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गढ़ कुंडार

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :318
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1671
आईएसबीएन :81-7315-073-7

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प्रस्तुत पुस्तक में बुदेलखंड के इतिहास पर प्रकाश डाला गया है...

Garh Kundar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस पुस्तक में बुंदेलखंड के इतिहास का संक्षेप में वर्णन किया गया है। इतिहास का जितना संबंध इस कहानी से है, बहुत संक्षेप में केवल उसी का उल्लेख कर देना पर्याप्त होगा।

परिचय

इस उपन्यास की घटनाओं के परिचय के लिए और कुछ लिखने की आवश्यकता न होती, परंतु इसमें यत्र-तत्र तत्कालीन इतिहास की चर्चा है, इसलिए यहाँ थोड़ा-सा परिचय देने की आवश्यकता जान पड़ी। बुंदेलखंड के इतिहास का संक्षेप में भी यहाँ वर्णन करना अभीष्ट नहीं है। इतिहास का जितना संबंध इस कहानी से है, बहुत संक्षेप में केवल उसी का उल्लेख कर देना पर्याप्त होगा।

पहले यहाँ गोंडों का राज्य था, परंतु उनके मंडलेश्वर या सम्राट पाटलिपुत्र और पश्चात् प्रयाग के मौर्य हुए। जब मौर्य क्षीण हो गए, तब पड़िहारों का राज्य हुआ, परंतु उनकी राजधानी मऊ सहानिया हुई, जो नौगाँव छावनी से पूर्व में लगभग तीन मील दूर है। आठवीं शताब्दी के लगभग चंदेलों का उदय खजुराहो और मनियागढ़ के निकट हुआ और उनके राज्य-काल में जुझौति (आधुनिक बुंदेलखंड) आश्चर्यपूर्ण श्री और गौरव को प्राप्त हुआ। सन् 1182 में पृथ्वीराज चौहान ने अंतिम चंदेलराजा परमर्दिदेव (परमाल) को पहूज नदी के सिरसागढ़ पर हराकर चंदेल-गौरव को सदा के लिए अस्त कर दिया।
इसके बाद सन् 1192 में पृथ्वीराज चौहान स्वयं शहाबुद्दीन गोरी से पराजित खेतसिंह खंगार के हाथ में था। वह 1192 के बाद स्वतंत्र हो गया, और खंगारों के हाथ में जुझौति का अधिकांश भाग अस्सी वर्ष के लगभग रहा।

इस बीच में मुसलमानों के कई हमले जुझौति पर हुए, परंतु दीर्घ काल तक कभी भी यह प्रदेश मुसलामानों की अधीनता में नहीं रहा। कुंडार का अंतिम खंगार राजा हुरमतसिंह था। उसकी अधीनता में कुछ बुंदेले सरदार भी थे। सोहनपाल के भाई, माहौनी के अधिकारी भी ऐसे ही सरदारों में थे। सोहनपाल के साथ उनके भाई ने न्यायोचित बरताव नहीं किया था, इसलिए उनको कुंडार-राजा से सहायता की याचना करनी पड़ी। उनका विश्वस्त साथी धीर प्रधान नाम का एक कायस्थ था। धीर प्रधान का एक मित्र विष्णुदत्त पांडे उस समय कुंडार में था। पांडे बहुत बड़ा साहूकार था। उसका लाखों रुपया ऋण हुरमतसिंह पर था-शायद पहले से पांडे घराने का ऋण खंगार राजाओं पर चला आता हो। धीरे प्रधान अपने मित्र विष्णुदत्त पांडे के पास अपने स्वामी सोहनपाल का अभीष्ट सिद्ध करने के लिए गया। हुरमतसिंह अपने लड़के नागदेव के साथ सोहनपाल की कन्या का विवाह-संबंध चाहता था। यह बुंदेलों को स्वीकार न हुआ। उसी जमाने में सोहनपाल स्वयं सकुटुंब कुंडार गए। हुरमतसिंह के पुत्र ने उनकी लड़की को जबरदस्ती पकड़ना चाहा। परंतु यह प्रयत्न विफल हुआ। इसके पश्चात् जब बुंदेलों ने देखा कि उनकी अवस्था और किसी तरह नहीं सुधर सकती, तब उन्होंने खंगार राजा के पास संवाद भेजा कि लड़की देने को तैयार हैं; साथ ही विवाह की रीति-रस्म भी खंगारों की विधि के अनुसार ही बरती जाने की हामी भर दी। खंगार इसको चाहते ही थे। मद्यपान का उनमें अधिकता के साथ प्रचार था।

