मैं मुसकराता रहा—वह रे भक्तो ! अरे कौन नहीं जानता कि लाला चंपतलाल को लॉटरी में दस लाख रुपये मिले हैं। वे देखते-देखते परचून के दुकानदार से बड़े सेठ हो गए। वे इस लॉटरी के इनाम को देवी का प्रसाद मानते हैं। उन्होंने पिछले वर्ष भी देवी-जागरण कराया था और प्रार्थना की थी—‘हे मइया, लॉटरी का इनाम मिल जाए तो तुम्हारे इस भक्त का दुःख-दलिद्दर दूर हो जाए’। उन्हें दुःख दलिद्दर तो पहले भी नहीं था, अच्छी-खासी दुकान चलती थी और ठगी में उनकी महारत अपने उत्कर्ष पर थी : लेकिन अब वे मालदार हो गए हैं।
लेकिन उन्हें एक बड़ा कष्ट है कि उन्हें चार बेटियाँ हैं, बेटा एक भी नहीं। अबकी बार बेटा प्राप्त करने के लिए देवी-जागरण करा रहे हैं। उन्हें विश्वास हो गया है कि चढ़ावा चढ़ाकर माँ से जो माँगोगे, मिल जाएगा।
सो देवी-जागरण हो रहा है। हमारी गली पवित्र गीतों से गूँज रही है। गायक भक्तों की बहुत महँगी मंडली आई हुई है। फिल्मी तर्ज पर बने हुए भक्ति-गीत उनके सोमरस-सिक्त कंठों से फूट रहे हैं और पूरी गली के लोगों की नींद रौंद रहे हैं। इम्तहान की तैयारी करते छात्र माथा पीट रहे हैं। दिन-भर की मजदूरी से टूटी हुई देह तड़प रही है। बुखार में तपते हुए लोग छटपटा रहे हैं। हाँ, जो लोग कीर्तन में शामिल हैं या जो उन गीतों को पवित्रकारी भक्ति-प्रसाद समझते हैं, वे अपनी पीड़ा में भी प्रसन्न हैं या कम-से-कम अप्रसन्न नहीं हैं।

शोर से लड़ते-लड़ते रात के अंतिम पहर में थोड़ी-सी नींद आ गई थी। एकाएक पत्नी ने जगाया—‘‘अरे उठो तो, देखो सामनेवाले मकान में लोग क्यों रो रहे हैं ?’’
मैं एक आशंका से काँप गया। उस घर में एक छोटा-सा बच्चा कई दिन से बीमार था। उसे कहीं कुछ हो न गया हो !
भागा-भागा वहाँ गया तो देखा, बच्चे की लाश जमीन पर रखी हुई थी और माँ छाती पीट-पीटकर रो रही थी। पिता गुमसुम बैठे थे। हमें देखते ही बिलख उठे—‘‘कई दिन से बीमार था। रात बुखार काफी तेज हो गया। बेचैन होकर रात-भर कहता रहा—‘पिताजी, इस शोर को बंद करवाइए न। बड़ी बेचैनी हो रही है।’ अब मैं यह शोर कैसे बंद कराता, आप ही बताइए। धर्म का मामला है।’’
‘‘हाँ, यह शोर धर्म का मामला बन गया है। इसे कोई कैसे बंद कराए !’’
छाती पीट-पीटकर चीखती माँ की व्यथा सही नहीं जा रही थी। थोड़ी देर बाद वहाँ से निकला तो सुना, भक्त शिरोमणि लोग चीख-चीखकर गा रहे थे—‘मैया मैनूँ लाल बख्शी दे’।
मुझे लगा कि चंपतलाल को देने के लिए यह बच्चा छीन लिया गया है।

साढ़ेसाती

 


