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देवगढ़ की मुसकान, कभी न कभी

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1652
आईएसबीएन :81-7315-191-1

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास...

DEVGARH KI MUSKAN Vrindavanlal Varma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1

चंदेरी नगर और उसके बिखरे खंडहलों को बूढ़ी चंदेरी कहने लगे थे, क्योंकि चार कोस की दूरी पर चंदेरी नाम का ही दूसरा नगर बस गया था। बूढ़ी चंदेरी और आसपास के जंगल में ऐसा क्या था, जिसे चैत्र पूर्णिमा की चाँदनी अपनी आँखें पसार-पसारकर देख रही थी ? चंदेरी की निकटवर्ती पर्वत के पास घोर घना जंगल था। हाथी चंद्रमा की किरणों की ओर सूँड़ें हिला-हिलाकर अपनी चिंघाड़ों के स्वरों में क्या कह रहे थे ? शेरों की हुंकारें हाथियों की चिंघाड़ों को उत्तर दे रही थीं या चुनौती ?

चंदेरी के खंडहलों के निकट ही काँटेदार बिरवाई से घिरी हुई झोंपड़ी के बाहर आँगन में एक शवर (सहरिनी) लड़की, धरती पर बिछे कटे-फटे से बिस्तर पर लेटी नींद लाने का प्रयास कर रही थी। उससे कुछ ही दूर पर, उसी आँगन में, दो शवर (सहरिये) पुरुष वैसे ही वस्त्रों पर पड़े सो रहे थे। वे अपनी-अपनी बगल में एक-एक भाला और कुल्हाड़ी रखे थे।
लड़की को हलकी सी झपकी आई थी कि हाथी की चिंघाड़ कुछ अधिक निकट सुनाई पड़ी। सचेत होकर बिस्तर पर बैठ गई। बिरवाई के बाहर उसकी आँखें ढूँढ़ने लगीं कि हाथी यहीं कहीं तो नहीं आ गया है। आहट ली, परंतु कुछ नहीं सुनाई पड़ा। कुछ क्षण उपरांत चिंघाड़ दूरी पर सुनाई पड़ी। समझ गई कि शेर के डर के मारे हाथी यहाँ निकट से भागता हुआ दूर चला गया है। शेर की हुंकार भी हलकी पड़ गई। सोचा, दूर चला गया है, अब किसी क्षण दोनों में लड़ाई होगी, दिन होता तो किसी पेड़ पर चढ़कर देखती कि इनका मल्लयुद्ध कैसा होता है। उन दोनों पशुओं की आवाजें दूर होती चली गईं। लड़की ने आकाश की ओर देखा। चाँदनी छिटकी हुई थी। उसे नींद नहीं आ रही थी। जी में आया कि कुछ गा डालूँ। गुनगुनाने लगी। आरंभ किया धीमे। फिर उत्तेजित होकर ऊँचे स्वर में गाने लगी-

मइया* खों जगाऊँ झिंझरियन में लाग लाग,
सोने की थारी में भोजन बनाऊँ, मइया खो जिंवा आऊँ-झिंझ.
सोने की गडुआ गंगाजल पानी, मइया खों पिवा आऊँ-झिंझ.
पाना पचासी के बीरा लगाऊँ, मइया खों रचा आऊँ-झिंझ.

जब स्वर ऊँचा हो गया, वे दोनों पुरुष जाग पड़े। एक उठ बैठा और बोला, ‘क्यों री तिनकी, हल्ला क्यों कर रही है ?’ लड़की का नाम तिनकी था।
‘यह लो ! हल्ला नहीं कर रही हूँ, भजन गा रही हूँ; जिससे नींद आ जाय।’ तिनकी ने कहा।
दूसरा लेटे-लेटे ही धीरे से भनभनाया, ‘इसे काम ही और क्या है ? दिन-भर गाती फिरती है। अब चुप हो जा, हमें सो जाने दे। थके-माँदे आए, रोटी खाई और लेटते ही सो गए कि जगा दिया।’
उतरते बैसाख का महीना था। आधी रात हो गई थी, करौंदी की सुगंधि आ रही थी। बिरवाई के बाहर खड़े महुए के पेड़ से फूल टपक रहे थे।

