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अमीर खुसरो और उनका हिन्दी साहित्य

भोलानाथ तिवारी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :201
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1680
आईएसबीएन :81-7315-030-3

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प्रस्तुत पुस्तक अमीर खुसरों के जीवन व उनकी रचनाओं पर आधारित है...

Amir Khusro Aur Unka Unka Hindi Sahitya a hindi book by Bholanath Tiwari - अमीर खुसरो और उनका हिन्दी साहित्य - भोलानाथ तिवारी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

(क)    जीवन-परिचय

वंश

अमीर ख़ुसरो के पूर्वज हज़ारा तुर्क थे, और उनके मूल क़बीले का नाम ‘लाचीन’ या ‘हज़ारये लाचीन’ था। ‘हज़ारा’ मूलतः कोई वंश था। तुर्की शब्द ‘लाचीन’ का अर्थ है ‘ग़ुलाम’। इससे अनुमान लगता है कि हज़ारा वंश की किसी ग़ुलाम शाखा से इसका सम्बन्ध था। इनके क़बीले का मूल स्थान तुर्किस्तान का ‘कश’ नामक स्थान था, जो अब ‘कुबत्तुल ख़जरा’ कहलाता है। कुछ लोग इसे ‘माये मुर्ग़’ के पास का एक दूसरा स्थान भी मानते हैं। ‘कश’ से इनके पूर्वज बलख़ आ गये थे। वहीं से इनके पिता भारत आए थे।

जन्म-स्थान

अमीर ख़ुसरो का जन्म-स्थान काफ़ी विवादास्पद है। भारत में सबसे अधिक प्रसिद्ध यह है कि वे उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले के ‘पटियाली’ नाम के स्थान पर पैदा हुए थे। कुछ लोगों ने गलती से ‘पटियाली’ को ‘पटियाला’ भी कर दिया है, यद्यपि पटियाला से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था, हाँ, पटियाली से अवश्य था। पटियाली के दूसरे नाम मोमिनपुर तथा मोमिनाबाद भी मिलते हैं। पटियाली में इनके जन्म की बात हुमायूँ के काल के हामिद बिन फ़जलुल्लाह जमाली ने अपने ‘तज़किरा’ सैरुल आरफ़ीन’ में सबसे पहले कही। उसी के आधार पर बाद में लोग उनका जन्म पटियाली होने की बात लिखते और करते रहे। हिन्दी, उर्दू तथा अंग्रेजी की प्रायः सभी किताबों में उनका जन्म पटियाली में ही माना गया है। ए.जी.आर्बरी की प्रसिद्ध पुस्तक ‘क्लासिकल मर्शियन लिट्रेचर’ तथा ‘एनासाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ जैसे प्रामाणिक ग्रन्थों में भी यही मान्यता है।

कुछ लोगों ने अमीर ख़ुसरो का जन्म भारत के बाहर भी होने की बात कही है। उदाहरण के लिए मुहम्मद शफ़ी मोअल्लिफ़ ‘मयख़ाना’ ने ‘मखज़न अख़बार’ के हवाले से अफ़गानिस्तान में काबुल से पाँच मील दूर ‘ग़ोरबंद’ नाम के क़स्बे में इनका जन्म माना है। उनका कहना है कि अमीर ख़ुसरो के पिता अपने भाइयों से लड़कर काबुल चले गये थे, किंतु फिर जब चंगेज़ ख़ाँ उधर आया तो वे भागकर फिर भारत आ गये। ऐसे ही कुछ लोगों ने बुख़ारा में भी उनके पैदा होने की बात की है। दाग़िस्तानी ने लिखा है कि इनका जन्म भारत के बाहर हुआ और ये अपने माँ-बाप के साथ बलख़ से हिन्दुस्तान आए। एक मत यह भी है कि इनकी माँ जब बलख़ से आयीं तो वे गर्भवती थीं तथा इनका जन्म भारत में ही हुआ।
इस सदी के सातवें दशक में 1976 में पाकिस्तानी लेखक मुमताज हुसैन की अमीर ख़ुसरो पर एक पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने विस्तार से अमीर ख़ुसरो की जन्मभूमि पर विचार करते हुए, उपर्युक्त सभी मतों का खण्डन किया तथा यह सिद्ध किया कि ख़ुसरो का जन्म दिल्ली में हुआ। इसीलिए उन्होंने अपनी पुस्तक का नाम रखा ‘अमीर ख़ुसरो देहलवी : हयात और शायरी’। छः वर्ष बाद 1982 में यह पुस्तक भारत में छपी।