वह चलते-चलते थक गया था। लेकिन अब मंजिल सामने थी। वह रास्ते के किनारे पर बैठ गया। वह आलीशान आश्रम को देखने लगा। हाँ, यही आश्रम है महान् तांत्रिक स्वामी का। किसीने उससे कहा था इस महान् तांत्रिक से मिलो, बड़े सिद्ध पुरुष हैं। तुम्हारे ऊपर जो दैवी प्रकोप है, उसका शमन कर देंगे और तुम्हारा भाग्य चमक उठेगा। यहाँ एक-से-एक मुसीबतजदा लोग आते हैं और प्रसन्न होकर जाते हैं। वह दस कोस पैदल चलकर यहाँ पहुँचा था। सोचा, अंदर चलूँ और तांत्रिक का आशीर्वाद लूँ।
लेकिन यहाँ तो गाड़ियों की भरमार लगी है। एक-से-एक शानदार गाड़ियाँ यहाँ रुक रही हैं। इनमें से एक से बढ़कर एक चिकने नर-नारी चेहरे उतर रहे हैं; दोनों हाथों की अनेक उँगलियों में कीमती अँगूठियाँ चमचमा रही हैं। तन पर रेशमी वस्त्र अपनी आभा फेंक रहे हैं। कारों में से चमचमाते हुए पैकेट उतारे जा रहे हैं; शायद चढ़ावे के लिए हों। वह सोच रहा था कि इन देवताओं को कौन-सा दुःख है भाई, कि उसे दूर कराने के लिए तांत्रिकजी की शरण में आ रहे हैं। आगे बढ़ने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। पुलिस का पहरा लग रहा था। गेट पर साधुओं के वेश में कुछ लोग खड़े थे। बहुत देर हो गई बैठे हुए। वह आगे बढ़ा तो एक साधु ने कहा—‘‘अरे भाई, तू कहाँ अंदर घुसा चला जा रहा है ! देखता नहीं है, मंत्रीजी अंदर गए हैं।’’

‘‘अरे स्वामीजी, मैं बहुत दुःखी आदमी हूँ। मैं गुरुजी का दर्शन करना चाहता हूँ, ताकि मेरा दुःख दलिद्दर दूर हो। वे बताएँगे कि मेरा भाग्य इतना खराब क्यों चल रहा है ?’’
‘‘देख भाई, गुरुजी इतने सस्ते नहीं हैं कि इखारियों-भिखारियों का भाग्य देखते चलें। जिसका कोई भाग्य ही नहीं है, उसका कोई क्या भाग्य देखेगा ? और भाग्य दिखाना ही है तो देख, फुटपाथ पर तोता लिये हुए बहुत से ज्योतिषी बैठे रहते हैं, उन्हें दिखा ले।’’
‘‘स्वामीजी दया कीजिए।’’
‘‘अरे हट, देख मंत्रीजी आ रहे हैं।’’ कहते हुए एक स्वामी ने उसे ढकेल दिया और पुलिस का एक सिपाही उसे पकड़कर दूर ठेल आया।
वह बहुत आहत हुआ। थोड़ी दूर पर एक ढाबा दिखा। वह उधर को सरकने लगा। उसने जेब टटोली—हाँ, चाय-भर को पैसे हैं। वह एक बेंच पर बैठ गया। चाय के लिए बोला तो ढाबेवाले ने उसका हुलिया देखकर जानना चाहा कि कोई इखारी-भिखारी तो नहीं है। ढाबेवाले का आशय समझकर वह बोला—‘‘पैसे हैं, भाई।’’ वह मुसकराया, ढाबेवाला भी मुसकरा उठा।