तिनकी नहीं दबी, ‘भैया, तुम मूसली की जड़ें खोदकर थोड़ी-सी देर में ढेर लगा लेते हो और वहीं सो जाते हो। मैं दिन में महुए बीनती रहती हूँ और गाँव में जाकर कुछ काम भी तो करती हूँ।’
वे दोनों इसके भाई थे, आयु में इससे बड़े। एक की आयु बीस के लगभग, जो उठ बैठा था; दूसरा लगभग सत्तरह-अट्ठारह का। तिनकी उससे दो वर्ष कम आयु की थी। रंग साँवला, आँखें बड़ी-बड़ी, नाक सीधी; जैसे सहरियों की प्रायः नहीं होती थी। उसके भाइयों का रंग उससे अधिक साँवला था। नाक चिपटी-सी। बड़े का नाम बुद्धा-इसका जन्म बुधवार के दिन हुआ था, इसलिए बुद्धा-और छोटू का नाम मिट्ठू। दोनों भाइयों का विवाह हो गया था। उनकी पत्नियाँ अपने-अपने मायके गई हुई थीं। झोंपड़ी में और कोई न था।
बुद्धा बोला, ‘या तो तू सो जा या बिरवाई बाहर जाकर महुए बीनने लग’
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*मइया-मैया (जगदंबा)।

तिनकी हँसकर बोली, ‘और वहाँ यदि हाथी आ गया तो ?’
मिट्ठू भी बैठ गया और उसने समाधान किया, ‘तो तू उसकी सूँड़ पकड़कर चढ़ जाना।’
बुद्धा ने जमुहाई ली और बोला, ‘बड़ी विकट है तिनकी ! पर हम नहीं चाहते कि महुए बीनने के लिए बाहर चली जाए। हाथी-वाथी तो यहाँ क्यों आने चला, सिआर तक नहीं आएगा। लेट जा और सो जा। बड़े भोर उठकर महुए बीनना। ऐं, भला।’
‘भैया, तुम दिन में सो लेते हो और रात में भी इतना घुरघुराते रहते हो। ह ! ह ! ह !’
वे दोनों अपनी बहिन को बहुत प्यार करते थे। मिट्ठू ने पुचकारा, ‘सो जा, बहिन, हम तुझे कल एक पैसा देंगे।’
‘पैसा ! महुए बेचकर ! ह ! ह !’
‘अरी डाकिनी, महुए बेचकर नहीं, महुए तो पेट भरने के लिए बीनते हैं। सेठों को मुलहटी बेचकर पैसे इकट्ठे करेंगे।’
‘अच्छा, अच्छा, मान गई। अभी सो जाती हूँ। अब और नहीं गाऊँगी। और यदि नींद न आई तो ?’
‘न आवे तो ढोलकी लेकर गाना-चिल्लाना, जिससे गाँव-भर जाग पड़े।’
‘भला ! भला ! नहीं गाऊँगी, नहीं गाऊँगी। सो जाओ।’

वे दोनों लेट गए। तिनकी भी लेट गई। लेटे-लेटे चंद्रमा की ओर देखने लगी। तरह-तरह की कल्पना मन में उठने-लगीं-चंद्रमा में एक बुढ़िया बैठी रहँटा (चरखा) कात रही है। कब से कात रही है ? हम तो सदा से ही देखते आ रहे हैं। इतनी रुई कहाँ से आती होगी इस बुढ़िया के पास ? सूत कातकर कहाँ रखती होगी ? कितने ढेर लग गए होंगे सूत के ? सूत के ढेर दिखलाई तो नहीं पड़ते। सूत के कपड़े भी तो बनते होंगे। कौन पहनता होगा उन्हें ? चंद्रमा में रहनेवाले पहनते होंगे। वहाँ करौंदी और महुए के भी पेड़ होते होंगे। कितनी भीनी-भीनी सुगंध आती है। महुए बीननेवाले भी होंगे वहाँ। मूसली की जड़ें भी बहुतायत से मिलती होंगी। यदि कहीं हमारे भैया खुरपी कुदाली लेकर पहुँच जावें तो इतनी मूसली खोद लाएँ, इतनी कि दस बीस सेठ तक मोल न ले सकें। यहाँ के सेठों के पास बहुत पैसा है। घर बैठे ही न जाने कितने जोड़ते रहते हैं। बड़ी मौज करते हैं। जी चाहता है कि एक-एक चाँटा जड़ दूँ। कभी हाथी पर चढ़ पाई तो देखूँगी इन्हें। हाथी की सूँड़ पकड़कर चढ़ तो जाऊँगी उसपर। नाहर हाथी से डरता है या हाथी नाहर से ? ना..ह...र..तिनकी की कल्पना आगे दौड़ न लगा सकी। वह सो गई।