वस्तुतः लगता है कि ख़ुसरो दिल्ली में ही पैदा हुए थे, पटियाली या काबुल आदि में नहीं। इसके पक्ष में काफी बातें कही जा सकती है। यों उपर्युक्त मतों में, पटि्याली या दिल्ली में जन्म-स्थान ही अधिकांश विद्वानों को मान्य रहे हैं। इन दोनों में भी पक्ष-विपक्ष में विचार करने पर संभावना यही लगती है कि वे दिल्ली में ही पैदा हुए थे। इस प्रसंग में निम्नांकित बातें देखी जा सकती हैं—

(1)    इतिहास बतलाता है कि 1253 में जब अमीर ख़ुसरो पैदा हुए, पटियाली में प्रायः जंगल था। वहाँ न तो बादशाही क़िला था, और न बस्ती। आस-पास के बाग़ी राजपूतों को दबाने के लिए क़िला बाद में बना और तभी बस्ती भी बसी। ऐसी स्थिति में वहाँ अमीर ख़ुसरो के पैदा होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
(2)    उस काल की प्रसिद्ध इतिहास-पुस्तक ‘तबकात-ए-नासिर’ (मेहनाज सराज़-लिखित) में ख़ुसरो के विषय में काफ़ी कुछ है, किन्तु इनके पटियाली में जनमने की बात नहीं है।
(3)    ख़ुसरो अपने काल में अपनी फ़ारसी शायरी के लिए फ़ारस (ईरान) में भी प्रसिद्ध हो गए थे। वहाँ के प्रसिद्ध साहित्यिक इतिहासों में उनका नाम आता है, जिसमें उनकी पैदाइश दिल्ली लिखी गयी है। वहाँ के प्रसिद्ध कवियों में शैख़ सादी से लेकर अब्बास इक़बाल तक सभी ने उन्हें ‘ख़ुसरो देहलवी’ कहा है। उनके नाम के साथ ‘देहलवी’ का जोड़ा जाना, स्पष्ट ही इसी मान्यता पर आधारित है कि वे देहली में पैदा हुए थे।
(4)    ख़ुसरो के नाना दिल्ली में रहते थे तथा वे एक नवमुस्लिम (नये-नये बने मुसलमान) राजपूत थे जिनका नाम रावल अमादुलमुल्क था। उन्होंने धर्म तो इस्लाम अपनाया था, किन्तु उनके घर के रीति-रिवाज पूरी तरह हिन्दुओं के ही थे, जिनमें प्रायः पहला बच्चा स्त्री के मायके में ही होता है। ख़ुसरो के पिता लाचीन क़बीले के थे। लाचीन लोगों में भी यह परम्परा थी। इस तरह अधिक संभव यही है कि वे अपने माँ के सबसे बड़े बेटे होने के कारण अपने नाना के घर अर्थात् दिल्ली में ही पैदा हुए थे।

