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अन्धविश्वास विरोध के एकांकी

गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1738
आईएसबीएन :81-7315-037-0

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प्रस्तुत है उत्कृष्ट एकांकी...

Andhvishvas-Virodh Ke Ekanki a hindi book by Girirajsharan Agarwal - अन्धविश्वास विरोध के एकांकी - गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मानव मन के अनजाने भय और आत्महीनता से उपजे अन्धविश्वासों के नाग-फाँस में जकड़े और मुक्ति के लिए छटपटाते हमारे समाज की पीड़ा के अँधेरे आयामों का अनुदर्शन अपने ज्ञान-विज्ञान की अनन्त शक्तियों के बावजूद प्रकृति और नियति के हाथों विवश मानव की अनोखी मान्यताएँ, अन्धे विश्वास, अजीब-रीति-रिवाज तथा इनके फलस्वरूप उभरती सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं के मकड़जाल में फँसी मानवता को मुक्ति के रचनात्मक चिन्तन का दिशा-दर्शन कराते हैं ये अन्धविश्वास विरोध के एकांकी।


पगडण्डी से पुस्तकालय तक



कुछ ही समय पहले मैंने उन दोनों को देखा था।
उनमें से एक था, जो एक जटाधारी साधु बाबा के सामने नतमस्तक था और दूसरा एक शाहजी के सम्मुख हाथजोड़े खड़ा था। मैंने दोनों पर एक उचटती-सी नजर डाली, कुछ सोचा और आगे बढ़ गया।
यह जून का महीना था, जब दिन लम्बे और रातें छोटी हो जाती हैं। जब सूर्य का प्रकाश चौबीस घंटों में से निरन्तर चौदह घंटे धरती को उजाले के जल से स्नान कराता है और अँधेरे की अवधि कम हो जाती है। मैंने नजर उठाकर दूर तक देखा। आदमी हो, जानवर हो, घर-द्वार हो, घने पेड़ पौधे हों, सभी की परछाइयाँ सिमटकर उनके आकार तले छुपने का प्रयास कर रही थीं। आकाश के बीचों-बीच चमकते हुए सूरज ने अन्धकार को परिमित कर दिया था। कैसा अद्भुत दृश्य था वह ! चारों ओर बिखरे हुए उजाले से सहमकर अन्धकार का भूत अपने लिए शरण स्थली ढूँढ़ने पर विवश हो गया था।

वे दोनों शायद अब भी उसी अवस्था में होंगे, एक साधु बाबा के सामने नत-मस्तक और दूसरा शाहजी के सामने हाथ जोड़े हुए। ध्यान आया, शहर के अन्धकार को तो रोशनी की तेज किरणें भेदकर पराजितकर देती हैं परन्तु यह अन्धकार यदि आदमी के भीतर हो, उसकी सोच और मस्तिष्क से जुड़ा हो, तो फिर ज्ञान की रोशनी ही उसे अँधेरे की दासता से मुक्त कर सकती है, कोई और व्यक्ति नहीं। लेकिन अन्धकार को अन्धविश्वास से दूर करने वाले लोग...मैंने क्षण-भर उनके विषय में सोचा और आगे बढ़ आया।
पीछे मुड़कर देखता हूँ तो दूर तक मेरे पीछे सर्प की तरह बल खाई हुई पगडण्डी बिछी थी। पगडण्डियों पर यात्रियों के पद चिह्न थे। मार्ग के दोनों और हरियाली थी और जून की इस भरी दोपहर में पंछियों ने चहचहाना छोड़कर वृक्षों की टहनियों पर अपना बसेरा कर लिया था।

