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संवाद चुपचाप

अमरेंद्र मिश्र

प्रकाशक : ज्ञान गंगा प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1630
आईएसबीएन :81-85827-39-7

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प्रस्तुत है 9 कहानियों का संग्रह।

Samwad Chupchap

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘संवाद चुपचाप’ की कहानियाँ हमारे मन-प्रदेश में चुपचाप एक जगह बनाती हुई चलती हैं। इनमें एक गहराई है जो पाठक को सीधे अपने कथा-सागर में डुबोती है—यह डूबना पाठक को इस रूप में अच्छा लगता है कि उसकी माँग—पाठकी माँग—इस संग्रह की कहानियों से पूरी हो जाती है। बिना किसी विज्ञापन या फतवेबाजी के, ये कहानियां सीधी-सच्ची तरह से एक जीवंत चेतना की अभिव्यक्ति करती हैं। इनमें एक आह्वान की बुलंदी है, एक निरंतरता जो हमें एक संवाद से जोड़े रखती है।...कहानी के साथ संवादहीनता की स्थिति आत्महत्या की स्थिति होती है किसी सार्थक कथाकार के लिए इस स्थिति से बचना जरूरी है। इस संग्रह की कहानियाँ पाठक को संवाद का धरातल प्रदान करती हैं। आशा है कि पाठक इन कहानियों से अपना सीधा संवाद कायम कर पाएँगे।

भलेमानुष


मैं बहुत छुटपन में एक बार दार्जिलिंग गया था यह याद नहीं कि किसके साथ; पर गया जरूर था। मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जिनके साथ मैं गया था, वे मेरे पिता नहीं थे; क्योंकि पिता जी के साथ मैं या हममें से कोई भी कहीं घूमने-फिरने नहीं जाता था। उनकी नजरों में कहीं घूमना-फिरना आवारगर्दी है, सिनेमा देखना या फिल्में देखना तो घोर आवारागर्दी है....बचपन से बड़ा होने तक हम इसी नसीहत को बेमन से अपनाते हुए चलते रहे और बड़ा होने के बाद, जहाँ तक बन पड़ा, घूमे-फिरे, फिल्में देखीं। किंतु, कोई आवारा न बना। पिताजी के तीनों लड़के अपनी-अपनी नौकरियों में दिल्ली में बस गए। हाँ, उन बच्चों के मन में यह मलाल तो रह गया कि काश ! बचपन में ये चीजें देखी होतीं या काश ! बचपन में यहाँ आया होता, आदि-आदि।

जाहिर है कि एक ही स्थल बचपन में जितना आकर्षक लगता है, बड़े हो जाने के बाद उसके आकर्षण का रंग बदल जाता है। लेकिन यह बात तो महज इसलिए चल पड़ी कि मैं सुनीता की शादी में शामिल होने फारबिसगंज आया हूँ और मेरे साथ मेरी पत्नी और दो बच्चे हैं और चूँकि अब शादी संपन्न हो गई है, सुनीता अपने घर चली गई है तब दार्जिलिंग जाना क्यों नहीं रुचेगा ?

बस फारबिसगंज से चल पड़ी थी, सिलीगुड़ी के लिए। सिलीगुड़ी पहुँचे तो वहाँ से दूसरी बस ले, फिर पहुँचे दार्जिलिंग। मैं आदतन उस खिड़की के पास बैठा था जिससे होकर ठंडी हवा प्रवेश कर रही थी। बच्चे आगे की सीट पर अपनी माँ के साथ बैठे थे। बस ने रफ्तार पकड़ ली और मैं सोचता रहा था कि सुनीता की शादी में पिताजी क्यों नहीं आए ? सुनीता यानी मेरे चाचा की लड़की, यानी मेरी बहन, यानी मेरे पिताजी की.....।

