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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''तुम्हें कुछ समझाना तो और भी मुश्किल है..." कहती हुई असीमा खामखाह मेज पर पड़ा चीजों को सहेजने लगी।

रणवीर का जबड़ा और भी भिंच गया और माथे की त्यौरियाँ चढ़ गयीं। उसने तीखे स्वर में कहा, ''जिस मर्द को अपनी बीवी की खुशामद करनी पड़े उस पर लानत है...!"

''खुशामद...यह तुम मेरी खुशामद कर रहे हो?" कहते-कहते असीमा का चेहरा लाल हो उठा।

''और नहीं तो क्या?" रणवीर ने झुँझलाकर कहा, "इतनी देर से जो कर रहा हूँ उसे किसी भी जुबान में खुशामद ही कहेंगे।...तुम तो ऐसे बिदक रही हो जैसे कि मैं किसी के घर में आग लगाने को उकसा रहा हूँ। जबकि बात कुछ भी नहीं है। तुम्हारे साथ घोपाल साहब की पुरानी जान-पहचान है इसीलिए तुम उनके सामने बड़ा आसानी से मेरी बात रख सकतइा? हो।...और तभी तो इतनी चिरौरी कर रहा हूँ।"

''अच्छा, ड्तना आसान है?''

असीमा के होठों पर हल्की-सी मुस्कान खेल जाती है। सचमुच...मीठी मुस्कान की सतरें...।

इतना आसान है सब कुछ!

प्यारह साल तक कोई भेंट-मुलाकात न होने के बाद, देवव्रत के घर जाकर उससे मिले...और अपने बेकार पति के लिए कोई नौकरी जुगाड़ कर देने का आग्रह करे। यह सब करना-धरना इतना आसान है? रणवीर के हिसाब से तो यह बड़ा सहज जान पड़ता है। देवव्रत इतने दिनों तक असीमा का सहपाठी रहा है और उसके साथ असामा की गाढ़ी छनती भी रही है...इसे रणवीर जानता है। उसका वही पुराना सहपाठी अब अपनी काबलियत के बलबूते पर भाग्यलक्ष्मी को अपनी मुट्ठी में कैद किये हुए हैं-इसकी सूचना भी रणवीर खुद लिये आया था। असीमा को सुनाने। 'घोषाल एण्ड कम्पनी' के लम्बे-चौड़े व्यापार और ताम-झाम के बारे में उसे जैसे ही पता चला, वह असीमा के पास दौड़ा चला आया।

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