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मन के द्वारा उपचार

बी. एल. वत्स

प्रकाशक : भगवती पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1681
आईएसबीएन :81-7775-024-0

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मन को बन्धन और मुक्ति का साधन माना जाता है। बिना कुछ खर्च किए केवल मन की एकाग्रता एवं निश्चित प्रविधि से कल्पनाओं और विचारों में परिवर्तन करके...

Man Ke Dwara Upchar-A Hindi Book by B. L Vats

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मन के द्वारा उपचार

मन को बन्धन और मुक्ति का साधन माना जाता है।   वह इस समग्र दृश्य जगत का सृष्टा भी है साथ ही अन्तर्जगत का संयोजक भी। वह ईश्वरीय चेतना से भी मिलाता है। उसके वास्तविक स्वरूप को जानकर सब कुछ जाना जा सकता है तथा इस जानकारी का बहुविधि लाभ उठाया जा सकता है।
बिना कुछ खर्च किए केवल मन की एकाग्रता एवं निश्चित प्रविधि से कल्पनाओं और विचारों में परिवर्तन करके, आप अपने जटिल से जटिल रोगों से, इस कृति की सहायता से सहज ही छुटकारा पा सकते हैं और स्वस्थ जीवन का आनन्द ले सकते हैं। प्रायः सभी प्रमुख रोगों का मानसोपचार पढ़कर आप विस्मित भी होंगे और सुस्वास्थ्य से जुड़कर उल्लासित भी।

दो शब्द


ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

वृह. उपनिषद् 5/1/1

मन के द्वारा उपचार एक विज्ञान सम्मतपूर्ण उपचार विधि है जो जितनी प्राचीन है उतनी ही अधुनातन भी है।

ऋग्वेद 10/81/3 का उद्घोष है-

विश्वतश्च क्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबहुरुत विश्वतस्पात्।
सं बाहुभ्यां धमति सं पवत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एक:।।


अर्थात् एक ही देव (परमात्मा) सब विश्व को उत्पन्न करता, देखता, चलाता है। उसकी शक्ति सर्वत्र समायी हुई है। वही परमशक्तिमान सबको कर्मानुसार फल देने वाला है।
उस परमात्मा से मन ही मिलाता है वह भौतिक शरीर और परमात्मा दोनों के बीच खड़ा है और दृश्य तथा अदृश्य की रचना कर रहा है। क्या ही अच्छा हो कि हम इसे निर्मल बना लें और भूत-भविष्यत्-वर्तमान के सर्जक को स्वयं दिव्य चक्षुओं से देखने का आनन्द लें तथा रोग-शोक से भी छुटकारा प्राप्त करने में समर्थ हो जावें।

शरीर और मन के सभी रोग हमारे स्वयं सृजित हैं। केवल विधेयात्मक सृजनधर्मिता की निश्चित विधि अपनाकर हम बिना पैसे के जटिल से जटिल रोगों का उपचार कर सकते हैं। इस कृति में सुझाई गई उपचार विधियाँ अनुभूत, अचूक और निरापद हैं तथा प्रत्येक पाठक इन्हें नि:संकोच अपना सकता है।
इस सारस्वत-यज्ञ के पूर्ण करने में जिन विद्वानों की कृतियों का सहारा लिया गया है, उन सबके के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।

भगवती पॉकेट बुक्स के संचालक श्री राजीव अग्रवाल ने यदि अपनी निरन्तर प्रेरणा प्रदान न की होती तो यह कार्य कदाचित् ही पूर्ण हो पाता। मैं उनके लोकोपकारक मानस के प्रति कृतज्ञ हूँ। आशा है, पाठक इससे लाभान्वित होंगे।
अन्त में सन्त कबीर के शब्दों में परमसत्ता के नमन कहूँगा कि-

मेरा इसमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर।।

डॉ. बी.एल. वत्स   

1
मन का स्वरूप और शक्तियाँ



अदृश्य रहते हुए भी मन कितना शक्तिशाली है इसकी कल्पना करना भी कठिन है। इसकी गति वायु से भी तीव्र है। गीतकार ने इस तथ्य को स्वीकारा है। आप अभी जहाँ बैठे हैं उससे करोड़ों मील दूर स्थित स्थान पर मन के द्वारा पहुँच जाते हैं। यही नहीं, मन की गति तो लोक-लोकान्तरों तक हैं। ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार’ से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मन सब कुछ करने में समर्थ हैं। मन में जीत की कल्पना कीजिए और आपकी जीत सुनिश्चित है। कैसा अद्भुत खेल है मन का ? इसकी असीम व्याप्ति को देखकर इच्छा होती है कि इसके स्वरूप को समझा जाय। शास्त्रों में मन अन्त: करण का एक प्रकार मात्र है।
1.    मन
2.    बुद्धि
3.    चित्त और
4.    अहंकार।