(5)    यह बात कई जगह आई है कि पैदाइश के बाद अमीर ख़ुसरो के पिता उन्हें बुर्के में लपेटकर किसी सूफ़ी संत के पास ले गये थे तथा उस संत ने शिशु ख़ुसरो को देखकर कहा कि यह एक ख़ाकानी (ईरान के अत्यन्त प्रसिद्ध कवि) से भी बड़ा होगा और क़यामत तक इसका नाम रहेग़ा। लोगों का अनुमान है कि ये सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया थे, जो दिल्ली में रहते थे। इस बात से भी उनकी पैदाइश दिल्ली में ही होने की बात सिद्ध होती है।
(6)    प्रायः व्यक्ति का अपने जन्म-स्थान से विशेष लगाव होता है। ख़ुसरो का इस तरह का लगाव दिल्ली से ख़ूब था। उनके साहित्य में स्थान-स्थान पर इस बात के संकेत हैं। वे जब भी दिल्ली छोड़कर अयोध्या, पटियाली, लखनौती, मुल्तान या कहीं और गए, जल्द-से-जल्द लौट आये तथा जब भी बाहर रहे, दिल्ली उन्हें बार-बार याद आती रही। दिल्ली से उनका लगाव इतना ज़्यादा था कि उन्होंने ‘मसनवी कुरान्स्सादैन’ नाम की एक मनसवी दिल्ली की विशेषताओं से विशेष रूप से संबंध लिखी, जिसे इसी कारण ‘मसनवी दर सिफ़त-ए-देहली’ भी कहते हैं। इसमें दिल्ली के लिए ‘अदन की जन्नत’, ‘दिल की रानी’, ‘आँख का नशा’, ‘फिरदोस-ए-पाक’, ‘बाग़-ए-अरम’, ‘जन्नत की हरियाली’ तथा ‘चाँद की कमंद’ जैसी अभिव्यक्तियों का प्रयोग है। अपने जीवन के परवर्ती भाग में क़िला बन जाने के बाद उन्हें पटियाली भी जाना पड़ता था, किन्तु यह जगह उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं थी। इसीलिए उन्होंने एक ओर जहाँ दिल्ली की ख़ूबियों को लेकर एक मसनवी लिखी तो दूसरी मसनवी ‘शिकायतनामा मोमिनपुर पटियाली’ लिखी जिसमें पटियाली की शिकायतें हैं। यों इसमें अफ़गानों की ज़्यादतियों का वर्णन है तथा इसमें भी उन्होंने बार-बार दिल्ली को बड़ी ललक से याद किया है।
(7)    उनके पिता का संबंध भी कभी पटियाली से नहीं रहा, अतः यदि वे अपने नाना के यहाँ नहीं भी पैदा हुए हों तो पटियाली में तो पैद नहीं ही हुए थे। उनके पिता भी बाहर से आकर ही दल्ली में बसे थे। प्रसिद्ध इतिहासकार दौलतशाह समरकंदी ने अमीर ख़ुसरो के पिता को ‘दिल्लीवाला’ कहा है।

(8)    ख़ुसरो के जो हिंदी छन्द आज मिलते हैं, उनकी भाषा या तो दिल्ली की खड़ी बोली है या अवधी। दिल्ली में वे पैदा हुए, बड़े हुए, पढ़े-लिखे तथा रहे भी। इस तरह यहाँ कि भाषा उनकी मातृभाषा है, अतः काफ़ी कुछ इसीमें से लिखा है। इसके अतिरिक्त अवध में भी। अयोध्या तथा लखतौनी में वे रहते रहे अतः अवधी में भी लिखा है। मगर पटियाली वे जाते तो रहे, किन्तु वह जगह उन्हें न रुची, न वहाँ की बोली ही वे अपना सके। कहना न होगा कि पटियाली में ब्रज बोली जाती है।
इसीलिए उनकी रचनाओं में से कोई भी ब्रज भाषा नहीं है।
(9)    अमीर ख़ुसरो पर पुस्तक लिखने वाले एक लेखक1 ने यह भी लिखा है कि स्वयं अमीर ख़ुसरो ने यह लिखा है कि दिल्ली उनका ‘वतन-ए-अस्ल’ है, किंतु इस बात का उन्होंने संदर्भ नहीं दिया कि ख़ुसरो ने किस पुस्तक में और कहाँ यह बात कही है। संभव है कि कहीं उन्होंने ऐसा कहा हो। हालाँकि यदि कहीं स्वयं ख़ुसरो ने यह बात कही होती तो उस अन्तःसाक्ष्य के आधार पर बहुत पहले से उनकी पैदाइश भारत में भी लोग, दिल्ली में ही मानते होते, क्योंकि उनकी रचनाओं को लोग काफ़ी पहले से पढ़ते रहे हैं। यों यदि सचमुच उन्होंने ऐसा लिखा है तब तो दिल्ली में पैदा होने की बात संभावना न होकर एक सच्चाई मानी जा सकती है। दिल्ली में उनका जन्म-स्थान मानने वाले यह भी कहते रहे हैं कि ख़ुसरो का पैतृक घर दिल्ली दरवाज़े के पास ‘नमक सराय’ में था।