सूर्योदय के पहले ही बुद्धा और मिट्ठू जाग पड़े और बाहर निकल पड़ने के लिए बिना विलंब तैयार होने लगे। तिनकी को मिट्ठू जगाने के लिए बढ़ा था कि बुद्धा ने रोका, ‘अभी न जगाओ। आधी रात हो जाने पर सोई होगी।’
‘महुए बीनने हैं, फिर पानी भरना पड़ेगा। अनाज पीसना होगा।’
‘कुछ समय पीछे अपने आप जाग पड़ेगी।’
‘हम-तुम यों ही चल दिए तो गाँव के ढोर आकर सारे महुए खा जाएँगे।’
‘हम-तुम बीनकर इसके पास ढेर लगाकर रख दें, फिर चलें तालाब पर, वहाँ से जंगल में।’
वह मान गया। उन दोनों ने ऐसा ही किया। महुए तड़ाक-फड़ाक बीन ले आए और तिनकी की बगल में ढेर लगा दिया, एक फटे कपड़े से ढक भी दिया। फिर चले गए। तिनकी सोती रही।
वे दोनों तालाब पर नित्य कर्म से निबटकर जंगल में जा घुसे। सूर्योदय हो गया था। किरणों की चमक-दमक पेड़ों की पत्तियों को फहरा रही थी। चिड़ियाँ चहचहा तो रही ही थीं, इन दोनों के आने पर फड़फड़ाकर इधर-उधर उड़ गईं। ये तीर कमान, कुल्हाड़ी और कुदाली भी लिये थे। पक्षी इन्हें पहचानते होंगे, आत्मरक्षा के लिए छिप गए।

जंगल में होकर चौड़ा मार्ग गया था। महोबे में चंदेल राजाओं ने इस प्रकार के मार्ग अपने राज्य-भर में बनवाए थे, जो विस्तार में फैला हुआ था। मध्यदेश के भीतर दूर तक चंदेलों का अपने राज्य का दावा था। चंदेरी के पश्चिम-उत्तरवाले दूर-दूर के नगरों से बैलों, ऊँटों पर-जिन्हें टाँड़ा कहते थे-माल लाद-लादकर लाया जाता था। कपड़े, नमक, अनाज आदि इत्यादि टाँड़ों द्वारा व्यापारी लाते थे। चंदेरी से लगभग पंद्रह कोस की दूरी पर दक्षिण-पूर्व में बेतवा नदी पार करके देवगढ़ जाते थे, जो उस समय विक्रम संवत् 1080 के लगभग-एक बड़ा नगर था, तीर्थस्थान और व्यापार का भी केंद्र। वहाँ से दक्षिण-पूर्व लगभग दस कोस की दूरी पर, दुधई नगर था। यह भी व्यापार का केंद्र और तीर्थस्थान। फिर यहाँ से कई नगरों से होता हुआ पूर्व-दक्षिण में महोबा था। उस समय चंदेल राजा विजयपाल देव थे। इनके पूर्वज ने दूधई का क्षेत्र अपने एक निकट संबंधी को लगा दिया था। इन नगरों के निकट उपजाऊ भूमि में खेती-किसानी होती थी। फिर पहाड़, जंगल और छोटे-बड़े नदी नाले। जंगली पशुओं की भरमार, हाथियों तक के झुंड !

