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श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य कविताएँ

काका हाथरसी व गिरिराज शरण

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :198
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1747
आईएसबीएन :81-7315-028-1

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प्रस्तुत हैं श्रेष्ठ हास्य व्यंग्य कविताएँ...

Shreshtha Hasya Vyangya Kavitayein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हास्य-व्यंग्य : जीवन के अंग

जिस प्रकार विरोधी दल के नेताओं में नयी-नयी योजनाएं सूझती हैं। उसी तरह ट्रेन में यात्रा करते समय हमारे मस्तिष्क में विचित्र कल्पनाएं उछल-कूद मचाती हैं।

 उस दिन डॉ० गिरिराजशरण के साथ यात्रा में स्टेशन पर मालूम हुआ कि गाड़ी एक घंटे लेट है। हमारे परिचित टी० टी० बाबू मिले तो हमने कहा, ‘‘क्या हो गया है, इमरजेंसी के बाद ? रोजाना गाड़ियां लेट आती हैं।’’ टी० टी० बाबू कवियों की संगत करते-करते काव्यरसिक बन गये थे। कहने लगे, ‘‘अजी काका, ट्रेन तो एक कुंआरी कन्या के समान है जो ‘मिस’ तो होती ही हैं, ‘लेट’ भी जाती हैं और ‘मेकअप’ भी करती है। अधिक मनचली हुई तो चलते-चलते सीटी बजाती है।’’ उनकी यह तुलनात्मक विवेचना सुनकर एक हास्यकवि ने तो इसपर कविता भी बना डाली थी।

गिरिराज जी ने कहा, ‘‘काका जी, आजकल हास्य-व्यंग्य के लेखक अच्छा लिख रहे हैं और आप स्वयं भी उनकी प्रशंसा करते हैं, क्यों न वर्तमान हास्य-व्यंग्याचार्यों की रचनाओं के संकलन तैयार किये जायें। प्रभात प्रकाशन इसे प्रकाशित करने को तैयार है। आपके पास तो बहुत-सा मैटर होगा। मैं जानता हूँ कि हास्य-व्यंग्य पर जो भी लेख या कविता आपको पसंद आती है, उसकी कटिंग आप एक फाइल में डाल लेते हैं।’’ ‘घर का भेदी लंका ढाये’ यह कहावत याद आयी और हमें स्वीकृतिसूचक सिर हिलाना ही पड़ा।

फिर वे बोले, ‘‘हास्य और व्यंग्य को कुछ साहित्यकार अलग-अलग मनाते हैं इस बारे में आपका विचार ? हमने कहा, ‘‘हास्य और व्यंग्य एक गाड़ी के दो पहिये हैं। हास्य के बिना व्यंग्य में मजा नहीं आता और व्यंग्य के बिना हास्य में स्वाद नहीं आता। दोनों बराबर एक-दूसरे का साथ दें तभी जन-गण-मन की मनोरंजनी गाड़ी ठीक से चलती है। अकेला व्यंग्य निंदा का रूप ले लेता है और अकेला हास्य भड़ैती का सूचक बन जाता है।’’ व्यंग्य का अंग और भी स्पष्ट करते हुए हमने कहा, ‘‘जिसपर व्यंग्य-बाण छोड़ा जाये वह तिलमिलाकर कुछ सोचने के लिए मजबूर हो जाये तो समझिये व्यंग्यकार सफल हुए।

इसके विरुद्ध वह व्यक्ति अपनी बेइज्जती समझकर व्यंग्यकार पर आक्रमण करने को तैयार हो जाये अथवा बदले में गाली देने लगे मैं उस व्यंग्य को व्यंग्य न मानकर अपमान या निंदा की संज्ञा ही दूँगा।’’

