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नाटक-एकाँकी >> नीलकंठ

नीलकंठ

वृंदावनलाल वर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1713
आईएसबीएन :81-7315-436-8

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प्रस्तुत नाटक में एक ओर आधुनिक एवं प्राचीन संस्कृति का टकराव दृष्टिगत होता है तो दूसरी ओर व्यापक एवं सार्थक चिंतन भी पढ़ने को मिलता है।

neelkanth Vridavanlal Varma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत नाटक में एक ओर आधुनिक एवं प्राचीन संस्कृति का टकराव दृष्टिगत होता है तो दूसरी ओर व्यापक एवं सार्थक चिंतन भी पढ़ने को मिलता है। निश्चय ही प्रस्तुत पुस्तक को पढ़कर पाठक भारत की अर्वाचीन व प्राचीन संस्कृति को लेकर अपना दृष्टिकोण व्यापक कर सकेंगे।

परिचय


(पट के पीछे उजियारा, आगे लगभग घना अँधेरा। पट के पीछे छाया-अभिनय। कुछ नर-नारियाँ वल्कल-वसन पहने, कमठों पर तीर चढा़ए, कोई गदाएँ, कोई बरछी-भाले, कोई किसी आदिम हथियार को और कोई किसी को लिये, परस्पर युद्ध व्यक्त किया जाता है।)
परिचयदाताः (अदृष्ट) आज भी मानव समाज में प्राचीन काल का यह अवशेष दिखलाई पड़ रहा है।
(उनके चले जाने के उपरांत पुराने ढंग के वस्त्र पहने मध्य काल के हथियारों से सज्जित कुछ नर-नारी लड़ते हुए आते हैं। इनके घमासान को रोकने के लिए साधुओं की प्राचीन वेशभूषा में एक साधु आता है। वह उन्हें लड़ मरने से रोकता है। थोड़े से ही शिथिल  पड़कर युद्ध का अभिनय करते हुए चले जाते हैं।)
परिचयदाताः (अदृष्ट) थोड़े से विचारक और तपस्वी मानव समाज में उत्पन्न हुए। उन्होंने बर्बरता का निषेध किया बर्बरता थोड़ी ढीली ही पड़ी।

•    (अबकी बार बहुत से साधुवेशधारी आते हैं। उनके साथ कुछ सशस्त्र पुरुष। एक-दो नारियाँ। साधुवेशधारी एक-दूसरे को समझाने का अभिनय करते-करते लड़ पड़ते हैं। सशस्त्र पुरुष, जो पहले उनकी चिरौरी व्यर्थ ही कर रहे थे, अब भयभीत होते हैं। नारियाँ दीनता और आज्ञाकारिता का नाट्य करती रहती हैं। वे सब जाते हैं।)

परिचयदाताः (अदृष्ट) फिर एक युग प्रतिक्रिया का आया। असली साधुओं के साथ नकली साधुओं की भरमार हुई और अहंकार, दंभ इत्यादि मानो मानव समाज पर पिल पड़े़। नारियों पर दीनता और निस्सहायता छा गई। पुरुषार्थ ने वैसे साधुओं के सामने जब गरदन झुका दी तो उनका अहंकार और भी बढ़ गया। नारी का स्थान समाज में गिरने लगा।
(उनके पीछे पंण्डितों, कलाकारों और पुराने वैज्ञानिकों का दल आता है, जो इस बात का अभिनय करते हैं कि समाज को डूब मरने से बचाने के लिए हम सबकुछ करेंगे, स्वयं चाहे मिट जाएँ। परंतु लड़ते-लड़ते नकली साधु व सशस्त्र योद्धा फिर आ जाते हैं और कभी ये तो कभी वे दब जाते हैं। फिर सब चले जाते हैं।)

परिचयदाताः (अदृष्ट) पुराने वैज्ञानिकों, साहित्यकारों, कलाकारों ने समाज के स्वाभाविक विकास को अनिरुद्ध करने का प्रयत्न किया; परंतु अपने युग की प्रवृत्तियों को थोड़ा सा ही रोक पाए। उधर जनता दरिद्रता की ओर बढ़ती चली गई।
(अब अधनंगी-भूखी जनता आती है। इनमें थोड़े से जन हृष्ट-पुष्ट और समर्थ भी हैं, परंतु थोड़े से ही। ये सब अपनी निस्सहायता प्रकट करते हुए चले जाते हैं।)
परिचयदाताः (अदृष्ट) उनकी समस्याओं को सही तरीकों से हल करने के अल्प प्रयास ही किए गए थे कि एक-दूसरे को दबाने या एक-दूसरे की रक्षा करने के निमित्त पुराने और नए हथियारों के बीच में, परम प्रभुता की स्थापना के लिए, लड़ाई चल पड़ी।

