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याद एक यायावर की

शंकर दयाल शर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1733
आईएसबीएन :81-7315-116-4

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प्रस्तुत है याद एक यायावर की...

Yaad ek Yayavar ki

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

याद एक यायावर की
कालजयी साहित्यकार अज्ञेय को ज्ञेय बनाने की प्रक्रिया है
 
याद, यायावरी और संदर्भ इन तीनों परिच्छेदों में बँटे प्रस्तुत पुस्तक के अठारह निबन्ध शिलालेख से अधिक किसी नदी की धारा है जिसे किनारों से भी परखा जा सकता है और आसानी से आर-पार भी हुआ जा सकता है

समीक्षा या मूल्यांकन से परे याद एक यायावर की निबन्धों में आत्मचेता की ताज़गी तथा विश्लेषणात्मक मूल्यांकन की जगह संस्मरणात्मक ईमानदारी है जैसा लेखक ने स्वयं भी स्वीकारा है ‘संस्मरण की श्रृंखला में यह श्रद्धायुक्त प्रणाम है’।

इला जी को यायावर के यादों की एक धरोहर हैं

निवेदन

‘याद एक यायावर की’ आपके सामने है, जिनके हर पन्ने पर अज्ञेय जी दिखायी देंगे।
इसे तीन खण्डों में विभाजित किया है- याद, यायावरी तथा सन्दर्भ। पहले खण्ड ‘याद’ में अज्ञेय जी के देहावसान के बाद लिखे गए छः निबन्ध हैं। ‘यायावरी’ में बारह निबन्ध हैं, जिनका समबन्ध  ‘जानकी जीवन यात्रा’ से है।
‘सन्दर्भ’ में छः ऐसे निबन्ध हैं, जो अज्ञेय जी के जीवनकाल में विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा उनकी नजरों के सामने से गुजर चुके थे।

अज्ञेय जी को मैंने देखा तो मानवता की सबलता-दुर्बलता के बीच। मैंने अपनी भावनाओं को शब्दों का रुप दिया है, जिनमें कहीं-कही पुनरुक्ति की सम्भावना इन लेखों की कालावधि के कारण है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर इनका प्रकाशन हुआ, जिनमें तारतम्य का अभाव और घटनाओं तथा वाक्यों का दुहराया जाना खटकेगा।

आज अज्ञेय जिस रूप में भी याद किए जायें, लेकिन कल अज्ञेय निश्चित रूप से भारतीय भाषाओं के अप्रतिम व्यक्तित्व के रूप में याद किए जायेंगे। इसका मूल कारण अज्ञेय का भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रति निष्ठा है। विदेशों में भी भारतीय भाषा की  प्रतिष्ठा में अज्ञेय जी का उल्लेखनीय योगदान रहा और मूलतः वे साहित्यकार के साथ ही संस्कृति के संवाहक भी थे।
‘याद एक यायावर की’ संस्मरण की श्रृंखला में श्रद्धायुक्त प्रणाम है।

 
शंकर दयाल सिंह


याद



मैंने उनसे कहा-
यह नई कलम खरीदी है
आप इसका उद्घाटन कर दें
उन्होंने कलम हाथ में ली
कुछ समय अंगुलियों के बीच
उसे हिलाते-डुलाते रहे
और देर तक नजरों से घूरते रहे
उसके बाद मेरी डायरी में
उदघाटन वाक्य लिखा—


याद एक यायावार की



राजा जनक ने सीता स्वयंवर में शर्त रखी- जो भगवान शिव के इस धनुष को तोड़ेगा, उसी के गले में सीता जयमाला डालेगी।
उस युग में राम थे जिन्होंने जनक के इस प्रण को पूरा किया और सीताजी ने उनके गले में वरमाला पहना दी।
युगों बाद द्रुपद ने अपनी बेटी द्रौपदी के स्वयंवर में उसी परम्परा का उद्घोष किया-जो वीर नीचे जल में देखकर ऊपर टँगी मीन की आँखों को छेद देगा, द्रुपद-सुता उसी को वरमाला डालेगी।
उस युग में अर्जुन थे अतः द्रोपदी कुँआरी नहीं रही और उन्होंने अपनी वीरता की दुन्दुभी-मीन की आँखों को छेदकर बजाई।
लेकिन वर्तमान युग कुछ और ही है- जहाँ एक जीवित प्रश्न बहुतों के सिर का चक्कर लगा रहा है- वह है अज्ञेय को ज्ञेय बनाने का।

इस समबन्ध में एक सार्थक प्रयास किया डा० रामकलम राय ने- ‘शिखर से सागर तक’ लिखकर, जो ‘अज्ञेय की जीवन यात्रा’ है। लेकिन लेखक ‘चुनौती’ स्वीकार करते हुए भी अपनी सीमा को जानता है- ‘मेरा उदेश्य यह नहीं रहा है और न मेरे लिए सम्भव ही है कि मैं अज्ञेय के इतने विराट् फलक पर जिये गये जीवन का विस्तृत या अपेक्षाकृत पूर्ण चित्र प्रस्तुत कर सकूँ। इसके लिए बहुत अधिक परिश्रम, जानकारी एवं अन्तर्दृष्टि की जरूरत है। दूसरे, अज्ञेय का जीवन जैसा कि उनकी रचनाएँ निरंतर विकासशील रही हैं, बराबर उससे से नये अर्थ खोजते और पाने की गुंजायश है। अतः यह जीवनी मात्र एक दिशा-संकेत ही कही जा सकती है।’