आप कड़ी से कड़ी बात कह जाइये, उसमें जरा-सा हास्य का पुट दीजिये। फिर देखिये उसका प्रभाव।  पिछले दिनों मेरठ में कवि सम्मेलन हुआ। वे जिस समय मंच पर आये उस समय प्रसिद्ध गीतकार नीरज गीत सुना रहे थे। नीरज जी का गीत समाप्त हुआ और आवाज लगी कि काका हाथरसी आयें ? मैंने कहा, ‘‘श्रीमान जी के आने से पूर्व मैं कई कविताएँ सुना चुका हूँ और अभी कई शेष हैं, उन्हें सुनवाइए।’’ उत्तर मिला, ‘‘नहीं आप ही आइये।’’ मैंने श्री राजनारायण को लक्ष्य करते हुए कहा, ‘‘श्रीमान मैंने तो आज ही आपके सम्मान में छह पंक्तियां लिखी हैं। नाराज न हों तो सुना दूँ।’’ मैंने सुनायाः


नाटक में ज्यों विदूषक, जोकर सरकस माहिं,
कवि सम्मेलन का मजा बिना हास्यकवि नाहिं।
बिना हास्यकवि नाहिं, हास्य का भारी पल्ला,
अकबर के दरबार बीरबल का था हल्ला।
यह उदाहरण देते हैं काका इस कारण,
आवश्यक हैं संसद में श्री राजनारायण।


मंत्री जी ने एकदम उछलकर हमसे हाथ मिलाया। तब मैंने अनुभव किया कि व्यंग्य का प्रयोग ढंग से किया जाए तो उसका कितना अच्छा प्रभाव पड़ता है।

 एक उदाहरण और देखिये। हमारी मिसरानी प्रायः मैली धोती पहनकर आया करती थी। मैंने उसे कई बार टोका, लेकिन वह टाल देती। एक दिन मैंने  व्यंग्य की बंदूक छोड़ दी और कहा, ‘‘मिसरानी जी, यह धोती जो तुम पहनकर आती हो, क्यों इसका सत्यनाश करती हो, देवछट का मेला रहा है, उसके लिए रख लो न इसे।’’ वह धोती का पल्ला मुँह पर रखकर इतना हँसी कि चूल्हे की रोटी जल गयी। दूसरे ही दिन स्वच्छ वस्त्रों में आना प्रारम्भ कर दिया।

यहाँ पर मैं एक बात और कहना चाहूँगा कि कुछ लोग व्यंग्य के टीले पर बैठकर अपने को महान व्यंग्यकार समझते हैं और जिस व्यंग्य में सरल हास्य भी रहता है, उसे निम्नकोटि का समझते हैं। ऐसे लोगों के लिए कार्ल मार्क्स ने लिखा है, ‘‘हम स्वयं को जो समझते हैं, अपने बारे में जो जानते हैं, जरूरी नहीं है, वह सही हो, व्यक्ति तो व्यक्ति, पूरा युग भी अपनी असलियत नहीं पहचान पाता।’’

वस्तुतः व्यंग्य में यदि हास्य नहीं होगा तो वह कोतवाल का हंटर हो जाएगा। उसकी पीड़ा से तिलमिलाकर अभियुक्त कैसा अनुभव करेगा, उसे आप अच्छी तरह समझ सकते हैं। इस कार्य के लिए न्यायालय पहले से ही मौजूद है, फिर व्यंग्य की क्या जरूरत है। हास्य-मिश्रित व्यंग्य सीधा प्रहार करता है और आपको चोट भी नहीं लगती। लगती भी है तो वह चोट आपके हृदय-परिवर्तन में सहायक होती है। स्व० हृषीकेश चतुर्वेदी कहा करते थे कि ‘‘मजाक करना नहीं है, मजाक करो तो तमीज के साथ करो, वरना चुप रहो।’’

हास्य-व्यंग्य की रचनात्मक धारा से ये पुस्तकें आपके सामने हैं, जिसमें हास्य-व्यंग्य की श्रेष्ठ कविताओं, कहानियों, निबन्धों और एकांकियों को अलग-अलग संकलित किया गया है। इनके रचनाकारों ने रचनाएं भेजने में जो तत्परता दिखायी है इनके लिए वे बधाई के पात्र हैं। इस प्रकार हमारी उस यात्रा में एक ऐसा काम हो गया जिससे हजारों हास्य-व्यंग्य-प्रेमियों को शिक्षात्मक मनोरंजन प्राप्त होगा और वे ‘हास्य-व्यंग्य जीवन के अंग’ इस सूत्र को स्वीकार करेंगे।