मैं उन दोनों व्यक्तियों को जिस स्थान पर छोड़ आया था, अब उससे काफी दूर हूँ। लेकिन मुझे लगता है कि वे अब भी मेरे साथ-साथ हैं, एक समस्या बने हुए, एक प्रश्न का रूप धारण किये हुए। मैं कल्पना करता हूँ, उस निरीह मानव की, जो ज्ञान और श्रम के बल पर संकट का समाधान न पाते हुए उन कथित चमत्कारों की भेंट चढ़ जाता है, जिन पर वह विश्वास तो करता है, लेकिन जिनके सम्बन्ध में वह जानता कुछ भी नहीं है।
अनहोनी चीजों पर विश्वास करना शायद उसकी मजबूरी है। भविष्य के गर्भ में क्या है ? वह नहीं जानता। उसके दुःख कैसे दूर होंगे, वह इस बात से परिचित नहीं है। विपत्तियों और संकटों की जिस दलदल में वह धँसा खड़ा है, उससे उबरने की विधि क्या होगी, उसे ज्ञात नहीं है। तब वह क्या करे ? कहाँ जाए ? किससे अपने दुख का निवारण कराये ? विवेक, श्रम, बुद्धि कर्म और प्रयास की सारी बैसाखियाँ उसका साथ छोड़ गई हैं।
तब-? तब वह क्या करे ?
दोनों व्यक्ति फिर मेरी कल्पना के पट पर उभर आये हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूँ, वे अपने ही जैसे एक अन्य व्यक्ति के सम्मुख यों नतमस्तक क्यों हैं ? क्या कुछ मंत्रों का उच्चारण करने वाले सचमुच भविष्य के ज्ञाता हैं, क्या सचमुच वे उन घटनाओं को जानते हैं जो भविष्य में घटने वाली हैं और क्या वास्तव में इतनी शक्ति उनमें है कि वे उन अभावों की, उन संकटों की बेड़ियाँ तोड़कर फेंक दें, जिन्होंने भाग्य की परिभाषा में स्थापित होकर निरीह मानव को अपनी जकड़ में ले लिया है ?

जून की इस भरी दोपहर में मैं अपनी इस यात्रा में अकेला हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि वे दोनों भी मेरे साथ साथ हैं। दायें और बायें, जो अपने विवेक और बुद्धि को उसी स्थान पर छोड़ आए हैं जहाँ ‘‘बाबाओं’ के डेरे थे।

मैं कुछ और आगे बढ़ आया हूँ। नजर उठाकर दोनों की ओर देखता हूँ। मुझे लगता है, जैसे एक इतिहास इनकी मुखाकृति पर लिखा है। मुझे यह भी लगता है कि जैसे मैं इस इतिहास का एक छोटा-सा पाठक हूँ। और विश्व के उस पहले मानव से वार्ता कर रहा हूँ, जिसने फौलाद की तरह मजबूत अपनी भुजाओं से पहली बार धरती की छाती चीरी थी दिन रात ढेरों पसीना बहाकर उस पर खाद्यान्न की फसल उगाई थी- वह खुश था कि उसने अपना भविष्य सुरक्षित कर लिया है।
लेकिन -?
लेकिन फसल अभी खेत से उसके घर तक नहीं आ पाई थी कि अचानक पूरब की ओर से घनघोर बादल उठा, जिसने चारों ओर से आकाश के असीम फैलाव को ढाँप लिया। भयभीत मानव ने सहमकर आकाश की ओर देखा। उसे क्रोध आया प्रकृति की इस तानाशाही पर।
यह बरसात का मौसम नहीं था। फिर वर्षा क्यों ? बादल क्यों ? लेकिन इस ‘क्यों’ का उत्तर देने वाला दूर तक कोई नहीं था। वह सोचता रहा, सोचता रहा-और फिर देखते-देखते बिजलियाँ आसमान के बीच कड़कने लगीं, बादलों ने सूरज को अपने भारी परदों के पीछे छिपा लिया। भरी दोपहर में रात्रि की कालिमा छा गई। गरज के साथ ओले गिरे; इतने कि धरती दूर तक बर्फ के ढेर में परिवर्तित हो गई। कड़े परिश्रम से फसल उगाने वाला मानव ढूँढ़ता रह गया कि उसका खेत कहाँ था, खलिहान कहाँ था।
तब वह झुक गया उन शक्तियों के सामने, जो उसके ज्ञान और उसकी पहुँच के बाहर थीं। उसे लगा कि जैसे धरती के सीने को अपनी ताकत से खँगाल देने वाले हाथ, विवश हैं उन दैवी प्रकोपों को रोक पाने में, जो न जाने कहाँ और किन परतों में निहित हैं। वह ढूँढ़ने निकला था अपने बचाव का एक रास्ता, अपनी सुरक्षा का एक उपाय। भविष्य और भाग्य के उन खतरों से अपने-आपको मुक्त करने का मार्ग जिनसे वह परिचित नहीं था और जिन तक उसके ज्ञान ने अभी अपनी कमन्द (रस्सी की सीढ़ी) नहीं फेंकी थी।
ज्ञान और खोज की यात्रा में शायद यही वह पड़ाव था जब उसकी भेंट हुई थी, उन जटाधारी बाबाओं’ से जहाँ अभी-अभी मैं उन दो व्यक्तियों को छोड़ आया हूँ, नतमस्तक और भयभीत !