कोई पिता अपनी बेटी की शादी में अनुपस्थित रह सकता है भला ? क्या इसे उन्होंने सोचा होगा ? वह तो फारबिसगंज आने के बाद मुझे चाचा ने बताया कि—‘शादी में वे मेरा आना नहीं देखना चाहते। उन्होंने अपने दूसरे लड़के को भी इस शादी में आने से मना कर दिया है.....। उनके पास बाकायदा पत्र गया है। पत्र की भाषा अत्यंत कठोर है। तुम्हारे ऊपर मेरा विश्वास था, चले आए; पर वे बच्चे पिता के आज्ञाकारी हैं। वे भला क्यों आने लगे !’
बस में एक वृद्ध दिख गया। कह रहा था कि मैं खिड़कीवाली सीट छोड़ दूँ, वह वहाँ बैठेगा; क्योंकि उसे उल्टी होती है। वह वृद्ध ठीक मेरे पिता जी की तरह लगा और उसने मेरी सर्ट पर उलटी कर डाली है। खिड़की के बाहर जो था, वह मेरी कहानी के लिए बहुत जरूरी था। अतः मैंने उसके आग्रह को बेरहमी से खारिज कर दिया और पिताजी पर सोचता रहा कि क्या वह इतने अधिक कठोर हैं?

मैं शादी के एक दिन पहले ही दिल्ली से सपरिवार आया था और रात को छत पर चाचा के साथ बातचीत कर रहा था। वे बता रहे थे, मैं सुन रहा था—
‘‘सुनीता की शादी पहले भी एक जगह तय हुई थी। वे लोग डेढ़ लाख रुपये दहेज में माँग रहे थे। तब भी मैंने महंथजी से बात की थी, यह भी कहा था कि शादी वहाँ कर लने का विचार है तो बोले थे कि रुपये-पैसे की चिंता छोड़ा। जहाँ शादी ठीक करनी है, कर लो। हम लोग मिल-जुलकर शादी कर लेंगे। दुर्भाग्य यह हुआ कि शादी के कुछ ही दिन पूर्व लड़के के बड़े भाई का देहांत हो गया....शादी भला कैसे होती ? और यह शादी जो होने जा रही है, यहाँ भी दो लाख रुपये खर्च हो रहे हैं यहाँ भावे निश्चित करते रहे कि रुपये-पैसों का हिसाब-किताब हम दोनों मिल कर देख लेंगे। तुम शादी की तैयारी करो।’’
‘‘उसके बाद ?’’

‘‘लेकिन इस शादी की निश्चित तिथि लेकर उनके पास गया तब बदले हुए मिले। मेरे साथ तुम्हारी आंटी भी थीं। कहने लगे। ‘इस शादी में अगर अमित आ गया तो मैं न जा सकूँगा। मैं अपने तीनों लड़कों को भी उसमें शामिल होने से मना कर दूँगा’।’’
‘‘लेकिन अचानक इस तरह का निर्णय?’’
‘‘शायद उन्हें विश्वास न था कि तुम इस शादी में आओगे। बातचीत के क्रम में मैंने ही जब यह कहा कि अमित आ रहा है, बाकी सुरेंद्र-वीरेन्द्र के लिए मैं तो लिखा ही है, आप भी लिख दें। तभी से वे बदल गए।’’

चाचा कह रहे थे, ‘‘जब से नरपतगंज के लोगों ने उन्हें महंथ का आसन सौंपा है, तब से अति अमानवीय हो गए हैं। परिवार की पूरी पृष्ठभूमि तो तुम जानते ही हो। लेकिन छोड़ो, तुम आ गए, कोई चिंता नहीं। शादी संपन्न हो जाएगी। मु्झे तुम्हारी प्रतीक्षा थी। महंथजी का क्या, इसकी क्या गारंटी कि तुम न आते तब वे शादी में शामिल हो ही जाते !’’

कसबा आ चुका था—फारबिसगंज के बाद कसबा। कुछ लोग बस से उतरे, कुछ चढ़े। इनमें से एक नवविवाहिता युवती शायद अपने पिता के साथ ससुराल से बिदाई के बाद वापस अपने मायके जा रही होगी। मैंने झट अपनी सीट उसे दे दी और खड़ा हो गया। खिड़की से आती शीतल हवा की सुविधा भी कैसी ? मन में कचोट और निर्ममता की असंख्य सुइयाँ चुभने लगीं, जिन्हें महंथजी ने बड़े जतन से एकत्र किया था। किसी गलत के घटित होने के लिए भी जतन की जरूरत होती है, यह पहली बार महसूस हुआ था इस शादी में। यों मैं अपने विषय में यह बात बार-बार क्यों कहूँ कि मैं सुनीता की शादी में पूरे चौदह वर्ष के बाद दिल्ली से यहाँ आया था और यहाँ आने के लिए मेरी अपनी खुद की तैयारी भी भला क्या थी?