-काका हाथरसी


जैसा मैं सोचता हूँ



यह सौभाग्य की बात है कि पिछले कुछ वर्षों से  हास्य और व्यंग्यपरक विधा पर विचार होने लगा है। जिस शिल्प को महत्त्व नहीं दिया जाता था, जिस कथ्य को यों ही उड़ा दिया जाता था, समीक्षक नाक-भौं सिकोड़ते थे, आलोचक कन्नी काट जाते थे, अब कम–से-कम इतना तो हुआ समीक्षकों ने उसपर बातचीत चलायी है।

पर दुर्भाग्य है कि यह बातचीत अभी तक सुलझे हुए वस्तुगत निष्कर्षों तक नहीं पहुँची। हमारे देश के जाने-माने हिंदी व्यंग्यकार भी जब सृजनात्मक लेखन से हटकर व्यंग्य की प्रतिभा पर बात करते हैं तो उसे एक अजीब-सी स्वायत्तता प्रदान करना चाहते हैं। मसलन व्यंग्य है, वह ऊंचे दर्जे की चीज है, हास्य से उसका कोई लेना-देना नहीं, हास्य बेहद घटिया चीज है। न केवल हास्य-व्यंग्य के अंतः सम्बन्धों को समझने में गड़बड़ी है, बल्कि हास्य और व्यंग्य के मूल उत्सों की पहचान भी इस गड़बड़ी में खो जाती है।

हमें यहां बस दो बातें करनी हैं। पहली, हास्य और व्यंग्य की रचना-प्रक्रिया और दूसरी, हास्य और व्यंग्य के आपसी रिश्तों के संबंधों में। ज्ञान और संवेदना का अविच्छिन्न संबंध है। विशेषकर इस शताब्दी में अगर कोई ज्ञान रहित संवेदना की बात करता है या संवेदना-रहित ज्ञान की चर्चा करता है तो  त्रुटि पर है। हास्य को हम संवेदना का एक प्रकार मान सकते हैं। व्यंग्य में विचार या ज्ञान की प्रधानता स्वीकारी ही जाती है। मुक्तिबोध द्वारा गढ़े गये परिभाषित शब्द-युग्मों-ज्ञानात्मक संवेदना, संवेदनात्मक ज्ञान-के वजन पर हमारा मन भी ऐसे शब्दयुग्म बनाने को करता है। यात्रा और अनुपात के आधार पर हमें हास्य को ‘हास्यात्मक व्यंग्य’ और व्यंग्य को ‘व्यंग्यात्मक हास्य’ कहना चाहिए। ‘तर’ और ‘तम’ का अंतर भी से स्पष्ट प्रकट हो जायेगा और व्यंग्य को व्यंग्य एवं हास्य में द्वैत-पैदा करनेवालों को जवाब भी मिल जायेगा।

हास्य और व्यंग्य के उत्स पर विचार करते हुए व्यंग्यचित्रकार आबू की एक बड़ी मजेदार बाद आती है। उन्होंने बड़े मासूम अंदाज में कहीं लिखा हैः जरा सोचिए कि जानवर क्यों नहीं हँसते। सीधा-सा उत्तर है, उनके पास किसी पर हंसने का कारण नहीं होता हैं, क्योंकि वे सब समान हैं। असमान होते तो एक-दूसरे पर हंसते, व्यंग्य करते।’’