मैं उस बेमौसम ओलावृष्टि की कल्पना करता हूँ, जिसने ज्ञान के विश्वास को अज्ञानता की भेंट चढ़ाया था। तभी मेरी दृष्टि उस किसान की ओर उठ जाती है, जो खेत में सिर झुकाये बैठा है, बिल्कुल निराश और घबराया हुआ। उसका सिंचाई करने वाला इंजन किसी यांत्रिक खराबी के कारण ठप्प हो गया है। पानी के अभाव में खेत मुरझा गया है। जबरदस्त सूखा पड़ा है।
ओलावृष्टि से प्रभावित हुए उस पहले किसान और भयंकर सूखे से पीड़ित इस दूसरे किसान के बीच हजारों लाखों साल की दूरी है-लेकिन भाग्य की डोर दोनों के हाथ में है, पर भाग्य के फैसले को चुनौती देने का उनके पास कोई उपाय नहीं है।

बस बाबा है और शाह जी हैं।
मैं पिछले दो वर्ष से पड़ रहे भयंकर सूखे के प्रकोप से जूझते हुए दुर्बल किसानों की कल्पना करता हूँ और विचार आता है, उस सत्तातन्त्र का, जिसने दैवी प्रकोपों से लड़ने का वैज्ञानिक आधार पैदा नहीं किया है और जो झुक गई है, उनके सामने,
जो तान्त्रिक विद्या में दक्ष हैं,
जो आन्तरिक शक्ति से भविष्य का रूप मोड़ सकते हैं,
जो शब्दों के बल पर से चमत्कार दिखा सकते हैं, जो विज्ञान के बस में नहीं हैं।
यह मथुरा है, यहाँ बहुत बड़े वर्षा यज्ञ की तैयारी हो रही है, सत्तातन्त्र की देख-रेख में।

सारा देश 20 वीं शताब्दी के इस भयंकरतम सूखे की त्रासदी से चिन्तित है। खेत बंजर-मैदानों में परिवर्तित हो गए हैं। जमीन के भीतर पानी का स्तर इतना गिर गया है कि नलकूप अपने कंठों से पानी उगलने में असफल हो रहे हैं। आकाश पर दूर-दूर तक बादल का कोई टुकड़ा नहीं है। धरती सूखे की मार सह-सहकर जगह-जगह से चटख गई है। किसान हाथ पर हाथ धरे बैठा है और निराशापूर्ण दृष्टि से आकाश की ओर निहार रहा है। समाचार पत्र खबरें प्रकाशित कर रहे हैं कि गुजरात राजस्थान मध्य प्रदेश तथा अन्न कई स्थानों पर हजारों पशु चारे के अभाव में या तो मर गए या उनके स्वामियों ने विवश होकर उन्हें भूखों मरने के लिए अपने खूँटे से खोल दिया। उस समय मेरा मन पीड़ा से भर गया जब किसी समाचार पत्र में मैंने पढ़ा कि एक किसान महिला ने अपने अबोध बालक को गिनती के चन्द टकों में इसलिए बेच दिया कि पेट की आग बुझाने के लिए उसके पास रोटी नहीं थी और रोटी जुटाने के साधन अकाल का दानव निगल चुका था।