विवाह के पहले एक जलसा हुआ। खंगारों ने उसमें खूब शराब ढाली। मदमत्त होकर नशे में चूर हो गए। तब बुंदेलों ने उनका नाश कर दिया। यह घटना सन् 1228 (संवत् 1345) की बतलाई जाती है। बुंदेलों के पहले राजा सोहनपाल हुए। उनका देहांत सन् 1299 में हो गया। उनके बाद राजा सहजेंद्र हुए और उन्होंने सन् 1326 तक राज्य किया। इस प्रकार बुंदेले कुंडार में अपनी राजधानी सन् 1507 तक बनाए रहे। सन् 1507 में बुंदेला राजा रुद्रप्रताप ने ओरछे को बसाकर अपनी राजधानी ओरछे में कायम कर ली।

सहजेंद्र की राज्य-प्राप्ति में करेरा के पँवार सरदार पुण्यलाल ने सहायता की थी। इसके उपलक्ष्य में सहजेंद्र की बहिन, जिसका नाम उपन्यास में हेमवती बतलाया गया है, और राज्य के भाट के कथनानुसार रूपकुमारी था, पँवार सरदार को ब्याह दी गई।
उपन्यास में जितने वर्णित चरित्र इतिहास-प्रसिद्ध हैं, उनका नाम ऊपर आ गया है। मूल घटना भी एक ऐतिहासिक सत्य है, परंतु खंगारों के विनाश के कुछ कारणों में थोड़ा-सा मतभेद है।
बुंदेलों का कहना है कि कुंडार का खंगार राजा हुरमतसिंह जबरदस्ती और पैशाचिक उपाय से बुंदेला-कुमारी का अपहरण युवराज नागदेव के लिए करना चाहता था। खंगार लोग अपने अंतिम दिवस में शराबी, शिथिल, क्रूर और राज्य के अयोग्य हो गए थे, इसलिए जान-बूझकर वे विवाह-प्रस्ताव की आग में शराब पीकर कूदे, और खुली लड़ाई में उनका अंत किया गया। एक कारण यह भी बतलाया जाता है कि खंगार राजा दिल्ली के मुसलमान राजाओं के मेली थे, इसलिए उनका पूर्ण संहार जरूरी हो गया था।

खंगार लोग और बात कहते हैं-वे अपने को क्षत्रिय कहते हैं, और कोई संदेह नहीं कि कई क्षेत्रों में उनका राज्य रहा है। वे यह भी कहते हैं कि क्षत्रिय राजाओं-सामंतों की कन्याएँ उनके यहाँ ब्याही जाती थीं। उपन्यास संबंधी प्रसंग के बारे में उनका कहना है कि बुंदेलों ने पहले तो लड़की देने का प्रस्ताव किया, फिर कपट करके, शराब पिलाकर और इस तरह अचेत करके खंगारों को जन-बच्चों सहित मार गिराया। वे लोग यह भी कहते हैं कि बुंदेले मुसलमानों को जुझौति में ले आए थे।
खंगारों का पिछला कथन इतिहास के बिलकुल विरुद्ध है, और युक्ति से असंभव जान पड़ता है, इसलिए कहानी-लेखकों तक को ग्राह्य नहीं हो सकता।

