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हमारे चिंतन की मूलधारा

शंकर दयाल शर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1704
आईएसबीएन :81-7315-000-1

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प्रस्तुत पुस्तक में चिंतन की मूलधारा पर प्रकाश डाला गया है...

Hamare Chintan Ki Mool Dhara

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिंदुस्तान के लोगों को जोड़ने का काम शंकराचार्य जी ने केवल अपने चिंतन-मनन द्वारा ही नहीं किया, बल्कि उसके लिए कुछ बाह्य उपकरणों का भी सहारा लिया। उन्होंने देश की चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने उत्तर और दक्षिण भारत के लोगों के बीच की संवादहीनता को समाप्त करने के लिए केरल के नांबूद्री ब्राह्मणों को बद्रीनाथ में नियुक्त किया तथा गढ़वाल के ब्राह्मणों को रामेश्वरम के मंदिर में नियुक्त किया। इस प्रकार सागर का हिमालय पर और हिमालय का सागर पर अभिषेक करके उन्होंने यह घोषणा की कि मानव और मानव के मिलन में भाषा कभी बाधक नहीं बन सकती। भाषाओं के न जानने के कारण जमी हुई इस चुप्पी की बर्फ को स्नेह की ऊर्जा से पिघलाया जा सकता है और इस चुप्पी के पिघलने से जिस गंगा का जन्म होगा, उससे भारतीय संस्कृति की फसल और भी अधिक हरियाएगी।


इसी पुस्तक से


ज्ञान के प्रति सहज लगाव ने उपराष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा को शिक्षा, भाषा, कला और संस्कृति की ओर स्वाभाविक रूप से आकर्षित किया है। फलस्वरूप उन्होंने पिछले पाँच वर्षों के दौरान इस प्रकार के अनेक कार्यक्रमों में भाग लिया तथा अपने विचार व्यक्त किए। उनकी धारणा रही है कि हमारा देश अपने चिंतन के मूलभूत तत्त्वों को अपनाकर ही अपना सही, संतुलित और सर्वतोन्मुखी विकास कर सकता है। इस पुस्तक में संकलित भाषणों में उनकी यह धारणा स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित होती है। विचारों की जटिलता के वर्तमान युग में हमारे लोग अपने चिंतन की मूलधारा को अधिक समझ सकें, इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर यह पुस्तक प्रकाशित की जा रही है।


नई दिल्ली
24.6.92


श्रीनिवासराव श्रीधर सोहोनी
(भारत के उपराष्ट्रपति के सचिव)


नारी-शिक्षा



जब भी हमारे समाज में लड़कियों को शिक्षित करने की बात होती है, एक वर्ग के लोगों को यह बात नहीं रुचती। वे इसे अपनी परंपरा और संस्कृति के विरुद्ध मानते हैं। मैं नहीं जानता कि वे किस परंपरा और किस संस्कृति के आधार पर ऐसा कहते हैं ? जहाँ तक मेरी अपनी समझ है, मैं मानता हूँ कि हमारी वैदिक परंपरा का दृष्टिकोण नारी के प्रति बहुत ही उदार और प्रगतिशील रहा है। प्राचीन साहित्य में अनेक ऐसी नारियों का उल्लेख है, जो विदुषी थीं तथा सभा और समितियों की बैठकों में भाग लेती थीं।
 
हमारी संस्कृति ने नारी को हमेशा एक शक्ति के रूप में देखा है। ‘नारी’, ‘स्त्री’, और ‘पत्नी’ आदि शब्दों में जो ‘ई’ की मात्रा है। उसका अर्थ ही शक्ति से है। हमारे यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और शिव में, शिव को विश्व की संहारक शक्ति के रूप में देखा गया है। शिव इतना शक्तिशाली है कि वह सृष्टि का विनाश कर सकता है। लेकिन यदि ‘शिव’ शब्द में से ‘इ’ की मात्रा निकाल दी जाए, तो वही शिव शव रह जाता है।, अर्थात् संसार को नष्ट कर देने वाली शक्ति नारी के अभाव में स्वयं निर्जीव हो जाती है। मनु ने तो यहाँ तक कहाँ है कि जिस घर में नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं।