जन्म-तिथि


विभिन्न पुस्तकों में ख़ुसरो का जन्म 1252, 1253, 1254, या 1255 ई. दिया गया है। वस्तुतः उनका जन्म हिज्री में हुआ था जो ईसवी सन् में 1253-54 पड़ता है।

नाम


ख़ुसरो का यथार्थ नाम ‘ख़ुसरो’ न था। इनके पिता ने इनका नाम ‘अबुल हसन’ रखा था। ‘ख़ुसरो नाम इनका तख़ल्लुस या उपनाम था। किन्तु आगे चलकर इनका यह उपनाम ही इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोग इनका यथार्थ नाम भूल गये।
‘अमीर खुसरो’ में ‘अमीर’ शब्द का भी अपना अलग इतिहास है। यह भी इनके नाम का मूल अंश नहीं है। जलालुद्दीन ख़िलजी ने इनकी कविता से प्रसन्न हो इन्हें ‘अमीर’ का ख़िताब दिया और तब से ये ‘मलिक्कुशोअरा अमीर ख़ुसरो ’ कहे जाने लगे।

माता-पिता और भाई


ख़ुसरो की माँ एक ऐसे परिवार की थीं जो मूलतः हिन्दू था तथा इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। इनकी मातृभाषा हिंदी थी। इनके नाना का नाम रावल एमादुलमुल्क था। ये बाद में नवाब एमादुलमुल्क के नाम से प्रसिद्ध हुए तथा बलबन के युद्धमंत्री बने। ये ही मुसलमान बने थे। यों मुलमान बनने के बावजूद

1.के. के. ख़ुल्लर : ‘अमीर ख़ुसरो और हमारा मुश्तरका कल्चर’, पृ. 88।

इनके घर में सारे-रस्मो-रिवाज हिन्दुओं के थे। ये दिल्ली में ही रहते थे। ख़ुसरो के पिता सफ़ुद्दीन महमूद तुर्किस्तान के लाचीन क़बीले के एक सरदार थे। मुगलों के अत्याचार से तंग आकर ये 13वीं सदी में भारत आये। भारत में आकर ये कहाँ बसे, इस संबंध में मतभेद है। कुछ लोग जो, ख़ुसरो की जन्मभूमि पटियाली में मानते हैं, यह भी मानते हैं कि ख़ुसरो के पिता भारत में आकर पटि्याली में बसे। किंतु यह बात बहुत तर्कसंगत नहीं कि बीच में लाहौर, दिल्ली जैसे स्थानों को छोड़कर पटियाली जा बसे जहाँ उस समय जंगल था तथा बस्ती भी नहीं थी ऐसी स्थिति में यह ठीक बात लगती है कि वे दिल्ली में आकर बसे। (पीछे इस बात पर कुछ विस्तार से विचार किया जा चुका है।) ये एक वीर योद्धा थे तथा अल्तुतमश ने अपने दरबार में इन्हें ऊँचे पद पर नियुक्त किया था। इनका वार्षिक वेतन बारह सौ तनका (चाँदी का एक पुराना सिक्का) था।