बुंदेलों ने अपना राज्य कायम करने के बाद जुझौति की शान को बनाए रखने की काफी चेष्टा की। प्रदेश की स्वाधीनता के लिए उन्होंने घोर प्रयत्न किए और बड़े-बड़े बलिदान भी। बुंदेलखंड की वर्तमान हिंदू जनता में जो प्राचीन हिंदुत्व (Classical culture) अभी थोड़ा-बहुत शेष है उसकी रक्षा का अधिकांश श्रेय बुंदेलों को ही है। बेचारे खंगारों का नाम सन् 1288 के पश्चात् जुझौति के संबंध में बिलकुल नहीं आता। उनका पतन उसके बाद ऐसा घोर और इतना विकट हुआ कि आजकल उनकी गिनती बहुत निम्न श्रेणी में की जाती है। परंतु इसमें जरा भी संदेह नहीं कि एक समय उनके गौरव का था और उनके नाम की पताका जुझौति के अनेक गढ़ों पर वीरों और सांमतों के ऊँचे सिरों पर फहराया करती थी। उनके पतन की जिम्मेदारी उनके निज के दोषों पर कम है, उसका दायित्व उस समय के समाज पर अधिक है। लेखक को इसी कारण अग्निदत्त पांडे की शरण लेनी पड़ी।

जिस तरह गढ़ कुंडार पर्वतों और वनों से प्ररिवेष्ठित, बाह्य दृष्टि से छिपा हुआ पड़ा है, उसी तरह उसका तत्कालीन इतिहास भी दबा हुआ-सा है।
परंतु वे स्थल, वह समय और समाज अब भी अनेकों के लिए आकर्षण रखते हैं। उपन्यास में वर्णित चरित्रों के वर्तमान सादृश्य प्रकट करने का इस समय लेखक को अधिकार नहीं, केवल अपने एक मित्र का नाम कृतज्ञता-ज्ञापन की विवशता के कारण बतलाना पड़ेगा। नाम है दुर्जन कुम्हार। सुल्तानपुरा (चिरगाँव से उत्तर में दो मील) का निवासी था। उपन्यास में जिन स्थानों का वर्णन किया गया है, वे जंगलों में अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़े हुए हैं। दुर्जन कुम्हार की सहायता से लेखक ने उनको देखा। ‘गढ़ कुंडार’ का अर्जुन कुम्हार इसी दुर्जन का प्रतिबिंब है। ‘गढ़ कुंडार’ की कहानी उसने सुनी है, उसने समझी भी है या नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता ! परंतु उसको यह कहते हुए सुना है-‘‘बाबू सा’ब, मोरे चाए कोऊ टूँका-टूँका भलैइँ कर डारै, पै, नौन हरामी मौसैं कभऊँ न हुइए।

-लेखक


गढ़ कुंडार
प्रवेश


तेरहवीं शताब्दी का अंत निकट था, महोबे में चंदेलों की कीर्ति-पताका नीची हो चुकी थी। जिसको आज बुंलेदखंड कहते हैं, उस समय उसे जुझौति कहते थे। जुझौति के बेतवा, सिंध और केन द्वारा सिंचित और विदीर्ण एक बृहत् भाग पर कुंडार के खंगार राजा हुरमतसिंह का राज्य था।
कुंडार, जो वर्तमान झाँसी से पूर्व-पूर्वोत्तर कोने की तरफ तीस मील दूर है, इस राज्य की समृद्धि-संपन्न राजधानी थी। कुंडार का गढ़ अब भी अपनी प्राचीन शालीनता का परिचय दे रहा है। बीहड़ जंगल, घाटियों और पहाड़ों से आवृत्त यह गढ़ बहुत दिनों तक जुझौति को मुसलमानों की आग और तलवार से बचाए रहा था।
महोबा के राजा परमर्दिदेव चंदेल के पृथ्वीराज चौहान द्वारा हराए जाने के बाद से चंदेले छिन्न-भिन्न हो गए। पृथ्वीराज ने अपने सामंत खेतसिंह खंगार को कुंडार का शासक नियुक्त किया। उसी खेतसिंह का वंशज हरमतसिंह था। हरमतसिंह लड़ाकू, हठी और उदार था। परंतु वृद्धावस्था में उसकी उदारता अपने एकमात्र पुत्र नागदेव के निस्सीम स्नेह में परिवर्तित हो गई थी।