उसकी बगल में दो नवयुवक चाय पी रहे थे। आपस में बात कर रहे थे—‘‘सुबह से कई मंत्री आ चुके। कल सुपर स्टार अनंगजी आए थे। परसों करोड़पति भिखारीलालजी आए थे; और छोटे-मोटे नेता-अभिनेता तथा सेठ तो दिन-भर आते ही रहते हैं।’’
‘‘भैया, मैंने तो सुना है कि ये रोहित स्वामीजी लोगों का दुःख दलिद्दर दूर करते हैं; यहाँ तो सारे देवता लोग आ रहे हैं। उन्हें क्या दुःख है ?’’ उसने डरते-डरते उन युवकों से पूछा।
उन दोनों ने एक साथ उसे देखा। वह थोड़ा घबराया कि कहीं ये सब बुरा न मान गए हों।
‘‘भाई, लगता है, आप कहीं से नए-नए आए हो। अरे, सबसे बड़ा दुःख तो इन्हीं लोगों को है।’’
इतना कहकर वह युवक चुप हो गया। उसे लगा कि बात तो और उलझ गई। सबसे बड़ा दुःख इन्हीं लोगों को है—इसका क्या मतलब है ? लेकिन वह युवक बुरा न मान जाए, इसलिए आगे पूछने की हिम्मत नहीं हुई। किंतु वह युवक समझ गया कि यह बेचारा गरीब आदमी उलझन में पड़ गया है। वह बोला—‘‘भैया, तुम्हें मालूम है न, चुनाव आने वाला है ?’’
‘‘हाँ, सुन तो रहा हूँ।’’
‘‘और यह भी जानते हो कि जो एक बार मंत्री की कुरसी पर बैठ जाता है, वह देश को अपनी जागीर समझने लगता है और न जाने उससे क्या-क्या उगाहता रहता है। और जब चुनाव आता है तब वह डर जाता है कि उसकी इतनी बड़ी जागीर कहीं छिन न जाए। उसने जनता के लिए कुछ काम तो किया नहीं होता है, इसलिए उसका डर स्वाभाविक है। कुरसी हिलती हुई लगने लगती है। उसका दिन का चैन और रात की नींद हराम हो जाती है। तब रोहित स्वामी के यहाँ भागता है। किसीकी जागीर छिन जाना कम तकलीफ की बात है क्या ?’’
‘समझा’ के भाव से वह सिर हिलाने लगा।

‘‘और देखो, चुनाव के दिन आते ही सभी मंत्रियों को साढ़ेसाती लग जाती है। और सेठों को देखो तो लगता है, बेचारे कितनी विपत्ति के मारे हुए हैं। उन्हें चिंता रहती है कि रातोरात एक करोड़ का दस करोड़ कैसे हो ? कैसे उनका स्मगलिंग का सामान सही-सलामत अपनी जगह पहुँच जाए ? कैसे वे ईमानदार अफसरों और नेताओं को खरीद कर हराम की अपनी सारी कमाई पचा सकें ? कैसे वे अपने खिलाफ उठे मजदूरों के आंदोलन को दबा सकें ? इन्हीं चिंताओं में न तो वे ढंग से खा पाते हैं, न सो पाते हैं और इलाज खोजने स्वामीजी के पास चले आते हैं। कुछ समझ रहे हैं आप ?’’
‘‘हाँ बाबू, समझ रहा हूँ।’’
‘‘और ये अभिनेता भी तो यश, पैसे और भविष्य की असुरक्षा के डर के मारे हुए हैं। जनता कब तक उनकी जय बोल रही है और कब उठाकर बाहर फेंक देगी, किसीको पता नहीं। इसी डर से और प्रतिस्पर्धा में दूसरों को पटकी देने की महत्वाकांक्षा से ये स्वामीजी की शरण में आया करते हैं। और स्वामीजी उन्हें अभय वरदान देते रहते हैं। देखा नहीं, ये तमाम अभिनेता बाँह में गंडा और गले में ताबीज बाँधे रहते हैं और ताबीज में इस स्वामी की या किसी और स्वामी की छोटी-सी तसवीर मढ़ी रहती है। ये सब भिखारी हैं, और सच पूछो तो भइया, यह स्वामी खुद ही बड़ा भिखारी है; यह औरों के कष्ट दूर करने का स्वाँग करता हुआ अपने सुखों का पहाड़ खड़ा करता रहता है।’’