कुछ लोगों के अनुसार ये कुल तीन भाई थे। सबसे बड़े इज़्ज़ुदीन आलीशाह जो अरबी-फ़ारसी के विद्वान थे, दूसरे हिसामुद्दीन जो अपने पिता की तरह योद्धा थे और तीसरे अबुल हसन जो कवि थे तथा आगे चलकर जो ‘अमीर ख़ुसरो’ नाम से प्रसिद्ध हुए। कुछ लोग ख़ुसरो को छोटा न मानकर बीच का भाई भी मानते हैं तथा हिसामुद्दीन को छोटा भाई। अधिक प्रामाणिक मत यह है कि ये दो भाई ही थे तथा अमीर ख़ुसरो ही बड़े थे। इनके भाई जिन्हें कुछ लोगों ने इज़्ज़ुदीन अलीशाह तथा कुछ लोगों ने अजीज़ अलाउद्दीन शाह कहा है वस्तुतः इनके मित्र थे और उस काल के प्रसिद्ध कातिब थे। ख़ुसरो उन्हें बड़ा भाई जैसा मानते थे। कुछ लोगों के अनुसार इनका नाम अलाउद्दीन ऐशा था। इनके छोटे भाई हिसामुद्दीन (कुछ लोगों के अनुसार क़तलग़ हिसामुद्दीन) थे।

ख़ुसरो के पिता का नाम कुछ लोगों ने ‘लाचीन’ कहा है, किंतु वस्तुतः यह उनके क़बीले या वंश का नाम था, उनका नाम नहीं। उनके पिता का नाम जैसा कि हम पीछे देख चुके हैं, सैफ़ुद्दीन महमूद था। ऐसे ही उनके पिता को ‘अमीर बलख़’, ‘अमीर गज़नी’ तथा ‘अमीर हज़ारा लाचीन’ आदि भी कहा गया है।

विद्या और गुरु


‘गुर्रतल कमाल’ की भूमिका में ख़ुसरो ने अपने पिता को ‘उम्मी’ अर्थात् ‘अनपढ़’ कहा है, किन्तु ऐसा अनुमान लगता है कि अनपढ़ बाप ने अपने बेटे के पढ़ने-लिखने का अच्छा प्रबन्ध किया था। वे बचपन से ही मदरसे जाने लगे थे। उन दिनों सुन्दर लेखन पर काफ़ी बल दिया जाता था। अमीर ख़ुसरो को सुलेख का अभ्यास मौलाना सादुद्दीन ने कराया था। यों सुलेख आदि में उनका मन लगता नहीं था, और बहुत कम उम्र से ही वे काव्य में रुचि लेने लगे थे। 10 वर्ष की उम्र में उन्होंने काव्य रचना प्रारम्भ कर दी थी।

ख़ुसरो ने सच्चे अर्थों में किसी को अपना काव्य-गुरु कदाचित् नहीं बनाया। दीबाचतुसिग्र में उन्होंने स्वयं संकेत किया है कि किसी अच्छे कवि को वे अपना उस्ताद न बना सके जो ठीक से उन्हें शायरी का रास्ता बताए तथा काव्य-दोषों के प्रति सावधान करे। किन्तु किसी स्तर पर किसी शहाबुद्दीन नामक व्यक्ति से जो कदाचित् कवि तो बड़े न थे, किन्तु विद्वान थे, उन्होंने अपनी ‘हश्त बिहिस्त’ नामक कृति का संशोधन कराया था। उस पुस्तक के अन्त में इस बात का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि शहाबुद्दीन ने एक दुश्मन की तरह उनकी ग़लतियों को देखा और एक दोस्त की भांति ख़ुसरो की सराहना की। ‘ग़ुर्रत्तुल कमाल’ में भी उनका उल्लेख है। ये शहाबुद्दीन कौन थे, इस सम्बन्ध में विवाद है और सनिश्चय कहना कुछ कठिन है। एक शहाबुद्दीन का पता तत्कालीन साहित्य से चलता है किन्तु वे कदाचित् ख़ुसरो के समकालीन न होकर उनके कुछ पहले हुए थे।

ख़ुसरो ने काव्य के क्षेत्र में शिक्षा किसी व्यक्ति से न लेकर सादी, सनाई, ख़ाकानी, अनवरी तथा कमाल आदि के काव्य-ग्रन्थों से ली। विशेषतः ख़ाकानी, सनाई और अनवरी का तो उनकी कई रचनाओं तथा कृतियों पर स्पष्ट प्रभाव है।
धर्म के क्षेत्र में, जैसा कि प्रसिद्ध है, उनके गुरु हज़रत निजामुद्दीन औलिया थे आठ वर्ष की उम्र में ही अपने पिता के साथ ख़ुसरो उनके पास गये थे तथा उनके शिष्य हो गये थे।