सोचता हूँ, सभ्यता की इतनी लम्बी यात्रा के बाद भी मनुष्य का जीवन प्रकृति की दया पर निर्भर है। आदमी जो आकाश से पाताल तक अपनी विजय-पताका फहराता हुआ ज्ञान और विज्ञान के शिखर तक पहुँच रहा है, इतना भी नहीं जानता कि यदि मानसूनी हवाएँ उससे रूठ जाएँ या अपना मार्ग बदल लें तो प्रकृति की इस बड़ी चुनौती का सामना वह कैसे कर सकता है।
विवशता आदमी को किन रास्तों की तरफ धकेल देती है, यह सत्ता के सिंहासन पर बैठे उन लोगों से पूछा जाना चाहिए जो विज्ञान से अधिक भरोसा करते हैं उस अन्धविश्वास पर जिसकी नागफनी जीवन के मरुस्थल में आदमी की अज्ञानता ने बोयी थी, और जिसकी पकड़ में एक साधारण आदमी ही नहीं शक्ति-सम्पन्न शासनतन्त्र भी है।

हाँ तो बात मथुरा की थी।
आइए मथुरा चलें-
तन्त्रविद्या में दक्ष कुछ विख्यात बाबाओं ने दावा किया है कि वे तान्त्रिक शक्ति से उस समय भी वर्षा कराने में सफल हो सकते हैं, जब बरसात का मौसम दूर हो, और देश के अधिकतर भागों में भीषण सूखा पड़ रहा हो।

सरकार के अधीन कार्यरत विज्ञान एवं तकनीकी विभाग इस दावे पर विश्वास ले आया है।

यह मई का अत्यन्त गर्म और तपता हुआ महीना है। वर्षा ऋतु आरम्भ होने में अभी 25 दिन शेष हैं। दावा किया गया है कि एक विशाल यज्ञ के परिणाम-स्वरूप 48 से 72 घंटों के भीतर मथुरा के आस-पास कम से कम 10 किलोमीटर के क्षेत्र में मूसलाधार वर्षा होगी और धरती पानी से भर जाएगी।

इस कार्यक्रम के लिए विज्ञान एवं तकनीकी विभाग ने 10 हजार रुपये का अनुदान स्वीकृत किया। शेष धन जनता से दान के रूप में एकत्र किया गया। तन्त्रविद्या पर विश्वास करने वाले देश के करोडों लोगों की आँखें मथुरा पर लगी हैं। यज्ञ की सारी तैयारियाँ पूर्ण हो चुकी हैं। बीसों कुण्टल चन्दन की लकड़ी, शुद्ध घी और हजारों रुपये की अन्य सामग्री का भण्डार यज्ञस्थल पर इकट्ठा हो गया है।

वेद मन्त्रों के बीच तान्त्रिक यज्ञ का शुभारम्भ कर चुके हैं। सुगन्धित धुआँ आकाश की ओर लपक रहा है। वैज्ञानिक वायुमण्डल में संभावित परिवर्तन का अध्ययन करने के लिए अनुसन्धान कक्षों में उपस्थित हैं। उनके हाथ में दूरबीनें हैं। और वे यन्त्र हैं, जिनसे वायुमंडल में होने वाले छोटे से छोटे परिवर्तन को भी जाँचा-परखा जा सकता है। हजारों लाखों लोगों की भीड़ यज्ञ स्थल के चारों ओर उमड़ पड़ी है। यही वे सब लोग हैं, जिन्हें सूखे के दानव ने तोड़कर रख दिया था। इनकी आँखों में आशा की ज्योति है और तान्त्रिकों की आन्तरिक शक्ति पर एक ऐसा अटूट विश्वास जिसका आधार स्तम्भ अज्ञानता की धरती पर टिका होता है।
धुएँ के बादल यज्ञ-कुण्ड से उठ-उठकर आकाश की ओर लपक रहे हैं। लेकिन अभी तो यह मात्र धुएँ का आवरण है, इनमें मानसूनी हवाओं का जल कब प्रविष्ट होगा ? इसकी चिन्ता सबको है, मुझे भी, वैज्ञानिकों को भी।