(एक दिशा से कुछ पुरुष मध्यकाल की वेषभूषा में मध्यकाल के हथियारों से सज्जित आते हैं। दूसरी दिशा से यूरोपियन वेश और नए हथियारों से सजे कुछ योद्धा आते हैं। दोनों दलों में से एक नारी नम्रता के साथ निवारण करती हुई आती है; परंतु कोई नहीं मानता। मध्यकाल की वेशभूषा वाले हार खाकर भाग जाते हैं, उनके पीछे और सब।)
परिचयदाताः (अदृष्ट) वर्तमान के हथियारों ने प्राचीनों को हरा दिया। विज्ञान की उन्नति हुई। विज्ञान से साधारण जन को लाभ भी हुआ। वैज्ञानिक युग में नारी का विकास हुआ, परंतु मानवीय मूल्य कम होने लगे, साहित्य और नीति पर भय और उपेक्षण की छाया बैठने लगी।
( सौम्य, शुभ्र आकृति का एक साधु इधर-उधर देखता हुआ, आश्चर्य  प्रकट करता हुआ आता है और विचार-मुद्रा में खड़ा रह जाता है। कुछ लोग एक बहुत बड़ा पोंगा उठाए आते हैं, जिसपर ‘एटम बम’ लिखा हुआ है। ये खड़े रहते हैं। उस, साधु की तरफ उनकी वृत्ति घोर उपेक्षा की है।)

परिचयदाताः (अदृष्ट) अब एटम बम का युग आ गया है। यह न साधु-तपस्वियों को, जो थोड़े ही आते ही होते आये हैं, छोड़ेगा और न एटम बम बनाने वालों या उसमें विश्वास रखनेवालों को ही। सबका एक सामान व्यापक बंटाधार कर देगा। क्या साधु-शक्ति और एटम-शक्ति का, विज्ञान और योग का आपस में मेलजोल नहीं कराया जा सकता ? हमने तो प्रश्न भर कर दिया है, समस्या आपके सामने है। अब आप जानें और समाज के अभिनयकर्ता जानें।

(यवनिका) 
नाटक के पात्र


पुरुष पात्र
हरनाथ
काशीनाथ
सुंदरलाल
मदनमल
सोंटू
फत्ते
शिवकंठ
गायक, वादक, पुलिस
अफसर, सिपाही, नौकर,
धोबी, समाचार-पत्र
बेचनेवाला, कुछ भिखारी
इत्यादि

स्त्री पात्र
गंगा
उर्मिला
अन्य स्त्रियाँ

                 

पहला अंक

पहला दृश्य

(स्थान उज्जैन नगर में पटनी बाजार। पटनी बाजार में ‘चौबीस-खंभा’ भवन के निकट हरनाथ के मकान का एक कमरा। कमरे में आरायश के सामान की कमी को एक लंबी मेज, दो कुरसियाँ पूरा करती हैं। दीवान पर जगदीश चंद्र बोस और रवीन्द्रनाथ टैगोर के अतिरिक्त सभी चित्र, जिनकी गिनती चार से अधिक नहीं है, विदेशी विज्ञानियों के हैं। पुरानी भदरंगी अलमारियों में नई और पुरानी पुस्तकें हैं। मेज पर काँच की शीशियाँ, कटोरियाँ, नलनलियाँ, रबड़ और लोहे के यन्त्र इखरे-बिखरे रखे हैं। शीशियों में अर्क, तेजाब इत्यादि हैं। एक ओर स्टोव जल रहा है। हरनाथ अधेड़ अवस्था का है। सिर पर बाल कम हैं, ठोड़ी पर अधिक। माथा चमकता हुआ-सा, जो नीचे के अंगों को बल, प्रभाव और आकर्षण प्रदान करता है।
 वातावरण अस्त-व्यस्त, परंतु वह स्वयं बहुत साफ-सुथरा है। यह कमरा उसकी प्रयोगशाला है। वह कोई वैज्ञानिक प्रयोग कर रहा है; परंतु कपड़े ऐसे पहिने है जैसे किसी समारोह में जाने को हो। चेहरे की बनावट से जान पड़ता है कि भावना-प्रवर है, कुछ बढ़ाकर बात करने वाला; परंतु खरा, दृढ, उपेक्षामय परिहास का विनोदी, आँखें मझौली, परंतु तेज-कभी-कभी पागलों जैसी घूम जानेवाली। परिहास-प्रिय न हो तो गंभीर प्रकृति के लोग उसकी गिनती पागलों में कर उठें ! समयः अपराह्न।)
हरनाथः (एक प्रयोग करते-करते) ओह !
( नौकर आता है।)
नौकरः सेठ मदनमलजी मिलना चाहते हैं।
हरनाथः (अपनी धुन में मस्त) ठीक रहा।
नौकरः उनको लिवा लाऊँ ? या आप उनसे बैठक में मिलेंगे ?
 हरनाथः यकायक ध्यानमग्न मुद्रा में आँखें घूम जाती हैं। हाथ में कांच की एक नली लिए हुए बैठक में किससे मिलूँ ?
नौकरः सेठ मदनमलजी बड़ी देर से बैठक में बैठे हुए हैं, मिलना चाहते हैं,।
हरनाथः (काँच की नली को सँभालकर रखते हुए) जब आए थे, तभी क्यों नहीं बतलाया ?