ज्ञान


ख़ुसरो की हिन्दी फारसी, तुर्की, अरबी तथा संस्कृत आदि कई भाषाओं में गति थी, साथ ही दर्शन, धर्मशास्त्र, इतिहास, युद्ध-विद्या व्याकरण, ज्योतिष संगीत आदि का भी उन्होंने अध्ययन किया था। इतने अधिक विषयों में ज्ञानार्जन का श्रेय ख़ुसरो कि विद्या-व्यसनी प्रकृति एवं प्रवृत्ति को तो है ही, साथ ही पिता की मृत्यु के बाद नाना एमादुलमुल्क के संरक्षण को भी है, जिनकी सभा में कवि, विद्वान एवं संगीतज्ञ आदि प्रायः आया करते थे, जिनमें ख़ुसरो को सहज ही सत्संग-लाभ का अवसर मिला करता था।

विवाह तथा सन्तान


ख़ुसरो के विवाह के सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु यह निश्चित है कि उनका विवाह हुआ था। उनकी पुस्तक ‘लैला मजनू’ से पता चलता है कि उनके एक पुत्री थी, जिसका तत्कालीन सामाजिक प्रवृत्ति के अनुसार उन्हें दुःख था। उन्होंने उक्त ग्रन्थ में अपनी पुत्री को सम्बोधित करके कहा है कि या तो तुम पैदा न होतीं या पैदा होतीं भी तो पुत्र रूप में। एक पुत्री के अतिरिक्त, उनके तीन पुत्र भी थे, जिनमें एक का नाम मलिक अहमद था। यह कवि था और सुल्तान फ़ीरोजशाह के दरबार से इसका सम्बन्ध था।
मृत्यु
ख़ुसरो को अपने गुरु हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के प्रति बहुत ही श्रद्धा-भाव और स्नेह था। जिन दिनों वे अपने अन्तिम आश्रयदाता गयासुद्दीन तुग़लक के साथ बंगाल आक्रमण पर गये हुए थे, हज़रत निज़ामुद्दीन का देहान्त हो गया। ख़ुसरो को जब समाचार मिला तो वह बेहद दुखी हुए और तुरन्त दिल्ली लौटे। कहा जाता है आते ही काले कपड़े पहन वे अपने गुरु की समाधि पर गए और यह छन्द—


गोरी सेवे सेज पर डारे केस।
चल ख़ुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस।


कहकर बेहोश हो गए। गुरु की मृत्यु का ख़ुसरो को इतना दुःख हुआ कि वे इस सदमें को बर्दाश्त न कर सके और छः महीने के भीतर ही उनकी इहलीला समाप्त हो गयी। उनकी मृत्यु-सन 725 हिज़री माना जाता है, जो ईसवी सन् में 1324-25 है।

देश-प्रेम


ख़ुसरो में देश-प्रेम कूट-कूट कर भरा था। उन्हें अपनी मात्रभूमि भारत पर गर्व था। ‘नुह सिपहर’ में भारतीय पक्षियों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि यहाँ की मैना के समान अरब और ईरान में कोई पक्षी नहीं है। इसी प्रकार भारतीय मोर की भी उन्होंने बहुत प्रशंसा की है। उनकी रचनाओं में कई स्थानों पर भारतीय ज्ञान, दर्शन, अतिथि-सत्कार, फूलों-वृक्षों, रीति-रिवाजों तथा सौन्दर्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा मिलती है। वे अपने को बड़े गर्व के साथ हिन्दुस्तानी तुर्क कहा करते थे। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है—
तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब

(अर्थात् मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ।)
एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं, ‘मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो, तो हिंदवी में पूछो, मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा।’ इससे स्पष्ट संकेत मिलता है कि फ़ारसी के इतने बड़े कवि होते हुए भी अपनी मातृभाषा ‘हिन्दवी’ का उन्हें कम गर्व न था। ‘नुह सिपहर’ में एक स्थल पर ख़ुसरो ने संस्कृत को फ़ारसी से बढ़कर कहा है :