चाचा का पत्र गया था,—वर्षों बाद—‘‘सुनीता की शादी आरा के महुदही गाँव के किशोर उपाध्यायजी के परिवार में ठीक हो गई है। लड़का रेलवे में एक अच्छे पद के लिए ट्रेनिंग में है। एम.ए. पास है। बड़ा सुंदर-सुशील और बात-विचारवाला। तुम लोग इस शादी में जरूर आओ। वीरेंद्र-सुरेंद्र को भी अलग से लिखा है। अपनी सुविधानुसार तुम भी इन दोनों को मेरी तरफ से आने का अनुरोध करना। महंथजी ने तुम लोगों की परवरिश में चाहे जो कमी की हो, किंतु मैं हमेशा तुम लोगों के अच्छे के लिए ही सोचता रहा, इसलिए आना जरूर। आखिर सुनीता की शादी रोज-रोज तो नहीं होगी। ऐसे मौके बार-बार नहीं आते। मैं जानता हूँ कि तुम्हारे पास समय नहीं होता होगा, इसलिए एक महीने पहले से ही लिखा। जवाब देना और जरूर आना।’’

उस पत्र में हमारे आने के लिए अनुरोध-भर आमंत्रण था, यानी चाचा ने कहीं से भी अपनी तरफ से इस बात की गुंजाइश नहीं छोड़ी थी कि कहीं से भी हम ना कर दें। पत्र पढ़कर मैं सुनीता को याद करने लगा था कि उसे कब देखा था और कब नहीं देखा, कि वह शादी के लायक हो गई ? और नहीं देखा तो क्यों नहीं देखा ?

पर इसमें भला मेरी क्या गलती थी ? चाचा को मालूम है कि मैं अपना घर छोड़ चुका हूँ हमेशा-हमेशा के लिए, मेरा अपना घर नरपतगंज में स्थित है, जहाँ इन दिनों मेरे पिता महंथी धारण करके आराम से रह रहे हैं और अपने आराम की खातिर उन्होंने एक-एक करके अपने सभी बच्चों को घर से बाहर कर दिया है। वे बच्चे यानी वीरेंद्र-सुरेंद्र तो उनके पास जाते रहते हैं। पर मैं जो राम के वनवास की तरह निकला सो बाहर ही रह गया। राम तो वनवास की अवधि के बाद पुनः अयोध्या लौट आए थे। लेकिन, उन्हें वापसी के बाद भी भला क्या मिला था ? मैं वापस नहीं लौटा। पिता इसे अपनी जीत मानते रहे और मैं अपनी। पिता मानते रहे कि उन्होंने मुझे उस घर में रहने नहीं दिया और मैं यह मानता रहा कि मैं अपनी कसम पर कायम रहा। तब, जब मैं घर में रहने की कठिन प्रक्रिया से गुजर रहा था, चाचा वहीं थ—फूस का एक मामूली मकान, आगे बरामदा और बरामदे के आगे एक कोने में रसोई। सुनीता तब महज आठ दस साल की थी।

चाचा के दोनों लड़के जो सुनीता से छोटे हैं, तब बिलकुल बच्चे थे—क्रमशः पाँच और तीन साल के। चाचा फारबिसगंज कॉलेज में पढ़ाते थे और उनकी आय बहुत कम थी। उसी फूस के मकान में सुनीता का बचपन बीता था। वह फूस का मकान ऐसा था कि जरा-सी बारिश आने पर पूरा-का-पूरा पानी नीचे टपकने लगा था। चाचा अपनी लगातार की आर्थिक दुरवस्था से तंग आकर परिवार से अलग होने जा रहे थे।



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