कहने को बात में लॉजिक नहीं है लेकिन काफी हद तक बात साफ हो जाती है। असमानता हास्य और व्यंग्य का कारण है। हम अपने बराबर वालों पर नहीं हँसते, हँसते हैं तो छोटों पर या बड़ों पर। हँसते हैं छोटों पर तो बड़े साथ देते हैं। बड़ों पर हँसते हैं तो छोटे साथ देते हैं। बड़ों की संख्या कम, छोटों की ज्यादा है इसलिए अधिकांशः छोटे ही बड़ों पर हँसकर उदात्तीकरण करते हैं। केले के छिलके पर कोई गरीब फटेहाल फिसल जाए तो शायद हँसी न आए; हो सकता है कि कोई सहृदय सज्जन उसे उठाने बढ़े लेकिन यदि मोटे लाला जी उससे फिसल जायें तो उठाने की बात तो दूर कुछ लोग खिलखिलाकर कुछ नजरें बचाकर, तो कुछ खुलेआम हंसेगे और काफी देर तक हँसते रहेंगे। देखा जाये तो इसमें हँसने की कोई बात नहीं है। इसमें बेचारे लाला जी का क्या दोष कि वे फिसल गये किंतु बारीकी से देखा जाये तो हँसने की बात निकलती है। थुल-थुल लाला जी के फिसलने में एक सहायिका उनकी तोंद भी थी, जिसके साथ दूसरों को चूसने का अच्छा-खासा अतीत जुड़ा हुआ है। असमानता का यह अहसास हमें यह तो याद दिलाता ही है कि हमें उन जैसी नहीं, लेकिन एक ही झटके में उसे तिरोहित कर उदात्तीकृत कर देता है। तोंद से संबद्ध शोषण की अतीत गाथा हमारी विचार-प्रक्रिया से टकराती है और हास्य में अंतर्निहित व्यंग्य धीरे-धीरे उभरने लगता है। इसे हम हास्यात्मक व्यंग्य कहेंगे।

यदि कोई व्यंग्यकार इस घटना में अपनी कल्पना विचार-भावना और बुद्धि का योग देकर इस चित्र को कुछ इस तरह खींच के मोटे मंत्री जी हाथ में फाइलें दबाये कैबिनेट की मीटिंग अटैंड करने की फुर्ती में हैं कि फिसल गये। खादी के कुरते के नीचे मिल के रेशम की बनियान झांकने लगी, फाइलों में से फिल्मी पत्रिका गिर पड़ी, कुरते की जेब से विदेशी पेन सरक गया, एक तरफ बत्तीसी जा गिरी-हँसी तो इस चित्र को पढ़-देखकर भी आयेगी किंतु हम इसे व्यंगात्मक हास्य कहेंगे।

हास्य-व्यंग्य के उत्स और उनके संबंधों की बात साथ-साथ चल रही है। उत्स के बारे में एक बात और कह देंगे जो प्रकारांतर से पिछली बात का विस्तार ही है। युग बदलता है परिस्थितियां बदलती हैं, परिवेश बदलता है किंतु कुछ क्षेत्रों में परंपराएं और रूढियां नहीं बदल पातीं। पुरानी मूल्य-व्यवस्था से जकड़न नहीं टूट पाती। नये परिवेश में वे अपनी उपयोगिता खो चुकती हैं। अतः विद्रूपित हो जाती हैं। यह विद्रूप भी हास्य-व्यंग्य का जन्मदाता होता है, क्योंकि इसके कारण अनेक प्रकार की विसंगतियां, विडंबनाएँ और सामाजिक विकार परिलक्षित होने लगते हैं।
परक विडंबनाएं जितनी अधिक होंगी, उतनी ही वहाँ हास्य और व्यंग्य की संभावनाएं होंगी।

विसंगितयों और विडंबना-विकारों के रहते कोई भी व्यंग्य हास्य-शून्य नहीं हो सकता और कोई भी हास्य व्यंग्य के बिना अस्तित्व नहीं रख सकता। हास्य से हमारा अभिप्राय मसखरेपन, मजाक या जोकरी से नहीं है, हास्य से हमारा तात्पर्य है—हास्यात्मक व्यंग्य।
सामान्य समीक्षकों को हास्य-व्यंग्य के अंतःसंबंधों पर पुनर्विचार करने की अदना राय के साथ हास्य-व्यंग्य के संकलन सामने हैं। इन्हें कहीं भी आप हंसने से वंचित नहीं होंगे, साथ ही व्यंग्य की मार से भी बच पाएंगे।