पहले चौबीस घंटे बीते, फिर अडताड़तालिस और अन्त में 72 भी, लेकिन यज्ञ का धुआँ बादल नहीं बन सका। धरती प्यासी की प्यासी रही। 20 हजार की सामग्री और हजारों लाखों लोगों की आशाएँ यज्ञ की आग में जलकर भस्म हो गयीं, लेकिन जो चीज नहीं जल सकी, वह केवल आस्था और विश्वास का वह लोहा था, जो न मुड़ता है, न गलता है और शताब्दियों से निराश और असहाय लोगों का कवच बना हुआ है।
विश्वास की जोत लिये जो लोग मथुरा आए थे, वे सब तन्त्र विद्या को नहीं, कलयुग के स्वयंम्भू एवं पाखंडी तान्त्रिकों को दोष देकर वापस घट लौट चुके हैं। आइए हम भी घर चलते हैं।

अब फिर उसी पगडंडी पर अकेला हूँ जहाँ से कुछ दूर पहले एक स्थान पर मैंने उन दो व्यक्तियों को देखा था, जिनमें से एक जटाधारी साधु बाबा के सामने नतमस्तक था और दूसरा ‘शाहजी’ के सम्मुख। मुझे लगता है, वह या उनकी परछाइयाँ अब भी मेरे साथ हैं। जी चाहता है, उनसे पूछूँ कि तुम किस दुख के निवारण हेतु आये हो ? वह कौन सी पीड़ा है जो तुम्हें इस स्थान पर खींच लाई है जहाँ तर्क नहीं, विश्वास की सत्ता है और विश्वास का सूत्र उन व्यक्तियों के हाथ में है, जिनका ध्येय जन सेवा नहीं, स्वार्थ है, व्यवसाय है। ये वे लोग हैं, जो पिता और परमेश्वर दोनों को एक साथ बेच देने पर भी लज्जित नहीं होते।

सोचता हूँ, लौट जाऊँ और उन दोनों उत्पीड़ित व्यक्तियों को अपने साथ खींच लाऊँ जो आशा और विश्वास की रोशनी लेकर आये थे लेकिन भटक जाने वाले हैं, अन्धविश्वास की लम्बी अँधेरी गलियों में मुड़कर पीछे देखता हूँ लेकिन पाँव आगे बढ़ जाते हैं। पगडंडी-पगडंडी चलता हुआ दूर निकल आया हूँ और अब एक ऐसे स्थान पर हूँ जहाँ रायपुर (बिहार) के एक गाँव की आबादी अपने पाँच सपूतों केशवों पर आँसू बहा रही है।
मैं खड़ा हूँ एकतन्त्र शिक्षा विद्यालय के सम्मुख। विद्यालय का संचालक और इन पाँच मृत युवकों का गुरु फरार है, और पुलिस उसकी खोज में लगी है। दुःख और आश्चर्य से विद्यालय की ओर देखता हूँ, सन्नाटा-ही-सन्नाटा है, श्मशान जैसा।

कारण जानना चाहता हूँ, तो अखबार के पन्ने अचानक मेरे स्मृति पटल पर फैल जाते हैं।
वह जो एक प्राइमरी विद्यालय में अध्यापक था, एक शिक्षा संस्थान खोलता है, तन्त्र विद्या सिखाने के लिए; गाँव के सीधे-साधे युवक उसकी ओर खिंचने लगे हैं।
यह भारत है ! जहाँ दीन-धर्म के नाम पर कुछ भी किया जा सकता है। न किसी से अनुमति लेने की आवश्यकता, न किसी कानून का भय, न प्रमाण पत्र की जरूरत, न किसी योग्यता की। लोग धर्म के नाम पर विद्यालय खोल सकते हैं, प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित कर सकते हैं, सीधी-सादी जनता को मूर्ख बना सकते हैं और तो और रुप कुँवर जैसी मासूम युवतियों को सती की दुहाई देकर आग की भेंट चढ़ा सकते हैं। कुछ भी किया जा सकता है। कानून की आँख तो उस वक्त खुलती है जब घटनाएँ घट चुकी होती हैं और लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के अन्धविश्वासों का शिकार हो चुके होते हैं।
अगर मैं भूलता नहीं हूँ तो शायद उसका नाम अजीत साहू था, अपनी तान्त्रिक शक्ति से निर्जीव को जीवित कर देने का दावा करने वाला साहू ! गुरु को देवता की तरह पूजने वाले शिष्य आँख मूँदकर विश्वास ले आए उसकी आन्तरिक शक्ति पर,
और फिर एक दिन एक युवक ने विषपान किया,
अगले दिन दूसरे ने-फिर तीसरे ने...
चौथे ने रेलवे लाइन पर कटकर जान दी...
पाँचवें ने फाँसी का फन्दा लगाकर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर ली।