वींस्त ज़बानी का सिफ़ते दरदरी
कमतरज़ अरबी व बेहतरज़ दरी


जीविका और आश्रय



साहित्यकार प्रायः बहुत व्यवहारिक या सांसारिक दृष्टि से बहुत सफल नहीं होते, किन्तु ख़ुसरो अपवाद थे। जन्मजात कवि होते हुए भी व्यवहारिकता की उनमें कमी नहीं थी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उनके आश्रयदाता की हत्या कर राजसत्ता हथियाने वाले ने उन्हें उसी स्नेह से अपना कृपापात्र बनाया। प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक के मन में ख़ुसरो के प्रति एक शंका रही है और अब भी है। वे बहुत बड़े सूफ़ी माने जाते हैं और कदाचित् थे भी, किन्तु इस बात का क्या समाधान हो सकता है कि कोई सूफ़ी किसी आश्रयदाता की जी खोलकर प्रसंशा करता हो, उसके प्रति स्नेह रखता हो, किन्तु उस आश्रयदाता की हत्या कर राजसत्ता के हथियाने वाले के गद्दी पर बैठते ही उसी स्वर में उस हत्यारे की भी वह प्रसंशा करने लगे। ऐसा कोई तभी कर सकता है, जब उसे अपने सूफ़ीत्व से अधिक अपनी जीविका और आश्रय की चिन्ता हो।

ख़ुसरो नासिरुद्दीन के ज़माने में पैदा हुए थे। लगभग 20 वर्ष की उम्र तक आते-आते कवि रूप में उनकी काफ़ी प्रसिद्धि हो गयी। उस समय के पूर्व इन्हें किसी आश्रय की आवश्यकता नहीं थी। वे अपने नाना के साथ रहते थे। किन्तु उसी समय इनके नाना का देहान्त हो गया, अतः इनके सामने जीविका का प्रश्न आया। उस समय बहादुर ग़यासुद्दीन बलबन था। वह ख़ुसरो तथा उनकी काव्य-प्रतिभा से परिचित तो नहीं था—ख़ुसरो ने बलबन की प्रसंशा में लिखा भी—किन्तु साहित्यानुरागी न होने के कारण, ख़ुसरो की ओर उसने ध्यान नहीं दिया।
ख़ुसरो को पहला आश्रय बादशाह ग़यासुद्दीन के भतीजे अलाउद्दीन किशलू खाँ बारबक ने दिया। यह मलिक छज्जू के नाम से प्रसिद्ध था तथा कड़ा (इलाहाबाद) का हाकिम था। यों मलिक छज्जू के अतिरिक्त बलबन के चचेरे भाई अमीर अली सरजानदार तथा दिल्ली को कोतवाल फ़खरुद्दीन से भी उन्हें सहायता मिली थी।

 मलिक छज्जू के यहाँ ख़ुसरो दो वर्ष तक ही रुके थे, कि एक घटना ने उनको दूसरा आश्रय ढूँढ़ने को मजबूर कर दिया। हुआ यह कि एक दिन मलिक छज्जू के दरबार में बलबन के दूसरे पुत्र नासिरुद्दीन बुग़रा खाँ तथा कई अन्य लोग आये हुए थे। ख़ुसरो की कविता से प्रसन्न हो बुग़रा खाँ ने उन्हें चाँदी के थाल में रुपये भरकर उन्हें पुरस्कार रूप में दिया। ख़ुसरो ने बुग़रा खाँ की प्रसंशा में कसीदा कहा। मलिकत छज्जू इस पर नाराज हो गया। ख़ुसरो ने उसे खुश करने की बहुत कोशिश की किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। बल्कि वह ख़ुसरो को सजा भी देना चाहता था, किन्तु ख़ुसरो स्थिति को भाँप कर भाग निकले और अन्त में बुगरा खाँ को अपना आश्रयदाता बनाया। बुग़रा खाँ ‘सामाना’ में बलबन की छावनी के शासक थे। उन्होंने ख़ुसरो का उचित आदर-सत्कार किया तथा अपना ‘नदीम ख़ास’ (मुख्य साथी या मित्र) बनाकर रखा।