डा० विद्यानिवास मिश्र अज्ञेय जी के अभिन्न सखा सहचर हैं, अतः उन्होंने राजपाल-सिरीज में ‘अज्ञेय’ का सम्पादन किया तो जीवनी के क्रम में लिखा - ‘1945 से 1964- ये बीस वर्ष ‘अज्ञेय’ के जीवन में यथार्थ और आदर्श और उस संघर्ष के अपने-आप प्राप्त समाधान के कारण बहुत महत्व रखते हैं। ये बीस वर्ष साहित्यिक कौतूहल के विषय बने रहे, इसमें भी एक अतिसंवेदनशील व्यक्तित्व को भीतर से मथा और उसके अमृत स्वत्व को निखारा है। इसी अवधि में गृहस्थ बने हैं और गृहस्थ धर्म की पूरी आस्था के साथ। इसी अवधि में भारत-जननी के प्रति उनकी आवेगमय निष्ठापूर्ण श्रद्धा भावात्मय में परिणत हुई है। इसी अवधि में वे बहुत बड़ा समय विदेश में बिताकर बार-बार स्वदेश लौटते रहे, बार-बार ‘स्व’ के विस्तार का समाधान ‘स्व’ गहरे प्रवेश के द्वारा ही पाते रहे। इस अवधि में संशय, कानाफूसी, ईष्या, द्वेष और अथासन्धि के शिकार बनते रहे। इस प्रक्रिया ने उन्हें प्रौढ़ता दी, साथ ही अतिशय विनम्रता भी, अनुभवों की समृद्धि दी, साथ ही अनुभूति की पर्याप्तता की प्रतीति भी, शालीन सामाजिकता दी, साथ ही व्यक्ति के एकाकीपन की गहरी संवेदना भी ये वर्ष उनकी रचना-प्रकिया की दृष्टि से इसलिए समृद्ध और सकूल वर्ष रहे हैं।’

मेरा उद्देश्य न तो अज्ञेय जी का जीवन-लेखन है और नहीं उनके साहित्य का विश्लेषण है। दोनों से परे मेरे लिए लेखन में मात्र उन क्षणों का आभार है, जो उनके और मेरे मिलन के साक्षी रहे हैं।
यहाँ मैं स्पष्ट कह दूँ कि अज्ञेय जी के साथ मेरा बहुत दिनों का कोई ऐसा घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं रहा, जिनके बल पर मैं यह दावा करूँ या तो ताल ठोकूँ कि वे मेरे  अभिन्न थे। उनकी और मेरी आयु की सीमा-रेखा भी पिता-पुत्र के समान थी, लेकिन उनकी महानता थी- जो वह बराबर मुझे भी मित्रवत् समझते थे, और उनके उस मित्र भाव में कही कोई गुमान नहीं था। और न मुझे उनके अन्दर किसी प्रकार की कोई ‘बोसिज्म’ दिखाई पड़ी।

आप माने या ना माने, लेकिन दस-बीस उदाहरण मुझे अवश्य याद हैं, जबकि विरोध होते हुए या न चाहते हुए भी उन्होंने मेरी बात मानी। मेरी ही क्यों, जो लोग उनके करीब होते थे उन्हें भी हर तरह से वे तरजीह देते थे।
एक बार मुझसे डा० कर्णसिंह ने पूछा-शंकर, तुम इतना बोलते हो और वात्स्यायन जी इतने मौन रहते हैं फिर तुम लोगों में इतनी पटती कैसे है ?
इस पर मैं हँसा और बोला- डा० साहब, अज्ञेय जी के समान श्रोता का मिलना मेरे जैसे वक्ता के लिए सौभाग्य की बात है। फिर उनका मौन ही मुखर है। मैं जितना बोलकर अपनी बात कह पाता हूँ, उससे बहुत अधिक वह मौन रहकर हमें कह देते हैं।

ठीक वही बात आज अज्ञेयजी के सम्बन्ध में हम यह कह सकते हैं कि वह न रहकर भी हमारे बीच सतत हैं, जबकि बहुत सारे लोग जीवित रहकर भी हमारे लिए ‘न’ के बराबर हैं।
मैं अज्ञेय साहित्य का बचपन से ही पाठक रहा लेकिन ‘जागरुक पाठक’ होने का दावा नहीं कर सकता। इसकी जिम्मेदारी या ठेकेदारी उन समीक्षकों या प्राध्यापकों को अवश्य है, जिनके लिए अज्ञेय कभी कालग्रह रहे, कभी प्रतिक्रियावादी और कभी ‘आउट आफ डेट’।

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