बूढ़ी चंदेरी से नई चंदेरी लगभग चार कोस की दूरी पर थी और व्यापार का केंद्र बन गई थी। बूढ़ी चंदेरी उजड़ सी गई थी, थोड़ी-सी जनसंख्या उसमें फिर भी थी। इनमें कुछ सेठ साहूकार थे, जो उस समय तक नहीं हटे थे।
बुद्धा और मिट्ठू उस मार्ग से कुछ ही दूर जंगल में जाकर मूसली खोदने पर लगे ही थे कि उन्हें घोड़ों की टापों की खर-भर सुनाई पड़ी।
‘कौन होंगे ये ?’ मिट्ठू ने यों ही पूछा और उत्तर भी स्वयं दे लिया, ‘कोई टाँड़ा होगा।’
बुद्धा ने अधिक ध्यान के साथ कान लगाए। कुछ क्षण उपरांत बोला, ‘टाँड़ा नहीं जान पड़ता। घुड़सवार जान पड़ते हैं।’
‘कौन होंगे ? बहुत से जान पड़ते हैं। महाराजजी के किसी दल के आने का कोई समाचार तो आया नहीं है। देख न लो, कौन हैं।’
‘हाँ आँ, चलो देख लें।’
उन दोनों ने कुदाली और कुल्हाड़ियाँ वहीं छोड़ दीं। तीर कमान डाले मार्ग की दिशा में बढ़ गए और किनारे एक पेड़ के नीचे जा खड़े हुए। मार्ग पर आनेवाले घुड़सवार ही थे; होंगे कोई बीस पच्चीस। जैसे ही ये निकट आए, उन दोनों सहरियों ने देखा कि सबसे आगे ढाल-तलवार और तीर कमान से सजा बीस-पच्चीस वर्ष का एक युवा गले में मोतीमाला डाले आ रहा है। उसके पीछेवाले सवार भी सशस्त्र थे।

सहरियों ने उसे उत्सुकता के साथ देखा। देखते रहे। वह रुक गया, उसके साथी भी।
अगुआ कुछ कड़े स्वर में बोला, ‘तुम लोग सहरिये हो न ?’
‘हाँ-हाँ, फिर ?’ उन दोनों के मुँह से निकला।
‘तुमने प्रणाम नहीं किया। जानते हो हम कौन हैं ?’
‘नहीं तो’, बुद्धा ने उत्तर दिया। प्रणाम फिर भी नहीं किया। कई पीछेवाले कंठों से निकला, ‘गँवार हैं ये ! जंगली हैं ये ! श्रीमान् ! करो रे प्रणाम।’
‘यह लो ! अच्छा, अच्छा, कर लेते हैं।’ उन दोनों ने थोड़ा-सा मस्तक झुकाया।
अगुआ के निकटवाले सवार ने कहा, ‘‘श्रीमान् जी, सहरिये जंगली, निपट जंगली जो होते हैं। इन्हें क्षमा कर दिया जाय।’
वे दोनों नहीं समझे कि हमने कौन-सा अपराध किया है।
अगुआ बोला, ‘इनसे काम करावेंगे।’
‘क्यों रे, जंगल में कौन-कौन से जानवर हैं ?’
मिट्ठू ने तुरंत उत्तर दिया, ‘बहुत हैं-हाथी हैं, नाहर हैं, भालू हैं, सुअर हैं-’
अगुआ हँसा-‘तुम लोग हमें अहेर खिलाओगे ?’

‘किसकी ? हाथी की अहेर खेलोगे ?’
अगुआ एक क्षण के लिए चकराया। बोला, ‘हाँ-हाँ, पर पहले नाहर-वाहर।’
नाहर शब्द तो उन दोनों की समझ में आ गया, परंतु ‘वाहर’ नहीं आया। ‘वाहर क्या ?’ मिट्ठू ने उत्सुकता प्रकट की।
उनमें से कई हँस पड़े।
‘पहले हमें गाँव में ले चलो। फिर बतलाएँगे कि वाहर क्या होता है।’ अगुआ ने कहा।
‘ऊँ ऊँ जू। पहले तो हमें मूसली खोदनी है।’ बुद्धा ने कुछ विनय के स्वर में प्रतिवाद किया।
‘कितने पैसे की खोद पाओगे दिन-भर में ?’ अगुआ के पीछेवाले ने प्रश्न किया।
‘चार पैसे की।’ मिट्ठू ने तपाक से उत्तर दिया।
‘हम तुम्हें छः पैसे देंगे। चलो, फिर अहेर में हमारा साथ देना।’
दोनों सहमत हो गए।
‘तुम्हारे यहाँ कितने सहरिये हैं ?’ अगुआ ने पूछा।
‘बहुत हैं, ढेरों हैं,’ मिट्ठू ने उत्तर दिया।

