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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह



हथियार

असीमा ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि रणवीर एक ऐसा प्रस्ताव सामने रखेगा। थोड़ी देर तक चुप रहने के बाद वह बोली,''ऐसा भी हो सकता है?''

''एकदम नामुमकिन भी नहीं है?'' रणवीर के स्वर में व्यंग्य के साथ तीखापन भी घुला था, ''क्यों...इससे क्या गर्दन कट जाएगी?''

''बात गर्दन के कट जाने की नहीं हो रही है लेकिन...'' असीमा ने आगे जोड़ा, ''पिछले कई महीनों से भेंट-मुलाकात नहीं हुई है...अचानक इतने दिनों के बाद वहाँ जाकर ऐसा एक प्रस्ताव...''

''हो...हो...हो...'' रणवीर के स्वर में अब भी वही कड़वाहट घुली हुई थी। उसने कहा, ''अब ऐसा कौन है भला जो पति और बेटे को लेकर घर-गिरस्ती भी करे और 'प्रथम प्रेम' के द्वार पर रोज हाजिरी भी लगाए।...बोलो...!''

''बस करो...ऐसी बेहूदी बातें न करो तो अच्छा...।''

''वाह...पहले तो मैं एक भले आदमी की तरह ही बातें कर रहा था। तुमने ही सारा कुछ तोड़-मरोड़ दिया और मेरा मूड खराब कर दिया। इसमें मुश्किल क्या है भला?...कम उम्र में खेला जाने वाला 'नैनमटक्का' लोग आसानी से नहीं भूलते...यह तो तुम मानती हो न...? घोषाल साहब भी अपने शुरू-शुरू के दिनों में तुम्हें प्यार भरी नजरों से देखा करते थे...अब अगर आज तुम उनसे कोई अनुरोध करो तो वे उसे पूरा कर खुश ही होंगे।''

असीमा गम्भीर हो गयी और बोली, ''आँखमटक्का के बारे में तुम्हारी जानकारी खासी गाड़ी है। खैर, इस बात को जाने दो...और मान लो वे खुश हो भी गये तो मैं भला क्योंकर खुश हो पाऊँगी? तुमने मेरे मान-सम्मान के बारे में कभी सोचा भी है?''

रणवीर को यह सब सुनकर बड़ी हैरानी हुई। वह उसी तेवर में कहता चला गया, ''इसमें सोचने-समझने की बात क्या है भला? उस आदमी के हाथ में...हां...क्या कहते हैं उसे, 'ईश्वर की कृपा से...बड़ी ताकत है। वह चाहे तो मेरे लिए एक अच्छी-सी नौकरी का जुगाड़ कर सकता है। बस, याद दिलाने भर की बात है। अब इसे कहते हुए भी तुम अपने मान-सम्मान का रोना लेकर बैठ गयी। यह सब मेरी समझ में नहीं आता।...''

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