जिस देश का नारी संबंधी चिंतन इतना व्यापक और श्रेष्ठ रहा हो, वह भला नारी का निरादर कैसे कर सकता है ?
सामाजिक विकास की प्रक्रिया में कुछ ऐसे तत्त्वों का प्रवेश हुआ कि नारी की स्थिति क्रमशः गिरती चली गई। लेकिन इसके बावजूद हर काल में कुछ ऐसी नारियाँ होती रहीं, जिन्होंने समाज में नारी के महत्त्व की उद्घोषणा को जीवित रखा। मध्यकालीन भारत का इतिहास तथा विशेषकर स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास इस बात का गवाह है। आजादी की लड़ाई के समय जब सारे पुरुष नेता जेलों में चले जाते थे, तब वे नारियाँ ही होती थीं, जो लड़ाई की आग को प्रज्वलित रखती थी। जेल जाने में, डंडे खाने में कुरबानी देने में, वे किसी से भी पीछे नहीं रहीं। फिर आज ऐसा कोई तर्क नहीं ढूँढ़ा जा सकता, जिसके द्वारा यह सिद्ध किया जा सके कि उन्हें समाज में बराबरी का हक प्राप्त नहीं है। पंडित नेहरू को जब नारियों पर बोलना होता था, तो वह अकसर अपनी बात की शुरुआत एक फ्रांसीसी विद्वान के कथन से करते थे। फ्रांसीसी विद्वान का कहना था, कि ‘‘किसी समाज के स्तर का पता लगाने के लिए उस समाज में नारी के स्तर का पता लगाया जाना चाहिए।’’ यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है।

जब नारी के स्तर का प्रश्न आता है, तब उसकी शिक्षा का भी प्रश्न स्वाभाविक रूप से उससे जुड़ा होता है। बिना उचित शिक्षा के नारी की सामाजिक स्थिति में सुधार की कल्पना नहीं की जा सकती। बापू ने अपनी पुस्तक ‘दि रोल ऑफ वूमेन’ में लिखा है, ‘‘यह कहना गलता नहीं होगा कि बिना शिक्षा के मानव एक पशु से बहुत अलग नहीं है। इसलिए यह नारी के लिए भी उतनी ही जरूरी है, जितनी कि पुरुषों के लिए।’’ पंडित नेहरू ने 22 जनवरी, 1955 को मद्रास में एक महिला महाविद्यालय की आधारशिला रखते हुए यहाँ तक कहा था, ‘‘मेरा यह दृढ़ मत है कि एक बार पुरुष-शिक्षा की उपेक्षा की जा सकती है, लेकिन स्त्री-शिक्षा की उपेक्षा करना संभव और वांछनीय नहीं है।’’

वस्तुतः शिक्षा वह कारीगर है, जो हमारे मस्तिष्क में खिड़कियों का निर्माण करता है, ताकि हमारे मस्तिष्क में शुद्ध और ताजा हवा आ-जा सके। इसके अभाव में हमारा मस्तिष्क सीलन और घुटन से भरा अँधेरा कमरा बन जाएगा, जिसमें तरह-तरह के फफूँद पनपते रहेंगे। इन खिड़कियों की जरूरत जितनी पुरुष को है, उससे कम किसी भी मायने में स्त्रियों को नहीं है। बल्कि स्त्रियों को अधिक है; क्योंकि यदि एक पुरुष शिक्षित होता है, तो केवल एक पुरुष ही शिक्षित होता है। लेकिन यदि एक नारी शिक्षित होती है, तो पूरा परिवार शिक्षित होता है, आनेवाली पीढ़ी शिक्षित होती है और इस प्रकार देश का भविष्य शिक्षित होता है। नारी शिक्षा को केवल एक ही कीमत पर अस्वीकार किया जा सकता है। वह यह कि यदि हम चाहें कि हमारे समाज रूपी शरीर का आधा अंग पक्षाघात से पीड़ित रहे।