अगुआ के साथी ने हँसकर कहा, ‘‘श्रीमान् जी, ये लोग दस तक गिनती जानते हैं। सहरियों में थोड़े से ऐसे भी होंगे जो संभव है बीस तक की जानते हों।’
‘हाँ-हाँ, सो तो है, सो तो है। बहुत सीधे होते हैं ये।’
‘अच्छा चलो-’अगुआ ने आदेश दिया।
बुद्धा बोला, ‘हम अपनी कुदाली उठा लावें। उस पेड़ के नीचे रक्खी हैं।’
अगुआ के साथी ने धीरे से कहा, ‘श्रीमान् जी, ये कहीं खिसक न जावें।’
‘नहीं, ये सीधे और सच्चे होते हैं।’ अगुआ ने समाधान किया।
वे दोनों चले गए और कुदालियाँ लेकर लौट आए। फिर घुड़सवारों को गाँव की ओर ले चले।

:2:


गाँव ऊँचाई पर था। नीचे बिरवाई से घिरे इखरे-बिखरे थोड़े से झोंपड़े थे। इनमें एक उन सहरियों का था। गांव के लिए वह मार्ग इससे कुछ थोड़ी-सी ही दूर पर था। मार्ग यहाँ अधिक कंकड़ीला था। घोड़ों की टापों की ध्वनि तिनकी ने सुनी। बिरवाई के द्वार की टटिया पर आकर खड़ी हो गई। देखा तो घुड़सवारों के आगे-आगे उसके दोनों भाई, मार्ग-निर्देशन करते से आ रहे हैं। घोड़े और घुड़सवार उसने पहले भी देखे थे। कुतूहल जागा और बिरवाई की टटिया को एक तरफ करके देखने के लिए मार्ग के किनारे जा खड़ी हुई।
मिट्ठू ने कुछ आगे बढ़कर पूछा, ‘कब जागी ? कुछ काम किया या खेलती फिरती रही ?’
‘बड़े भोर जाग पड़ी थी।’
‘हिश !’ उसने हँसी के साथ फटकारा।
अश्वारोही निकट आ गए। अगुआ ने उन दोनों से प्रश्न किया, ‘यह कौन है ?’
‘हमारी बहिन।’

अगुआ ने उसे जरा आँख गड़ाकर देखा, ‘सुंदर है, परंतु साँवली है।’ है सुंदर-उसके मन में उठा। उसने उन दोनों से कहा, ‘हम यहीं ठहरे हैं। हमारे आने की सूचना धनपाल सेठ को दे दो।’
‘क्या कहें ?’ बुद्धा ने पूछा।
अगुआ के साथी ने बताया, ‘कहना कि...रावराजा श्रीमान् खड़गसिंह जू देव पधारे हैं।’
बुद्धा इतना लंबा नाम कैसे एक बार में ही याद कर लेता ? रटने-सा लगा।
अगुआ ने अपने साथी से कहा, ‘अपने में से किसी एक को इसके साथ भेज दो।’ उसके साथ एक घुड़सवार चला गया।
अगुआ खड़गसिंह घोड़े से उतर पड़ा। अन्य सवार भी उतर पड़े। एक ने अपने ‘रावराजा’ का घोड़ा थाम लिया। खड़गसिंह की आँखें बड़ी-सी। रेखाएँ लाल। पुष्ट देह। कद मझोला। छोटी मूँछ, दाढ़ी। नाक लंबी सीधी। नथुने फूले हुए। वह धीरे-धीरे तिनकी के कुछ निकट जाकर खड़ा हो गया, उससे बात करने लगा, ‘क्या-क्या काम करती हो ?’
तिनकी, ‘सब कुछ। महुए बीनती हूँ, अनाज पीसती हूँ, रोटी बनाती हूँ, जंगल से लकड़ी-कंडे बीन लाती हूँ और भजन गाती हूँ।’