नागदेव प्रायः बेतवा के पूर्वी तट पर स्थित देवरा, सेंधरी माधुरी और शक्तिभैरव के जंगलों में शिकार खेला करता था। सेंधरी और माधुरी अभी बाकी हैं, शक्तिभैरव, जो पूर्वकाल में एक बड़ा नगर था, आजकल लगभग भग्नावस्था में है। वर्तमान चिरगाँव से पूर्व की ओर छः मील पर एक घाट देवराघाट के नाम से प्रसिद्ध है। देवरा का और कुछ शेष नहीं है। तेरहवीं शताब्दी में देवरा एक बड़ा गाँव था। अब तो खोज लगाने पर विशाल बेतवा-तल की ऊँची करार पर कहीं-कहीं पुरानी ईंटे और कटे हुए पत्थर, गड़े हुए मिलते हैं। कुंडार से आठ मील उत्तर की ओर देवरा की चौकी चमूसी पड़िहार के हाथ में थी, जो हुरमतसिंह का एक सामंत था। बेतवा के पश्चिमी तट पर देवल, देवधर (देदर), भरतपुरा, बजटा सिकरी रामनगर इत्यादि की चौकियाँ भरतपुरा के हरी चंदेल के हाथ में थीं। इसकी गढ़ी भरतपुरा में थी। यह बेतवा के पश्चिमी किनारे पर ठीक तट के ऊपर थी। यहाँ से कुंडार का गढ़ पूर्व और दक्षिण के कोने की पहाड़ियों में होकर झाँकता-सा दिखाई पड़ता था। अब उस गढ़ी के कुछ थोड़े से चिह्न हैं। किसी समय इस गढ़ी में पाँच सौ सैनिकों के आश्रय के लिए स्थान था। वर्तमान भरतपुरा अब यहाँ से दो मील उत्तर-पश्चिम के कोने में जा बसा है। प्राचीन गढ़ी के पृथ्वी से मिले हुए खंडहर में अब वन्यपशु विलास किया करते हैं, और नीचे से बेतवा पत्थरों को तोड़ती-फोड़ती कलकल निनाद करती हुई बहती रहती है। यही हालत बजटा की है। केवल कुछ थोड़े-से चिह्न-मात्र रह गए हैं। तेरहवीं शताब्दी में बजटा अहीरों की बस्ती थी, जो खेती कम करते थे और पशु-पालन अधिक।

देवल में, तेरहवीं शताब्दी में, देवी का एक प्रसिद्ध मंदिर था। पुराना देवल मिट गया है, और उसका पुराना देवालय भी। केवल कुछ टूटी-फुटी मूर्तियाँ वर्तमान देवल के पीछे इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। पुराने देवल के धुस्स बेतवा के बैजापारा नामक घाट के पश्चिमी कूल पर फैले हुए हैं, जो खोज लगाने पर भी नहीं मिलते। कभी-कभी कोई गड़रिया बरसात में यहाँ पर भेड़-बकरी चराता-चराता कहीं कोई स्थान खोदता है, तो अपने परिश्रम के पुरस्कार में एक-आध चंदेली सिक्का या चंदेली ईंट पा जाता है। देवधर का नाम देदर हो गया है। रामनगर, सिकरी इत्यादि मौजूद हैं, परंतु अपने प्राचीन स्थानों से बहुत इधर-उधर हट गए हैं। कुछ तो इसका कारण बेतवा की प्रखर धार है, जिसने लाखों बीघे भूमि काट-कूटकर भरकों में लौट-पलट कर दी है, और कुछ इसका कारण आक्रमणकारियों की आग और तलवार है।
आजकल देवराघाट के पूर्वी किनारे पर, जिसके मील-भर पीछे दिग्गज पलोथर पहाड़ी है, करधई के जंगल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। परंतु जिस समय का वर्णन हम करना चाहते हैं, उस समय वहाँ कुछ भूमि पर खेती होती थी। शेष आजकल की तरह वन था।

