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अन्तरंग आलोक

तापस सेन

प्रकाशक : सेतु प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :400
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16596
आईएसबीएन :9789392228308

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तापस सेन की पहचान एक नेपथ्य शिल्पी के तौर पर रही है। वे मंच से बाहर, दर्शकों की नज़र की ओट में ही रहते थे। पादप्रदीप की रोशनी की दरकार नहीं थी वहाँ। हालाँकि केवल पादप्रदीप नहीं, पूरे प्रेक्षागृह की रोशनी को नियन्त्रित करने की ज़िम्मेदारी उन्हीं पर होती थी। मंच की प्रकाश-व्यवस्था को विज्ञान के पर्याय तक पहुँचाया था सतू सेन ने। उनके ही सुयोग्य उत्तराधिकारी तापस सेन उसे शिल्प के स्तर पर उतार कर लाये। उन्‍होंने विज्ञान और शिल्प को समन्वित कर दिया। इसीलिए वे आलोक शिल्पी थे और शिल्पी होने की वजह से ही उनकी सृजनशीलता में सचेतन भाव से सामाजिक चेतना घुली-मिली थी। इसका प्रमाण उनके रचे दृश्य-काव्य हैं।

ये निर्वाचित निबन्ध दरअसल, आलोक शिल्पी तापस सेन के अन्‍तरंग का ही विस्तार हैं। वे आजीवन जीवन और जगत्‌ के नाना रहस्यों के प्रति अनन्य जिज्ञासु भाव से भरे रहे और मंच व महाकाश की आलोक रश्मियों को समझने का प्रयास करते रहे। उनके सूर्यस्नात नक्षत्र-मण्डल के केन्द्र में अपने सामाजिक सुख-दुःख के साथ मनुष्य ही प्रतिष्ठित था। शिल्प और जीवन के प्रति ज़िम्मेदारी समझते हुए लिखे गये इन निबन्धों में मंच पर प्रकाश-प्रक्षेपण के तत्त्व और उसके विविध विकिरण ही प्रकाशित हैं। इसीलिए कोमल और कठोर मिश्रित मानसिकता के द्वन्द्व में कभी स्पष्ट कथन लक्षित होते हैं, तो कभी तिर्यक्‌ कथन। उनकी प्रस्तुतियों में आलोक का रहस्य उद्घाटित होता है। वे नितान्त निर्वेयक्तिक और निर्मोही ढंग से प्रकाश कणिका का निरपेक्ष संचरण सम्भव बनाते थे। और इस तरह द्विविध चाल से चलते हुए, उनकी सत्ता के साथ घुल-मिल कर जो रचना  बनती थी, उससे एक वृत्त पूरा होता था, जो जीवन का ही नामान्तरण है।

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