मन-

शरीर के अन्दर विचार या चिन्तन करने के यन्त्र को मन कहते हैं। यह मन अपनी क्रिया करने के लिए आत्मा की धार का वैसे ही अधीन है जैसे इन्द्रियाँ। आत्मा की धारों के सिमट जाने पर, जैसा कि सुषुप्ति या मूर्च्छा की अवस्था में होता है, मन की इन्द्रियों के समान सो जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मन और आत्मा दो अलग-अलग वस्तुएँ हैं। आत्मा केन्द्र है जहाँ से धारें निकलकर शरीर और मन को जीवन प्रदान करती हैं।

मन एक पर्दा है जिसके द्वारा मानसिक क्रियाएँ प्रकट होती हैं। स्थूल शरीर, इन्द्रियों और छ: चक्रों का सब काम दो मुख्य धारों के द्वारा चलता हैं।

(1)    अन्तर्मुखी धार-


जो बिम्ब बाहर से ज्ञानेन्द्रियों पर पड़ते हैं उनको यह धार अन्दर पहुँचाती है और शरीर के पालन पोषण व बढ़ने के लिए जान भी इसी धार के द्वारा मिलती है। यह आत्मा की धार है और अन्तर्मुखी तथा आकर्षक है। इसका प्रकटन दो रूपों में होता है-
(I) बोधनात्मक और (II) रचनात्मक।
बोधनात्मक का आशाय ज्ञात कराने वाला रचनात्मक का आशय शरीर रचने या तैयार करने वाला है। बोधनात्मक अंग रचनात्मक अंग भी निचले स्तर का होते हुए भी आवश्यक है।

(2)    बहिर्मुखी धार-

इसका काम मन के अन्दर इच्छा उठाना, देह और इन्द्रियों को चलाना और शरीर के अनावश्यक पदार्थों को उत्सर्जित करना तथा संहार करना है। मनुष्य शरीर में सब बहिर्मुखी प्रबन्ध- शरारिक व मानसिक- इसी धार के द्वारा होते हैं। यह धार मन से प्रकट होती है। मन क्रियाशील होने पर सब मानसिक क्रियाओं में शामिल होता है। यह बहिर्मुखी धार भी आत्मा की धार के रचनात्मक अंग की तरह उसके बोधात्मक अंग के आश्रित रहती है क्योंकि इसके पूर्णत: खिंच जाने से बहिर्मुखी धार का भी सब काम बन्द हो जाता है।

आत्मा और मन दोनों की धारों से मिलकर काम करने से मनुष्य शरीर और उसके छ: चक्र तैयार हुए हैं और आत्मा मन के पर्दे के द्वारा शरीर के अन्दर शक्ति पहुँचाती है।
मन के विचारों और राग-द्वेष का हमारे शरीर पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। मन के अन्दर जो भाव प्रबल होता है, उसको बिम्ब उसके शरीर पर प्रकट हुआ करता है और उसके बीज के द्वारा ऐसे भाव उसकी वंश-परम्परा में प्रवेश कर जाते हैं। ब्राह्मण्ड में मनुष्य शरीर के छ: चक्रों के समान छ: स्थान विद्यमान हैं और उनके आगे आत्मा के भण्डार से मिला हुआ ब्रह्माण्डी मन का एक लोक है जिसमें मनुष्य के शरीर के अन्दर निवासी अंश रूप मन के स्थानों के समान छ: स्थान हैं। मन के इस लोक को ब्रह्माण्ड कहते हैं। मनुष्य शरीर का छठा चक्र आत्मा की बैठक का स्थान है और पाँचवे चक्र में सूक्ष्म प्राण का, चौथे चक्र में मन का निवास है।

ब्रह्माण्ड के अन्दर अपने संबंधित सूक्ष्म मण्डलों से बराबर मेल रहता है और इन रगों के केन्द्रों में आत्मा की शक्ति मन के पर्दें के द्वारा आती है, क्योंकि चौथे चक्र की (जो कि मन की बैठक का स्थान है) क्रिया बन्द होने पर सम्पूर्ण शरीर की क्रियाशीलता स्थगित हो जाती है। इससे स्पष्ट है कि छ: चक्रों की कार्यवाही आत्मा और मन मिलकर करते हैं। ब्रह्माण्ड में ब्रह्माण्डी मन उसकी देखभाल करता है। ब्रह्माण्डी मन के देश के तीन नीचे के स्थान के सत, रज, तम गुणों के अलग-अलग केन्द्र हैं। तमोगुण का काम मल-निष्कासन है। शास्त्रों में इसको ‘शिव’ कहा गया है और यह संहार-शक्ति का केन्द्र है। रजोगुण का काम मसाले का इकट्ठा करना और बाद में उत्पत्ति करना है।

शास्त्रों में इसको ‘ब्रह्मा’ कहा गया है। तीसरा गुण सतोगुण का काम पालन-पोषण करना है, शास्त्रों में इसको ‘विष्णु’ कहा गया है।