पीछे पहाड़, बीच में हरी-भरी खेती और इधर-उधर जंगल। उसके बाद नील तरंगमय दो भागों में विभक्त बेतवा। एक धारा देवल के पास से निकलकर देवधर (वर्तमान देदर) के नीचे पश्चिम की ओर देवरा से आधा मील आगे चलकर पूर्व की ओर दूसरी धार से मिल गई है। दोनों भागों के बीच लगभग एक मील लंबा और आधा मील चौड़ा एक टापू बन गया है, जिसे अब बरौल का सूँड़ा कहते हैं। इसके दक्षिणी सिरे पर शायद खंगारों के समय से पहले की एक छोटी-सी गढ़ी और चहारदीवारी बनी चली आती थी, जो अब बिलकुल खंडहर हो गई है। आजकल इसमें तेंदुए और जंगली सुअर विहार करते हैं।
देवल, देवरा और देवधर में बड़े-बड़े मंदिरों की काफी संख्या थी। दुर्गा और शिव की पूजा विशेष रूप से होती थी। इन मंदिरों की रक्षा के लिए और कुंडार में मुसलमानों और अन्य शत्रुओं का प्रवेश रोकने के लिए इन सब चौकियों में खंगारों के करीब दो सहस्र सैनिक रहा करते थे। टापू की चौकी किशुन खंगार के आधिपत्य में थी। कुंडार-राज की सेना में पड़िहार, कछवाहे, पँवार, धंधेरे, चौहान, सेंगर, चंदेले इत्यादि राजपूत और लोधी, अहीर, खंगार इत्यादि जातियों के लोग थे। खास कुंडार में करीब बाईस सहस्र पैदल और घुड़सवार थे।

शक्तिभैरव नगर इस नाम के मंदिर के कारण दूर-दूर प्रसिद्ध था। दो सौ वर्ष के लगभग हुए, तब मंदिर बिलकुल ध्वस्त हो गया था। कहते हैं, ओरछा के किसी संपन्न अड़जरिया ब्राह्मण को शिव की मूर्ति ने स्वप्न में दर्शन देकर अपना पता बतलाया था और उसी ने इस मंदिर का जीर्णोद्वार करा दिया था। यह मंदिर शक्ति, भैरव और महादेव का था। मंदिर के अहाते के एक कोने में भैरवी-चक्र की एक शिला अब भी पड़ी हुई है। उस नगर के वर्तमान भग्नावशेष को लोग आजकल सकतभैरों कहते हैं। चालीस-पचास वर्ष पहले तक इस नगर की कुछ श्री शेष रही। परंतु उसके पश्चात् एकदम उसका अंत हो गया। वहाँ के अनेक वैश्य और सुनार झाँसी, चिरगाँव और अन्यान्य कस्बों में चले गए और वहाँ ही जा बसे।

यद्यपि जुझौति का सब कुछ चला गया, मान-मर्यादा गई, स्वाधीनता गई, समृद्धि गई, बल-विक्रम भी चला गया-तो भी चंदेलों के बनाए अत्यंत मनोहर और करुणोत्पादक मंदिर और गढ़ अब भी बचे हुए हैं और बची हुई हैं चंदेलों, की झीलें, जिनके कारण यहाँ के किसान अब भी चंदेलों का नाम याद कर लिया करते हैं। यहाँ के प्राकृतिक दृश्य जिनका सौंदर्य और भयावनापन अपनी-अपनी प्रभुता के लिए परस्पर होड़ लगाया करता है, अब भी शेष है। पलोथर की पहाड़ी पर खड़े होकर चारों ओर देखनेवाले को कभी अपना मन सौंदर्य के हाथ और कभी भय के हाथ में दे देना पड़ता है। ऐसा ही उस समय भी होता था, जब संध्या समय पलोथर के नीचे बेतवा के दोनों किनारों पर शंख और घंटे तथा कुंडार के गढ़ से खंगारों की तुरही बजा करती थी। और अब भी है जब पलोथर की चोटी पर खड़ा होकर नाहर अपने नाद से देवरा, देवल, भरतपुरा इत्यादि के खंडहरों को गुंजारता और बेतवा के कलकल शब्द को भयानक बनाता है। अब कुंडार में तुरही नहीं बजती। उसमें करधई का इतना घना जंगल है कि साँभर, सुअर और कभी-कभी तेंदुआ भी छिपाव का स्थान पाते हैं।



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