नौकरः जब आए थे, तभी बतला गया था। और लोग आए हैं। जब-जब आए, उनके आने की बात भी कह गया था; पर आप तो काम की धुन में मगन थे।
हरनाथः (‘काम की धुन में मगन’ का स्मरण दिलाए जाने पर प्रसन्न होता हुआ) काम जरूरी था इसलिए याद ही नहीं रही। और कौन-कौन आ बैठे हैं बैठक में ?
नौकरः काशीनाथ, सुंदरलाल, शिवकंठ। कॉलेज के दो लड़के आए थे, वे आधी घड़ी बैठकर चले गए।
हरनाथः जो गए सो गए जो बैठे है उन्हें भेज दो।
 नौकरः सबको एक साथ ?
हरनाथः(कुछ बेचैनी के साथ) हाँ भाई पूरी पलटन को।

(नौकर जाता है हरनाथ मोह भरी दृष्टि से सामने वाली काँच की नली, अर्क भरी बोतल और निकट रखे हुए कागज और कलम पर आँख घुमाता है, जैसे चाहता हो कि कैसे शीघ्रातिशीघ्र अपने छूटे हुए काम को फिर से हाथ में ले लूँ। बगल के दरवाजे से मदनमल, काशीनाथ, सुंदरलाल, शिवकंठ आते हैं। परस्पर अभिवादन के उपरांत मदनमल एक अच्छी कुरसी पर, शिवकंठ दूसरी अच्छी पर और काशीनाथ और सुंदरलाल पुरानी कुर्सियों पर बैठ जाते हैं। काशीनाथ की आयु तीस-बत्तीस साल की होगी; परंतु छरेरी, सुंदर देह के कारण कम अवस्था का लगता है। उसकी आँखों में शान्ति के साथ विरक्ति सी है, होठों और होठों के नीचे भाग से लगता है जैसे अपने आस-पास के वातावरण की उसे चिंता न रहती हो। वह सबके अंत में बैठता है। सुंदरलाल भी उसी आयु का है। देखने में शील, शांत, परंतु भीतर क्रोध-प्रेरित शक्ति का मानो कोष भरे हो, मानो उसे ऊपर की शांति ने भीतर सेंतकर रख छोड़ा हो। बैठक में प्रतीक्षा करने के कारण और अब बैठने के लिए अच्छी कुरसी न मिलने के कारण, वह भीतरी शक्ति ऊपरी क्षोभ धारण करने के लिए विकसित हो गई थी; परंतु काशीनाथ की आकृति को देखकर वह शक्ति उभर नहीं पाती। शिवकंठ बीस-बाईस वर्ष का युवक है। सफेद पतलून, सफेद कमीज, जिसका ऊपरवाला बटन खुला है, पहिने है। बाल मनोहर कट वाले, जिनमें तेल की बहुतायत न होते हुए भी कमी नहीं है। इसके चेहरे पर युवावस्था का तेज है, आँखों में जिज्ञासा और सजग ग्रहणशीलता। अधेड़ अवस्था से  आगेवाला मदनमल दो कपास मिलों का मालिक है। बैठक में देर तक प्रतीक्षा करते रहने पर भी उसके चेहरे पर मुस्कान है, जो आँखों के काइएँपन का साथ दे रही है। मदनमल सबसे पहले बैठता है और अपनी कुरसी को हरनाथ की कुरसी के अधिक निकट खिसका लेता है। उसकी आँखें अनचाहे ही साथ आए हुए लोगों पर घूमकर एक क्षण के लिए हरनाथ पर ठहर जाती हैं। मानो चाहता हो कि अकेले में कुछ कहना है। हरनाथ की आँखें आधे पल के लिए रीती पड़कर घूम जाती हैं। वह मदनमल की इच्छा को नहीं समझ पाता। सुंदरलाल की दृष्टि दूर की अलमारी में रखी कुछ नई पुस्तकों पर जाती है और वह उस अलमारी के निकट चला जाता है। वह एक साप्ताहिक-पत्र आकाशवाणी का संपादक है।)