मृत्यु की पहली तीन घटनाओं को प्रशासन आत्म-हत्या के साधारण मामले समझता रहा लेकिन जब यह क्रम पाँच तक पहुँचा, तो प्रशासन के कान खड़े हुए। पुलिस हरकत में आई। जाँच-पड़ताल हुई। तब पाँच के पाँच शव बरामद हुए, जंगल में बनाये गए एक स्थान से...शवों के पास मिठाई, नारियल तथा हवन की अन्य सामग्री ज्यों की त्यों रखी थी और गुरु फरार था। वह अपनी तन्त्र विद्या से किसी को भी जीवित नहीं कर सका था।

मेरे भीतर की चीख बार-बार मुझसे पूछती है कि उन अभागे परिवारों के घरों का अन्धकार अब कौन दूर करेगा, जिनके दीपक अजीत साहू ने बुझा दिए ? उन रोती-बिलखती माताओं की छातियाँ कैसे शान्त होंगी, जिनकी ममता के अधखिले फूल अन्धविश्वास की भेंट चढ़ गए ? उन बहनों की आँखों से कौन आँसू पोंछेंगा, जिनके सम्मान की रक्षा करने वाले हाथ मौत के दानव ने चबा डाले ? हो सकता है कानून आत्महत्या के लिए प्रेरति करने वाले साहू को मृत्युदण्ड दे...

लेकिन यहाँ एक साहू नहीं, हजारों लाखों साहू हैं और हम विश्वास कर रहे हैं उन पाखंड़ियों पर, उन निराधार विश्वासों पर, जिनका सम्बन्ध सत्य से नहीं, भ्रम और धोखे से है।
मैं रायपुर के निकट स्थित उस गाँव से भी लौट आया हूँ। जहाँ आज भी अपने पाँच लाड़लों की अकाल मृत्यु पर चीत्कार और कोहराम मचा है। जहाँ आज भी माताओं की आँखों में आँसू हैं और पिता निराशा का बोझ लिये सिर झुकाये बैठे हैं। उनकी कमरे टूट गई हैं और भुजाओं को अधरंग मार गया है।
मैं घबराकर इस गाँव से भागता हूँ, भागता ही जाता हूँ, लेकिन नियति मुझे एक स्थान पर ले आई है जो वीरान है, जहाँ कब्रों के नाम पर मिट्टी के कुछ ढेर बिखरे पड़े हैं। आँख खोलकर देखता हूँ तो मैं स्वयं को भी एक कब्र के किनारे खड़ा पाता हूँ। भूली-बिसरी यादें मस्तिष्क पर हमला करती हैं, अखबार का एक और पन्ना मेरे सम्मुख लहराता है और मुझे याद आती है वह महिला जो एक शाहजी के बताये टोटके की भेंट चढ़ गई।
वह निःसन्तान थी,
पर स्तनों में ममता का ज्वार ठाठें मार रहा था। कोई उपाय नहीं था उसके पास ज्ञान की रोशनी पहुँची नहीं थी उस तक। जो कुछ पहुँचा था उस तक, वह एक आस्था थी, एक विश्वास था उन लोगों प्रति जिन्होंने उस समाज में अपनी एक सत्ता स्थापित कर ली थी जिस समाज की आर्थिक सत्ता और व्यवस्था ने पुरुषों और महिलाओं तक सच और ज्ञान के प्रकाश को पहुँचने नहीं दिया था।
आखिर मातृत्व की आग उसे खींच ले गई। शाहजी के चरणों में, जहाँ से वह एक उम्मीद, एक आशा लेकर आई। उसे विश्वास था कि चालीस दिन का व्रत और दुआओं के बोल और ‘शाहजी’ के आशीर्वाद निःसन्देह ही उसकी मनोकामना पूरी कर सकते हैं, उसकी गोद हरी हो सकती है।
दसवें दिन ही उसका वजन इतना घट गया कि वह पलँग से लग गई। रक्त की कमी और दुर्बलता बढ़ती गई, बढ़ती गई और इससे पूर्व कि वह अपने व्रत के अन्तिम दिन तक पहुँचती, सुनसान जंगल में स्थित कब्रिस्तान के एक गड्ढे में सुला दी गई।
मैंने दुःख की मुद्रा में कब्र की मिट्टी उठाई। उसे सूँघा। मुझे लगा, जैसे इसमें झूठी आस्था और अज्ञानता की दुर्गन्ध आ रही हो। मैंने घबराकर वह मिट्टी फेंक दी और फिर उस पगडंडी पर चला आया, जहाँ से कुछ दूर पहले मैंने उन दो व्यक्तियों को छोड़ा था, जिनमें से एक नतमस्तक था किसी जटाधारी साधु बाबा के सामने और दूसरा हाथ जोड़े खड़ा था शाहजी के चरणों में !