(डा.) गिरिराजशरण अग्रवाल


अल्हड़ बीकानेरी

तुझको पराई क्या पड़ी



बेटा है तू शरीफ का, मत मुस्कुरा के चल,
टाँगें हैं तेरी बेंत-सी, इनको टिका के चल।
सड़कों की भीड़-भीड़ में, कोहनी बचा के चल
कालिज के कार्टून, तू नजरें झुका के चल।
लड़की मिले जो राह में, उसको न छेड़ तू,
तुझको पराई क्या पड़ी, अपनी निबेड़ तू।


लाला को अपनी ऊँची हवेली से प्यार है,
माली को अपनी शोख चमेली से प्यार है।
कुढ़ता है क्यों, गुरु को जो चेली से प्यार है,
तुझको भी तो बहन की सहेली से प्यार है।
जो तेरे मन में चोर है उसको खदेड़ तू,
तुझको पराई क्या पड़ी, अपनी निबेड़ तू।

ओढ़े था तन पे शाल सुदामा, फटा हुआ,
पहने है कोट कल्लू का मामा फटा हुआ।
मत हँस किसी को देख के जामा फटा हुआ,
तेरा भी तो है, देख, पजामा फटा हुआ।
मत दूसरों के सूट की बखिया उधेड़ तू,
तुझको पराई क्या पड़ी है, अपनी निबेड़ तू।

रहता है हर घड़ी जो हसीनों की ताक में,
करता है हाय-हाय, जो उनकी फिराक में।
कहता है लड़कियों को जो लैला, मजाक में,
जिसकी वजह से दम है मुहल्ले की नाक में।
अपने तो उस सपूत की चमड़ी उधेड़ तू,
तुझको पराई क्या पड़ी, अपनी निबेड़ तू।

तुकबन्दियों पे, यार, न इतना तू नाज कर,
घर में इकट्ठे आज ही ‘म्यूजिक’ के साज कर।
बुद्धू पड़ोसियों का न बिलकुल लिहाज कर,
छत पर तमाम रात तू डट के रियाज कर।
तबला बजाये बीवी तो सारंगी छेड़ तू,
तुझको पराई क्या पड़ी, अपनी निबेड़ तू।

ढल जाए, क्या गरज तुझे बीबी के रूप से,
मतलब है सिर्फ तुझको तो बच्चों की ‘ट्रू प’ से।
कब तक इन्हें रिझायेगा कद्दू के रूप से,
कैसे इन्हें बचायेगा कड़की की धूप से।
मत भूल, है खजूर का बेसाया पेड़ तू,
तुझको पराई क्या पड़ी, अपनी निबेड़ तू।

बीवी से और तलाक ! मत ऐसा गुनाह कर,
फेरे लिये हैं सात, मत इसको तबाह कर।
कम्मो से तू न खेल, न निब्बो की चाह कर,
धन्नो यही है तेरी, तू इसी से निबाह कर।
अनपढ़ समझ के इसको न घर से खदेड़ तू,
तुझको पराई क्या पड़ी, अपनी निबेड़ तू।


कविता के सिवा



इस शहर से किस तरह सलामत कोई लौटे,
हर मोड़ पे मिलते हैं मुखौटे ही मुखौटे।
तानों की यह बौछार कहाँ तक कोई ओटे,
हर तौर से समझा चुके हमको छोटे-बड़े।
जोकर की तरह मंच पे दिखना नहीं आया,
कविता के सिवा कुछ हमें लिखना नहीं आया।

पशुओं के भी मेलों में कई रात हैं जागे,
पर बीन बजा पाए नहीं भैंस के आगे।
पाँवों को नहीं बाँध सके प्रीत के धागे,
कविताएँ पढ़ी और शहर छोड़ के भागे।
दाताओं को दहलीज पे टिकना नहीं आया,
कविता के सिवा कुछ हमें लिखना नहीं आया।