मदनमलः आज तो आप बहुत व्यस्त हैं। वैसे ही मिलने चला आया था। कोई विशेष बात नहीं है। (फिर हरनाथ पर आँख गड़ाता है, मानो कह रहा हो कि विशेष बात है।)
हरनाथः व्यस्त तो अवश्य हूँ, इसीलिए भूल गया कि आप सब इतनी देर से बैठक में बैठे हुए थे। क्षमा कीजिएगा। (शिवकंठ से) कहो भाई शिवकंठ तुम कैसे आए ?
शिवकंठः संगीताचार्य उस्ताद बदलूखाँ आए हुए हैं। संगीत अधिवेशन का सभा-नेतृव आपको करना है, उसी की प्रार्थना करने के लिए आया हूँ।
हरनाथः कब है ? (सिर खुजलाता है)
शिवकंठः लीजिए आप तो भूल ही गए। छपे हुए निमंत्रण-पत्र बँटवा दिए, एक आपको भी दे गया था। आज संध्या के आठ बजे सार्वजनिक भवन में है।
हरनाथः (जैसे सिर पर आई हुई विपत् का सामना करने के लिए तत्पर हो गया हो) अच्छी बात है, आऊँगा। समाप्त कब तक हो जाएगा अधिवेशन ?

शिवकंठः .यही, कोई दो-तीन घंटे में बस।
हरनाथः हूँ !
शिवकंठः जाने के लिए कुरसी से थोड़ा सा उठता हुआ) मैं आपको लिवा ले जाऊँगा। (हँसकर) कहीं आप साइंस के किसी प्रयोग में उलझ गए तो फिर भूल जाएँगे।
हरनाथः (प्रसन्न होकर) नहीं भूलूँगा; पर तुम आ जाओगे तो अच्छा रहेगा। बहुत लोग इकट्ठे होंगे ?
शिवनाथः जी हाँ। (अन्य लोगों से) आप सब भी कृपा कीजिएगा। (मदनमल से विशेष आग्रह के साथ) अवश्य कृपा कीजिएगा, सेठजी।
मदनमलः आऊँगा।
शिवकंठः (हरनाथ की ओर देखते हुए मदन से) संगीत समिति के लिए कुछ सहायता की भी आवश्यकता है।
मदनमलः (इस प्रकार के निवेदनों का अभ्यासी होने के कारण चिकने घड़े पर पानी की बूँद की तरह) हाँ-हाँ ! जो कुछ बनेगा, करूँगा।

शिवकंठः (जाते-जाते) हम लोग उस्ताद का जलूस भी निकालना चाहते हैं, जिससे जनता के मन पर संगीत कला की छाप लग जाय।
हरनाथः अपने लिए जलूस में कोई विशेष स्थान न समझकर) मैं जलूस में नहीं रहूँगा। जलूस मुझे नहीं भाते। जो देखो सो जलूसों के पीछे पड़ा रहता है। केवल समय और शक्ति का नाश !
शिवकंठः (जाते-जाते रुककर अदम्य, परंतु हरनाथ की बात को ग्राह्य मानते हुए) आप ठीक कहते हैं; परंतु हम जनता को दिखलाना चाहते हैं कि केवल राजनीति के नेता ही सार्वजनिक सम्मान के पात्र नहीं हैं कि बल्कि ललित कला के भी नेता।
मदनमलः (टालने के लिए) हाँ-हाँ ! कोई हर्ज नहीं।
शिवकंठः मैं आपको लेने के लिए आ जाऊँगा, तैयार रहिएगा।
(हरनाथ हामी का सिर हिलाता है, शिवकंठ जाता है।)
काशीनाथः (हरनाथ से) आज तो अवकाश नहीं है ?
हरनाथः आप देख ही रहे हैं कहिए क्या बात है ?