सोचता हूँ अन्त क्या होगा ? क्या इनके दुःख दूर होंगे, अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेंगे ये ? मुझे कोई उत्तर नहीं मिलता। हाँ, विशाल जीवन का एक मंच मेरे सामने है, जहाँ दिन-रात यह नाटक हो रहा है। पात्र नाच रहे हैं, उन्हें नचाया जा रहा है। भ्रमों और अन्धविश्वासों के इशारे पर...
मेरा दुःख बढ़ रहा है। मेरी घबराहट बढ़ जाती है...मैं भाग उठता हूँ उस पगडंडी से और शरण लेता हूँ उस पुस्तकालय में, जहाँ से मुझे ज्ञान और सत्य की रोशनी मिली थी-जिसने अन्धकार से लड़ने के लिए प्रेरित किया था मुझे....
मेरे चारों ओर लेखक हैं, कवि हैं, नाटककार हैं...विचारक हैं, दार्शनिक हैं....मैं उनकी ओर बढ़ता हूँ, नाटककार मुझे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। मैं उनकी तरफ बढ़ता हूँ और सज जाता है फिर एक और मंच...
इस मंच पर भ्रमों और अन्धविश्वासों के मारे पात्र तो हैं जो अपनी-अपनी भूमिकाएँ रोचक ढंग से निभा रहे हैं, लेकिन मंच पर वह रोशनी तेज है, वह प्रकाश बहुत तीव्र है, जो अज्ञानता को ज्ञान में बदलेगा, धोखे को सत्य की शक्ति से पराजित करेगा। मुझे विश्वास है, अटूट और अटल विश्वास।


16 साहित्य विहार,
बिजनौर (उ. प्र.)

(डॉ.) गिरिराजशरण अग्रवाल



चमत्कार


उपेन्द्रनाथ अश्क


पात्र-परिचय


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तुर्की टोपीवाला
लंबी चोटीवाला
कृपाणवाला
घंटीवाला
सफेद दाढ़ीवाला
अन्य राह-चलते लोग
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स्थान : एक बड़े नगर का एक बड़ा बाजार।
समय : दिन।
[रंगमंच के बायें कोने में ‘बाइबिल सोसायटी’ का महराबदार दरवाज़ा है। महराब के ऊपर बड़े-बड़े सुंदर अक्षरों में लिखा है:

‘‘यीसू मसीह ने कहा, ‘उठ !’ और कुमारी उठ बैठी !’’ यह बाइबिल सोसायटी एक बड़े खुले बाजार में है। रंगमंच के दायें कोने में बाइबिल सोसायटी के साथ की दुकान का आधा बोर्ड (जिस पर उप्पल एंड कंपनी लिखा हुआ है) और दरवाजे का आधा भाग साफ दिखाई देता है। बाइबिल सोसायटी और उप्पल एंड कंपनी की सीमाएँ स्टेज के मध्य आकर मिलती हैं। बाइबिल सोसायटी की बिल्डिंग का रंग लाल है और दूसरी दुकान का मोतिया। दोनों दुकानों के आगे फुटपाथ है, जिस पर बिजली का एक खंभा भी उप्पल एंड कंपनी के सामने दिखाई देता है। फुटपाथ के इस ओर बायें से दायें अथवा दायें से बायें को जानेवाली तारकोल की सड़क है।



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