ध्यान योग द्वारा मन वश में होता है और आत्मदर्शन सम्भव हो जाता है। मन शरीर को आत्मा से मिलाने वाला साधन भी है। मन की शक्तियाँ अनन्त हैं। इसकी शक्तियों का उल्लेख करते हुए स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं-
‘‘मैंने एक बार ऐसे मनुष्य के बारे में सुना जो किसी के मन के प्रश्न का उत्तर प्रश्न सुनने के पहले ही बता देता था और मुझे यह भी बतलाया गया है कि वह भविष्य की बातें भी बताता है। मुझे उत्सुकता हुई और अपने कुछ मित्रों के साथ वहाँ पहुँचा। हम में से प्रत्येक ने पूछने का प्रश्न अपने मन में सोच रखा था ताकि गलती न हो, हमने वे प्रश्न कागज पर लिखकर जेब में रख लिये थे। ज्योंही हम में से एक वहाँ पहुँचा त्योंही उसने हमारे प्रश्न और उनके उत्तर कहना शुरू कर दिया। फिर उस मनुष्य ने कागज पर कुछ लिखा, उसे मोड़ा और उसके पीछे मुझे हस्ताक्षर करने के लिए कहा और बोला- ‘इसे पढ़ो मत, जेब में रख लो जब तक कि मैं इसे फिर न माँगूँ।’ इस तरह उसने प्रत्येक से कहा और बाद में उसने हम लोगों के हमारे भविष्य की कुछ बातें बतलायी। फिर उसने कहा- ‘अब किसी भी भाषा का कोई शब्द या वाक्य तुम लोग अपने मन में सोच लो।’ मैंने संस्कृत का एक लम्बा वाक्य सोच लिया। वह मनुष्य संस्कृत बिल्कुल नहीं जानता था।

उसने कहा- ‘अब अपनी जेब का कागज निकालो।’ कैसा आश्चर्य ? वही संस्कृत का वाक्य उस कागज पर लिखा था और नीचे यह भी लिखा था कि- ‘जो कुछ मैंने इस कागज पर लिखा है, वही वह मनुष्य सोचेगा।’ और यह बात उसने एक घण्टा पहले ही लिख दी थी। फिर हम में से दूसरे को जिसके पास भी उसी तरह का एक दूसरा कागज था, कोई एक वाक्य सोचने को कहा गया। उसने अरबी भाषा का एक फिकरा सोचा। अरबी भाषा का जानना तो उसके लिए और भी असम्भव था। वह फिकरा था- ‘कुरान शरीफ’ का। लेकिन मेरा मित्र क्या देखता है कि वह भी कागज पर लिखा है हम में से तीसरा था वैद्य। उसने किसी जर्मन भाषा की वैद्यकीय पुस्तक का वाक्य अपने मन में सोचा। उसके कागज पर वह वाक्य भी लिखा था।
यह सोचकर की कहीं पहले मैंने धोखा न खाया हो, कई दिनों बाद मैं फिर दूसरे मित्रों को लेकर वहाँ गया। लेकिन इस बार भी उसने वैसा ही आश्चर्यजनक सफलता पायी।

एक बार जब मैं हैदराबाद में था तो मैंने एक ब्राह्मण के विषय में सुना। वह मनुष्य ना जाने कहाँ से कई वस्तुएँ पैदा कर देता था। वह उस शहर का व्यापारी था और ऊँचे खानदान का था। मैंने उससे अपने चमत्कार दिखलाने को कहा। इस समय ऐसा हुआ कि वह मनुष्य बीमार था। भारतवासियों में यह विश्वास है कि अगर कोई पवित्र मनुष्य किसी के सिर पर हाथ रख दे तो उसका बुखार उतर जाता है। यह ब्राह्मण मेरे पास आकर बोला- ‘महाराज, आप अपना हाथ मेरे सिर पर रख दें जिससे मेरा बुखार भाग जाय।’


प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. मन का स्वरूप और शक्तियाँ
  2. हमारा मन कल्याणकारी संकल्पों वाला हो
  3. मन का रचनात्मक उपयोग
  4. मनोबल बढ़ाने के उपाय
  5. मन के द्वारा उपचार
  6. मन के रचनात्मक उपयोग की विशिष्ट तकनीक
  7. जीवन्त क्रियाशीलता
  8. मन के विकास के सोपान
  9. मन से मन का योग
  10. मन की निर्मलता का अभ्यास करें
  11. मन की एकाग्रता-सिद्धियों का मूल
  12. विचारों की अद्भुत सामर्थ्य
  13. साधना से सूक्ष्म शरीर का विकास
  14. ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का आवाहन
  15. हमारी समस्याएँ और उनके निदान
  16. हर क्षण को सृजनधर्मी बनायें
  17. हास्य द्वारा मनोरोगों का उपचार
  18. मनस्विता के चमत्कार
  19. सम्पन्न बनने के सूत्र
  20. काया का सन्देश
  21. परिवर्तन की राह
  22. उपसंहार

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