 मैं समझता हूँ कि ऐसा कोई नहीं चाहेगा।
आज समाज में अनेक ऐसी बुराइयाँ हैं, जिन्होंने नारी के चेहरे की पहचान को धुँधला बना रखा है। इसमें सबसे बड़ी, दुर्भाग्यपूर्ण और शर्मनाक बुराई है दहेज की। इस बुराई तथा नारी के सम्मान को कम करने वाली अन्य बुराइयों का इलाज मुझे नारी शिक्षा में ही दिखाई पड़ता है। शिक्षा से उनमें अपनी पहचान के प्रति चेतना पैदा होगी, उनमें आत्मविश्वास बढ़ेगा और उनके पैरों में अपने ही सहारे खड़े रहने की ताकत आएगी। जब तक नारी आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं बनेगी, तब तक उसमें पुरुषों के बराबर खड़े रहने का साहस नहीं आ सकता। नारी जब तक समाज में समानता के आधार पर अपनी सक्रिय साझेदारी नहीं निभाएगी, तब तक वह अपने ऊपर थोपी गई सामंती धारणाओं को नहीं बदल सकेगी। मैंने ‘सक्रिय साझेदारी’ शब्द का इस्तेमाल जान-बूझकर किया है। अकसर व्यवहार में देखा गया है कि आजकल माँ- बाप के लिए लड़की की शिक्षा का अर्थ शादी के लिए उपयुक्त वर पाने में सुविधा का होना होता है। विवाह आपकी जीवन यात्रा का एक पड़ाव भर है, लेकिन मंजिल नहीं। विवाह से यात्रा की रफ्तार में गति आनी चाहिए, न कि ठहराव। यह गति केवल शिक्षा के द्वारा ही आ सकती है।

आजादी के बाद से हमारी सामाजिक मान्यताओं में काफी अंतर आया है। अब लड़कियाँ घर की दीवारों से निकलकर समाज के खुले वातावरण में आने लगी है। सन् 1951 में स्त्री शिक्षा का प्रतिशत 7.9 था, जो सन् 1981 में बढ़कर 24.3 प्रतिशत हो गया है। यह एक अच्छा संकेत है। इसके साथ-साथ शिक्षित लड़कियों ने अपने कार्य क्षेत्र का भी विस्तार किया है। कुछ वर्ष पहले तक लड़कियों के लिए कुछ ही विषय हुआ करते थे, जिनमें समाज-विज्ञान और ललित कलाएँ प्रमुख थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। लड़कियों ने ऐसे क्षेत्रों में भी प्रवेश करके सफलताएँ हासिल की हैं, जिनमें कुछ समय पहले उनके जाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। आज स्त्रियाँ पुलिस सेवाओं में हैं, कस्टम सेवाओं में हैं, पत्रकारिता में है, पायलट हैं। शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो, जिसकी दीवारों को अभेद्य रहने दिया गया हो। हालाँकि इन क्षेत्रों में इनकी संख्या अभी बहुत कम है, लेकिन इसे एक अच्छी शुरूआत के रूप में देखा जाना चाहिए।

नारी-विकास का प्रश्न किसी वर्ग, जाति या क्षेत्र विशेष की नारियों के विकास से ही नहीं जुड़ा हुआ है, बल्कि पूरे देश की नारियों के विकास से जुड़ा हूआ है। हम छोटे से बगीचे में बैठकर स्वच्छ और सुगंधित वायु नहीं पा सकते, यदि उस बगीचे के अहाते के बाहर गंदगी का ढेर लगा हुआ हो। इसलिए नारी के सामाजिक स्तर को उठाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करना होगा। आज इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उच्च शिक्षा महानगरों तथा शहरों तक केंद्रित है। यह सुविधा उच्च एवं मध्यम आय वर्ग के लोगों तक ही विशेष रूप से उपलब्ध है। जबकि हमारे देश की दो तिहाई आबादी गाँवों में रहती है। आज इस ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। निजी संस्थाएँ इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती हैं। हो सकता है कि शुरुआत में इस काम में कुछ कठिनाइयाँ आएँ, लेकिन एक संपूर्ण सामाजिक विकास के लिए इसका सामना किया जाना चाहिए। कानपुर एक औद्योगिक नगर है। यहाँ की सामाजिक संरचना, सामाजिक मान्यताएँ तथा परिस्थियाँ गाँवों से बिलकुल अलग हैं। इसलिए कुछ दूसरी तरह की भी कठिनाइयाँ आ सकती हैं। लेकिन अच्छा यही होगा कि गाँवों को कानपुर बुलाने की बजाय स्वयं गाँवों में जाया जाए।