गुरुओं को सदा हमने इसी फिक्र में देखा,
छिन जाए न पल्ले से किसी मंच का ठेका।
चेलों के चमत्कार का मत पूछिए लेखा,
जिस घर में लगी आग वहीं जिस्म को सेंका।
हम कूद पड़े आग में, सिंकना नहीं आया,
कविता के सिवा कुछ हमें लिखना नहीं आया।

समझा नहीं शोहरत को कभी अपनी बपौती,
पहनी नहीं अचकन, कभी बांधी नहीं धोती।
मुट्ठी में दलालों के न आया कभी मोती,
किस तरह हड़पते वे कमीशन या कटौती।
मंडी में किसी भाव पे बिकना नहीं आया,
कविता के सिवा कुछ हमें लिखना नहीं आया।


खतरे का भोंपू



मंत्र पढ़वाए जो पंडित ने वे हम पढ़ने लगे,
यानी मैरिज की कुतुब मीनार पर चढ़ने लगे।
आए दिन चिंता के फिर दौरे हमें पड़ने लगे,
‘इनकम’ उतनी ही रही, बच्चे मगर बढ़ने लगे।
क्या करें हम, सर से अब पानी गुजर जाने को है,
सात दुमछल्ले हैं घर में, आठवाँ आने को है।

घर के अन्दर मचती रही है सदा चीखो-पुकार,
आज है पप्पू को पेचिश, कल था बंटी को बुखार।
जानकर भी ठोकरें खाई हैं हमने बार-बार,
शादी होते ही शनीचर हो गया हम पर सवार।
अब तो राहु की दशा हम पे चढ़ जाने को है,
सात दुमछल्ले हैं घर में, आठवाँ आने को है।

घर में बस खाली कनस्तर के सिवा कुछ भी नहीं,
जा-ब-जा उखड़े पलस्तर के सिवा कुछ भी नहीं।
खिड़की-दरवाजे कहाँ, दर के सिवा कुछ भी नहीं,
अपने घर में, दोस्तों, घर के सिवा कुछ भी नहीं।
एक तीली आपकी सिगरेट सुलगाने को है,
सात दुमछल्ले हैं घर में, आठवाँ आने को है।

देखिए किस्मत का चक्कर, देखिए कुदरत की मार,
दिल में है पतझड़ का डेरा, घर में बच्चों की बहार।
मुँह को तकिये में छुपाकर, क्यों न रोएँ जार-जार,
रोटियों के वास्ते ‘क्यू’, चाय की खातिर कतार।
अपना नम्बर और भी पीछे खिसक जाने को है,
सात दुमछल्ले हैं घर में, आठवाँ आने को है।

कोई ‘वैकेन्सी’ नहीं, घर हो गया बच्चों से ‘पैक’,
खोपड़ी अपनी फिरी भेजा हुआ बीवी का ‘क्रैक’।
खाइयाँ खोदें, कहीं छुपकर बचाएँ अपनी ‘बैक’,
होने वाला है हम पर आठवाँ ‘एयर-अटैक’।
घर में फिर खतरे का भोंपू भैरवी गाने को है,
सात दुमछल्ले हैं घर में, आठवाँ आने को है।


कटी उम्र होटलों में



क्या कहें, शुरू से चक्कर, रहा पाँव में हमारे,
कहीं रम गये महीनों, कहीं चार पल गुजरे।
कहीं जाँ किसी पे छिड़की, कहीं दिल किसी पे हारे,
गमे-आशिकी के सदके, रहे उम्र-भर कुँवारे।
हम अकेले कैसे टिकते, कोई घर कहीं बसाकर,
कटी उम्र होटलों में मरे अस्पताल जाकर।

कभी जंगलों में भटके, कभी गुलिस्ताँ में आये,
कभी कहकहों में डूबे, कभी गम में गीत गाये।


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