वहाँ ख़ुसरो कुछ ही दिन तक रुक पाये थे कि लखनौती के शासक तुग़रल ने विद्रोह कर दिया। दो बार बलबन की सेना उससे हारकर लौट आयी तो वह स्वयं बुग़रा खाँ को साथ ले चल पड़ा। ख़ुसरो भी साथ गए। बरसात के दिन थे बड़ा कष्ट हुआ। अन्त में तुगरल मारा गया और बुग़रा खाँ लखनौती और बंगाल का शासक बना दिया गया। किन्तु ख़ुसरो का दिल उधर नहीं लगा और वे बलबन के साथ दिल्ली लौट आए।

दिल्ली लौटने पर बलबन ने अपनी जीत के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया। उसका बड़ा लड़का सुल्तान मुहम्मद—जो मुल्तान का हाकिम था—भी उत्सव में सम्मिलति हुआ। ख़ुसरो को अब दूसरे आश्रयदाता  की आवश्यकता थी। उन्होंने सुल्तान मुहम्मद को अपनी कविताएँ सुनायीं। उसने इनकी कविताएँ बहुत पसन्द कीं और इन्हें अपने साथ मुल्तान ले गया। वहाँ सूफ़ी साधुओं एवं कवियों का अच्छा जमघट था। ख़ुसरो के नीचे एक प्रसिद्ध कवि सैय्यद हसन सिजज़ी थे जो ख़ुसरो के अच्छे मित्र बन गये थे। कुछ लोग गज़ल में इन्हें ख़ुसरो से भी अच्छा मानते हैं। ख़ुसरो के आश्रयदाताओं में सुल्तान अहमद सर्वाधिक साहित्य-व्यसनी एवं कलानुरागी थे, किन्तु ख़ुसरो का जी वहाँ कभी नहीं लगा। वे वहाँ पाँच वर्षों तक रहे, किन्तु प्रतिवर्ष दिल्ली आते रहे। अन्तिम वर्ष मुगलों ने मुल्तान पर हमला कर दिया। बादशाह के साथ ख़ुसरो भी लड़ाई में सम्मिलित हुए। बादशाह तो मारे गए और ख़ुसरो बन्दी बना लिए गए तथा हिरात और बलख़ से ले जाए गए। दो वर्ष बाद किसी प्रकार अपने कौशल और साहस के बल वे शत्रुओं के पंजे से छूटकर लौट सके। कहा जाता है कि लौटने पर वे ग़यासुद्दीन बलबन के दरबार में गये और सुल्तान मुहम्मद की मृत्यु पर बड़ा कड़ा मर्शिया पढ़ा, जिसे सुन बादशाह इतना रोये कि उन्हें बुखार आ गया, और तीसरे दिन उनका देहान्त हो गया।

इसके बाद ख़ुसरो दो वर्षों तक अवध को सूबेदार अमीर अली सरजाँदार के यहाँ रहे और 1288 ई. में दिल्ली लौट आए। कहा जाता है कि ‘अस्पनामा’ पुस्तक इन्हीं अमीर के लिए ख़ुसरो ने लिखी थी। बुग़रा खाँ के पुत्र मुइजुद्दीन क़ैकूबाद जब गद्दी पर बैठे तो बाप-बेटे में एक बात पर अनबन हो गयी और अन्त में दोनों में युद्ध की नौबत आ गयी। किन्तु अमीर अली सरजाँदार तथा कुछ लोगों के अनुसार ख़ुसरो—जो वहाँ उपस्थित थे—के बीच-बचाव के कारण संघर्ष टल गया और समझौता हो गया। बाप-बेटा मिल गए। क़ैकूबाद ने ख़ुसरो को राज्यसम्मान दिया और उसने बाप-बेटे के मिलन पर एक मसनवी लिखने को कहा। ख़ुसरो ने मनसवी किरानुस्सादैन (=बाप-बेटे का मिलन) इन्हीं के कहने पर लिखनी शुरू की, जो छः महीनों में पूरी हुई।
 

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