मैंने पहले कहा कि अब नारियाँ सभी क्षेत्रों में प्रवेश कर रही हैं। लेकिन अभी भी इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी का क्षेत्र ऐसा है, जिस में इनकी संख्या बहुत कम है। इन विषयों में अभी 100 लड़कों में सिर्फ 6 लड़कियाँ ही हैं। इस ओर भी कोशिश की जानी चाहिए, क्योंकि आनेवाले कल में ये विषय बहुत महत्त्वपूर्ण होंगे। इस महाविद्यालय में अभी तो कला के ही विषय पढ़ाए जा रहे हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि इसका अगला विस्तार विज्ञान की ओर होगा। इन महाविद्यालयों को महिलाओं से जुड़ी विभिन्न सामाजिक समस्याओं पर भी शोधकार्य को प्रोत्साहित करना चाहिए।

मैं एक बात और कहना चाहूँगा, वह है हमारी सांस्कृतिक विरासत के सामाजिक मूल्यों की। मेरी यह मान्यता है कि हर विद्यार्थी को, चाहे वह लड़का हो या लड़की, अपने देश के इतिहास की पूरी-पूरी जानकारी होनी चाहिए। यदि विद्यालयों के पाठ्यक्रम ऐसा नहीं कर पा रहे हों, तो उनमें परिवर्तन किया जाना चाहिए। यह बहुत जरूरी है। हाल ही में किए गए अध्ययनों से यह मालूम पड़ता है कि विकासशील देशों की शिक्षा राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को मजबूत करने के बजाय नवयुवकों को राष्ट्रीयता की जड़ों से अलग करने का काम कर रही है। हमारे विद्यार्थी पाश्चात्य जीवन शैली की ओर आकर्षित हो रहे हैं और इसे ही वे आधुनिकता मानने की भूल करते हैं। नारी जगत् इसी तथा कथित आधुनिकता में अपनी स्वतंत्रता का मार्ग देखता है। यह गलत है। हमें पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिकता के अंतर को समझना होगा। हमारी आधुनिकता की जड़ें हमारी परंपरा के समृद्ध तत्त्वों में हैं, तभी हमारा वर्तमान रसयुक्त हो सकता है। अन्यथा ऊपर से लादी गई यह आनुनिकता पारस्परिक एवं सामाजिक संबंधों के बिखराव का कारण बन जाएगी। इस बिखराव के चिह्न समाज में दिखाई पड़ने लगे हैं। हमें इस ओर सतर्कता बरतने की जरूरत है। कहीं ऐसा न हो कि नारी स्वातंत्र्य (Women,s Liberation) अपने-आप में ही एक नया बंधन बन जाए।

विश्व महिला वर्ष के बाद से पूरे विश्व ने नारी को समाज में पुरुषों के समान अधिकार देने के लिए और भी अनेक नियम कानून बनाए हैं। हमारे देश में भी ऐसा हुआ है। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिराजी के नेतृत्व में नारी को एक गरिमापूर्ण अर्थवत्ता मिली है। उनके इस नेतृत्व को और आगे बढ़ाए जाने की जरूरत है। सरकार अपनी ओर से कोशिश कर रही है, लेकिन उससे अधिक कोशिश हम सबको करनी है। क्योंकि नारी सम्मान का प्रश्न मूलतः कानून और व्यवस्था का प्रश्न नहीं है, बल्कि सामाजिक मान्यताओं का प्रश्न है। और इसे हम सब अपने लगातार प्रयास द्वार ही बदल सकते हैं। इसके लिए हम सबको निरंतर संघर्ष में लगे रहना होगा।


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