तिनकी के बेधड़कपन से वह बहुत विस्मित नहीं हुआ। बोला, ‘क्या-क्या गाती हो ?’ वह गाना नहीं सुनना चाहता था, सुंदर आकृतिवाली लड़की से बात करना चाहता था।
मिट्ठू आगे बढ़कर बोला, ‘भजन गाती है, बताया तो है उसने।’
खड़गसिंह, ‘किसके भजन ?’
मिट्ठू, ‘अपने देवताओं के-घटौरिया बाबा के, गौड़ बाबा के, नाग देवता के; पर सबके सामने तो गाती फिरती है नहीं।’
खड़गसिंह को बात करने का ढंग कुछ खटका। उसके एक अनुयायी ने मिट्ठू से कहा, ‘श्रीमान् के लिए एक खटिया मँगवा लो।’
‘हमारे घर में खटिया नहीं है,’ तिनकी ने नाहीं की और अपने अहाते में चली गई।
खड़गसिंह ऐंठ के साथ बोला, ‘हम महुए के पेड़ की जड़ पर बैठ जाते हैं,’ और वह जा बैठा।
उसके साथी आपस में बात करने लगे-
एक ने कहा, ‘सहरिये सीधे बहुत होते हैं-’
दूसरा बोला, ‘निपट गँवार, जंगली।’
‘परंतु है बहुत निडर।’

‘जंगलों में रहते हैं, वहीं घूमते-फिरते हैं।’
‘तीर बहुत अच्छा चलाते हैं।’
‘अपने राजा इन्हें भी सेना में भरती कर लें तो अच्छा रहेगा।’
‘अभी तो उनका विचार ऐसा नहीं है।’
‘इस लड़के से बात करो, क्या कहता है।’
एक ने मिट्ठू को संकेत से बुलाकर कहा, ‘तुम राजाजी की चाकरी करोगे ?’
‘हम भूखों थोड़े ही मरते हैं, जो किसी की चाकरी करें।’ उसने ठंडक के साथ उत्तर दिया।
‘सेना में भरती होगे ?’
‘फिर मूसली कैसे खोद सकेंगे ?’
वे लोग उसकी सिधाई पर हँसने-मुसकराने लगे।
एक ने पूछा, ‘‘पानी पीना है। यहाँ पास कोई कुआँ है ?’

‘हमारा पानी पिओगे ?’ मिट्ठू ने जानते हुए कि वे लोग सहरिये का पानी नहीं पी सकते, प्रश्न किया।
‘छिः ! छि: ! तुम्हारा पानी हम कैसे पी सकते हैं ? कुआँ बतला दो तो भर लेंगे। हमारे पास लोटे डोरे हैं।’
मिट्ठू ने कुआँ दिखला दिया। वे लोग बारी-बारी से पानी पीने चले गए। एक ने अपने सरदार को भी पिलाया।
थोड़ी देर में बुद्धा के साथ सवार लौट आया। पीछे-पीछे वह सेठ, जिसके यहाँ बुद्धा उसे ले गया था। सेठ को देखते ही खड़गसिंह पेड़ से ऐसा टिक गया जैसे मसनद पर रखे तकिये से टिका हो। सेठ ने बड़ी विनय के साथ खड़गसिंह को कई बार प्रणाम किए। वे एक दूसरे को पहले से जानते थे।
‘कहिए सेठ धनपाल जी, सब कुशल मंगल तो है ?’ खड़गसिंह ने शिष्टाचार निभाया।
‘श्री महाराज की कृपा से सब ठीक है। आप पेड़ की जड़ पर विराजे हैं। मेरी झोंपड़ी को शोभा देने के लिए चलने का कष्ट करें।’
‘चलते हैं, आए ही हैं आपसे कुछ बात करने,’ उसने कहा और अँगड़ाई लेता हुआ पेड़ की जड़ से उठकर खड़ा हो गया। घोड़ा मँगवाया और साथियों को गाँव चलने का संकेत किया। सबके सब शीघ्र तैयार हो गए। सेठ के साथ बुद्धा भी गया। दोनों पैदल घुड़सवारों के आगे-आगे मार्गदर्शन के लिए।
गाँव की जनसंख्या कम हो गई थी। बहुत से बड़े-बड़े मकानों के खंडहल हो गए थे, फिर भी थोड़े से अच्छी हालत में थे, बिखरे हुए।