‘‘अरे भाई, यह क्यों, साढ़ेसाती के मारे न जाने ऐसे कितने-कितने शिक्षक, कलाकार, साहित्यकार और समाजसेवी चुपके-चुपके आते रहते हैं, जो खुलेआम अपने को विद्रोही कहते हैं। यहाँ आकर स्वामीजी के चरणों में गिरकर मनौतियाँ मनाते हैं। हम लोग तो प्रायः यहाँ चाय पीते हैं और इस प्रायोजित स्वामीजी की लीला देखते रहते हैं।’’ दूसरा युवक बोला।
चायवाला सुनता रहा। पास आकर धीरे से बोला—‘‘आप जो कुछ कह रहे हैं, सही कह रहे हैं; लेकिन इतना तेज बोलकर हमें भी खतरे में डालेंगे और अपने को भी।’’
‘‘अरे हाँ रे, जिस तांत्रिक के चेले मंत्री हों, अफसर हों, पुलिस हो, मुस्टंडे हों—उनके बारे में उसी के आस पास इतना तेज-तेज नहीं बोलना चाहिए।’’ युवक बोला।
‘‘हाँ बाबू, मैंने देखा है विरोध का भाव लेकर आनेवालों को पिटते हुए।’’
‘‘चलो भाई, चलते हैं अब कॉलेज की ओर। कुछ पढ़ाई-लिखाई भी हो जाए।’’
‘‘अच्छा बाबू, आप लोगों ने बहुत कुछ ध्यान दे दिया, अब मैं भी चलता हूँ। सोचा था, साढ़ेसाती का कोप दूर करने का कोई उपाय पूछूँगा; लेकिन यहाँ तो निस्तार ही नहीं है और मुझसे भी दुःखी लोग लाइन लगाए हुए हैं।’’
‘‘तुम्हें साढ़े साती है तो आओ मेरे साथ।’’ कहकर वे युवक आगे-आगे चलने लगे। वह भी उनके पीछे-पीछे हो लिया। वे एक छोटे से मंदिर के पास जाकर रुके। पुजारी को देखते ही उन्होंने प्रणाम किया।
‘‘कैसो हो, बाबू लोगों ?’’

‘‘हम तो ठीक हैं, पंडितजी लेकिन, यह गरीब आदमी साढ़े साती का मारा हुआ है। इसे आपके पास लाए हैं। कोई उपाय बताइए। रोहित स्वामी से मिलने आया था, लेकिन आप तो जानते ही हैं....’’
पुजारीजी हँसे और उस आदमी को बुलाकर कहा—‘‘देखो भाई, साढ़े साती जाएगी तो अपने समय पर, लेकिन कुछ पूजा-पाठ करने से उसका प्रकोप खत्म हो सकता है।’’
‘‘जी पंडितजी !’’
‘‘तो ऐसा करो कि हर शनिवार को पीतल के लोटे से पीपल पर जल चढ़ाया करो।’’
पंडितजी मेरे पास तो पीतल का लोटा भी नहीं है।
पंडितजी मुसकराए, फिर ठठाकर हँसे।
‘‘क्या बात है पंडितजी, कोई गलती हो गई ?’’
‘‘अरे नहीं रे ! अरे बेवकूफ, जब तेरे पास पीतल का लोटा तक नहीं है तो तू क्यों डरता है ? साढ़ेसाती तेरा क्या बिगाड़ लेगी ? अरे, ताल ठोककर शनिश्चर महाराज को ललकार दे—कर लो जो करना हो !’’
दोनों युवक, पंडितजी तथा वह---सभी मुसकराने लगे। फिर एकाएक वह ठठाकर हँसा और चिल्लाकर बोला—‘‘अरे ओ शनिचरा, तुझसे मैं बहुत डर लिया रे; अब आ जा, जो करना हो सो कर ले। तुझे ऐसी पटकी दूँगा कि तू भी याद रखेगा।’’
वह हँसता हुआ और ‘शनिचरा, शनिचरा’ चिल्लाता रोहित स्वामी के आश्रम की ओर बढ़ने लगा।

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