काशीनाथः बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कि महाकली की इस नगरी में एक योगशाला की स्थापना करूँ। आज की संध्या के कुछ पूर्व का समय उसके समारंभ के लिए स्थिर किया था। जलूस निकलना नहीं है, थोड़े से व्यक्तियों को बुलाना है। योग विज्ञान है और ज्ञान भी। आप सरीखे विज्ञानी और कला-प्रेमी के हाथों उसका उद्घाटन करवाना चाहता हूँ। आपको संगीत जलूस में जाना नहीं है, इसलिए योगशाला के उद्घाटन के लिए चलिए।
काशीनाथः (अविचिलित) योग अप्रत्यक्ष का प्रत्यक्षवाद है। विज्ञान उसका आदि मध्य और अंत है।
हरनाथः (मुसकराकर) बीमारी का तो पता नहीं और डॉक्टर साहब दवा ढूंढ लाए !
काशीनाथः यही तो योग विद्या की खूबी है। योगशाला का उदघाटन किसी पंड़ा-पुजारी के हाथों नहीं करवाना चाहता हूँ। आप सरीखे विज्ञानी को इस कार्य के लिए निर्धारित किया है। (मदनमल से) आपको भी आना पड़ेगा, सेठजी।
मदनमलः (काशीनाथ योगशाला के लिए कहीं चंदा न माँग उठे, इसलिए तत्काल हामी का सिर हिलाते हुए) अवश्य आऊँगा; परंतु  आज तो प्रो. हरनाथजी नहीं आ सकेंगे।

हरनाथः (अपने द्वारा योगशाला का उद्घाटन अनिवार्य समझकर और इसलिए कि जितनी जल्दी इस कार्यक्रम से निपट लूँ उतना ही अच्छा) योग के बारे में कुछ कह नहीं सकता। कल संध्या के पूर्व के लिए रख लीजिए।
काशीनाथः (हिचकिचाहट के साथ) कल के लिए ? कल....हूँ। अच्छा, जिसमें। आपको योगशाला की थोड़ी सी आर्थिक सहायता करनी है।
मदनमलः (अंत में विपत आ गई, इस भाव को शीघ्र समेटकर हरनाथ को अपना सहयोग भेंट करने की ममता प्रकट करते हुए) यहाँ प्रो. हरनाथजी वहाँ मैं। यथासामर्थ्य क्यों न कुछ करूँगा ! (इस आश्वासन का काशीनाथ कहीं अधिक मूल्य न आँक बैठे, इस अभिप्राय से) इस धर्म-कार्य में नगर के दूसरे महाजन भी हाथ बँटाएँगे ही। आपने सूची बना ली ?
काशीनाथः बना लूँगा।

(एक क्षण के लिए चुप। सुंदरलाल अब भी पुस्तकों को ऊपर-ऊपर से देख रहा है। हरनाथ, मदनमल और काशीनाथ की दृष्टि प्रयोगशाला की सामग्री पर चंचलता से घूमती है। मदनमल शून्य में अपनी बात पहले भरता है।) मदनमल मुझे अकेले में कुछ बात करनी है।
(हरनाथ का ध्यान सुंदरलाल के प्रति जाता है, जो अलमारियों की पुस्तकों को आँखों से टटोलते-टटोलते कुछ निकट आ गया है। सुंदरलाल की आँखें कहीं हों, ध्यान इसी ओर है। उसकी आँखें तुरंत हरनाथ की दृष्टि से मिलकर अलग हो जाती हैं।’)
काशीनाथः (शील के गौरव द्वारा उठता हुआ) मैं अब जाता हूँ। यदि आप कहें तो लेने आ जाऊँगा, नहीं तो आप योग-विद्या में रुचि रखने के कारण स्वयं ही आ जाएँगे।
हरनाथ कुछ कहने के लिए होठों को खोलते हुए भी कोई बात न कहकर उपेक्षा से हामी का सिर हिलाता है।)

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