धीरे-धीरे चलते हुए कुछ समय उपरांत ये सब सेठ के मकान पर पहुँच गए। मार्ग में जो कोई भी मिले, सबने खड़ग को झुक-झुककर नमस्कार किया-पहचानते कुछ ही होंगे, परंतु गाँव का सेठ पैदल चलकर जिन्हें लिये आ रहा था, अवश्य राव या राजा होंगे।
सेठ का मकान दोमंजिला और बड़ा था। ऊपर छत थी, जिसपर बरसात की ऋतु में रात के समय लेटने के लिए कई पक्के छपरे थे। मकान का द्वार बड़ा था। काठ के मोटे तख्तोंवाले बड़े किवाड़, जिनमें कारीगरी के साथ लोहे के मोटे कील जड़े हुए थे।
खड़ग ने घोड़े से उतरते ही हँसकर सेठ की तरफ देखते हुए अपने सवारों से कहा, ‘इतने बड़े भवन को सेठजी झोंपड़ी कहते हैं।’
सेठ ने विनय के साथ कहा, ‘आप राजा हैं, आपके लिए तो झोंपड़ी ही है।’ खड़ग राजा नहीं था। पूर्वपुरुष एक छोटे से राज्य के राजा थे। लड़ाइयों में राज्य बहुत छोटा रह गया और वंशज रावराजा कहलाने लगे। सेठ का एक टाँड़ा भी चलता था, जो उन दिनों बाहर गया हुआ था। खड़गसिंह के घोड़े बँधने के लिए काफी स्थान था। बाँध दिए गए। दाना-पानी का प्रबंध हो गया। सेठ के भवन की पौर बड़ी थी। उसमें एक बड़ा चबूतरा था। खड़ग को उसपर बिठला दिया गया। मसनद तकिये से टिक गया। अन्य साथी भी यथास्थान जमा दिए गए। स्नानागार के साधन जुटा दिए।

भोजन सामग्री तैयार करने के लिए सेठ ने पहले ही यत्न कर लिया था, अब देखने के लिए भीतर गया कि कितनी देर है।
सेठ के संतान नहीं थी। उसकी आयु चालीस के लगभग होगी, पत्नी की कुछ कम। लगती थी अधिक आयु की। स्वभाव की चिड़चिड़ी। उस क्षण जब सेठ भीतर गया, पूजा-पत्री से निष्कृत होकर उठी थी। बोली, ‘सौ दो सौ की भीड़ आती तो तुम्हें और भी अच्छा लगता।’
सेठ ने धीमे स्वर में कहा, ‘धीरे बोलो, धीरे। कितनी देर है ?’
‘षट्रस व्यंजन बनवाए हैं। आधी रात तक बन जाएँगे।’
‘तो उन लोगों से कह दूँ कि उपवास करो।’
‘पहले ही कह देते तो काहे को इतनी सामग्री नष्ट करती।’
‘वह रावराजा हैं। यहाँ से बहुत दूर नहीं रहते हैं। अपने काम आ सकते हैं।’
‘अपने घर का पहरा लगावेंगे ?’
‘अरे रे रे ! ऐसा मत कहो। मुझसे कहा सो कहा, किसी और से मत कहना, इन लोगों की तलवार खटाक से निकल पड़ती है म्यान से।’
‘बहुत करेंगे मुझे काट डालेंगे। इस विपदा से तो बच जाऊँगी।’
‘अरे ! ऐसा मत कहो। हम लोग यहाँ ऐसे स्थान पर हैं जहाँ सुरक्षा की आवश्यकता है। इन सबसे मेलजोल रखना आवश्यक है।’
‘तुम कहते रहते हो कि यहाँ खंडहलों को छोड़कर देवगढ़ बसने जा रहे हैं। कितनी बरसों पीछे पहुँचोगे देवगढ़ ? मेरे मर जाने पर ?’
‘ऐसी बात मत करो। मैंने देवगढ़ में सब प्रबंध कर लिया है। अपना टाँड़ा लौट आए, फिर तो बस वहीं जाकर बसना है।’




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